आज की परिस्थितियों में व्यक्ति, परिवार और समाज का जो स्वरूप विश्व मानस के सामने है उसे अवाँछनीय, जराजीर्ण काया वाले ऐसे वयोवृद्ध की तरह समझा जा सकता है जो अपनी दुर्गतिपूर्ण स्थिति के कारण न स्वयं प्रसन्न है, न दूसरों को चैन से रहने दे रहा है। ऐसे वृद्ध के काया कल्प की क्या आशा की जाय। वे तो घिसे पिटे—टूटे बर्तन, कबाड़ी के समान के समकक्ष हैं जिन्हें बड़ी बेरहमी से भट्टी में गलने के लिये झोंक दिया जाता है। ढलाई जब भी होती है, सुखद स्वरूप सामने आता है। ढलाई जब भी होती है, सुखद स्वरूप सामने आता है। लेकिन उसके पहले गलाई का निर्दयतापूर्वक कार्य अनिवार्य है। रंगाई का निर्दयतापूर्वक कार्य अनिवार्य है। रंगाई के पहले धुलाई जरूरी है। जुताई पहले की जाती है। रंगाई के पहले धुलाई जरूरी है। जुताई पहले की जाती है तभी बुवाई की बात बनती है। महाकाल का प्रस्तुत क्रिया-कलाप कुछ इसी ढंग का है।
क्रुद्ध उन्मत्त प्रकृति के क्रिया-कलाप मानवी बुद्धि की समझ में ही नहीं आ पाते। कुछ उसे तात्कालिक परिस्थितियों के साथ जोड़ने का प्रयास करते हैं, कुछ उसे संयोग भर मानते हैं। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। यह तो इकॉलाजी रूप दैवी अनुशासन की अवज्ञा अवहेलना का सामूहिक दण्ड है, जिसे बड़ी गम्भीरता से समझना चाहिए। ध्वंस और विनाश के दृश्य होते तो बड़े भयावह हैं, लेकिन यह सारा प्रयास सुखद सृजन की पूर्व भूमिका मात्र है।
इन दिनों एक ओर तो रोंगटे खड़े कर देने वाले नृशंस अपराधों सामूहिक बलात्कारों पारस्परिक विग्रह विद्वेषों की बाढ़ है तो दूसरी और अतिवृष्टि, अनावृष्टि भूकम्प, महामारी, नयी-नयी मारक व्याधियों, तूफान बवण्डरों की भरमार है। यह क्रिया की प्रतिक्रिया मात्र है। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष - दृश्य एवं अविज्ञात सूक्ष्म वातावरण से उद्भूत प्रकृति प्रकोप मनुष्य की दुर्गति की ही परिणतियाँ हैं। लगते तो ये अप्रिय, कष्टकर हैं। सभी ज्योतिर्विद्, भविष्य विज्ञानी, वैज्ञानिकगण और भी अधिक बुरे समय की सम्भावनाएँ व्यक्त करते हैं तो जी और भी धक-धक करने लगता है। लेकिन इस पर भी निराश और अधीर होने की कोई आवश्यकता नहीं। यह मात्र झाड़ी-झंखाड़ समाप्त कर एक सुरम्य उद्यान लगाने की नियन्ता की एक योजना का एक अंग मात्र है। दूरदर्शिता बड़े आत्मविश्वास से यह कह सकती है कि जो भी कुछ घटित हो रहा है, किसी उद्देश्य से प्रेरित होकर ही नव-सृजन के निर्मित किया जा रहा हैं,
जो व्यक्ति समझदारी-जिम्मेदारी अपनाते हैं, उन्हें यह अनुमान लगाने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि हमें कौन-सा मार्ग चुनना है। एक में सृजन का सहयोगी बनने का सौभाग्य मिलता है तो दूसरे में भर्त्सना प्रताड़ना। दूसरा वर्ग उन भेड़ों-नरपामरों का कहा जा सकता है जो तात्कालिक लाभ में ही अपना हित देखता है। ऐसों को एक ही लाठी से हाँकना पड़ता है। ये अनुरोध की भाषा नहीं समझते मात्र दण्ड-प्रताड़ना से सुधरते हैं। ये औचित्य-अनौचित्य में भेद नहीं कर सकते। बहुसंख्य समुदाय इन्हीं का है जो सुविधा-लाभ में, मात्र अपना हित देखने में अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। यदि ये भी उचित को अपना सके होते तो महाकाल को अपनी आँखें ऐसी टेढ़ी न करनी पड़ती।
युग परिवर्तन की बेला 1980 से 2000 तक की बतायी गयी है। इस अवधि में बहुत कुछ तो घट चुका, कुछ ऐसा होने जा रहा है जिसे भविष्य के गर्भ में पकने वाले घटनाक्रमों के रूप में स्पष्ट देखा जा सकता। इस अवधि में आस्थाओं में आमूलचूल परिवर्तन होना है। इस प्रयोजन हेतु विशिष्ट पुरुषार्थ अभीष्ट है। अवांछनीयता की लपेट में कहीं सज्जनता भी न आ जाए, यह ध्यान रखते हुए सामूहिक प्रगति के प्रयत्न चलने चाहिए।
जागृत समुदाय को मूकदर्शक बनकर नहीं बैठ भर रहना है, सामाजिकता का निर्वाह करते हुए युग पुरश्चरण में सामूहिक अनुष्ठान में भी भाग लेना है। यह आपत्ति धर्म है जिसमें विश्व-विनाश की सम्भावनाओं की रोकथाम हेतु हिस्सा बँटाने हर किसी को आगे आना है।