अब पर्जन्य नहीं, अम्ल बरसेगा

September 1983

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क्रिया की प्रतिक्रिया का नियम प्रकृति का अकाट्य सिद्धान्त है। इसे सर्वत्र देखा एवं अनुभव किया जा सकता है। प्रकृति के गर्भ में जिन तत्वों का बीजारोपण होगा उन्हीं के अनुरूप प्रतिफल भी सामने आयेंगे। प्रकृति की यह अद्भुत विशेषता है कि उसे जितना दिया जाता है, उसका कई गुना बनाकर लौटाती है। मिट्टी में थोड़े से बीज पड़ते हैं जो पेड़ पादप रूप में गलकर बढ़ते हैं, पर असंख्य गुना बनाकर लौटाती है। मिट्टी में थोड़े से बीज पड़ते हैं जो पेड़ पादप के रूप में गलकर बढ़ते हैं, पर असंख्य गुना होकर लौटते हैं। अपनी मौलिक विशिष्टता को अक्षुण्ण रखते हुए भी बीज परिमाण की दृष्टि से अपने सादृश्य एक बड़ी बिरादरी को साथ लिये लौटते हैं। बीज चाहे आम का हो अथवा मादकता युक्त विषाक्तता भरी अफीम का, उपरोक्त नियम मादकता युक्त विषाक्तता भरी अफीम का, उपरोक्त नियम सबके ही साथ एक जैसा लागू होता है। देने में प्रकृति बनिये जैसी नाप-तौल नहीं करती अत्यन्त उदारता बरतती है। एक से अनेक, सीमित को असीम बनाने में उसकी क्षमता बेमिसाल है। पर यह विशेषता अनिवार्य रूप से जुड़ी हुयी है कि जैसा बीजारोपण होगा प्रतिफल उन्हीं विशेषताओं के अनुरूप मिलेगा।

प्राचीन काल में इस तथ्य को भली-भाँति ध्यान में रखा जाता था कि प्रकृति से समस्त जीवन समुदाय को अगणित अनुदान मिलते हैं। उसे स्वस्थ एवं सन्तुलित न रखा गया तो भारी संकटों का सामना करा पड़ सकता है। इसी कारण प्रकृतिगत संतुलन व परिशोधन हेतु घर-घर यज्ञ किये जाते थे। वातावरण में दैनन्दिन जीवन के कृत्यों से जो गन्दगी घुलती रहती थी उसकी सफाई हो जाया करती थी। त्यौहारों, पर्वों तथा अन्य अवसरों पर सामूहिक विशाल यज्ञ भी किया जाते थे। ताकि वातावरण की विषाक्तता धुलती चले साथ ही प्रकृति चक्र सुदृढ़ बना रहे। फलतः प्रतिक्रिया स्वरूप प्रकृति से जो कुछ भी मिलता था, मनुष्य जाति के लिए लाभप्रद रहता था। तब सूक्ष्म अन्तरिक्ष से प्राणवान पर्जन्य की वर्षा होती थी। जिसमें प्रचुर परिमाण में जीवनदायी प्राण तत्व होते थे। वृक्ष वनस्पतियाँ, जीव जन्तु सभी उसका पान करके स्वस्थ एवं नीरोग बने रहते थे।

यज्ञों की वह परम्परा तो लुप्त हो गयी जो प्रकृति का शोधन करती एवं पोषण देती थी। अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण की अदूरदर्शिता से वातावरण में विषाक्तता असीम परिमाण में भरती चली गयी। प्रकृति चक्र चरमरा उठा। अब वह स्थिति अत्यन्त भयावह हो चली है। प्रकृति उस गरल को अब वर्षा के विषाक्त जल के रूप में उगल रही है। प्रकोपों की शृंखला में एक सर्वाधिक गम्भीर कड़ी जुड़ी है- अम्ल वर्षा की। अगणित शोध निष्कर्षों का मत है कि वर्षा जल में तेजाब की मात्रा तेजी से बढ़ती जा रही है। पर्जन्य बरसाने वाली प्रकृति जब तेजाब की वर्षा करेगी तो उपस्थित होने वाले संकटों की सहज ही कल्पना की जा सकती है।

शुद्ध जल का पी.एच. दर (हाइड्रोजन आयनों का जमाव) 7 होता है। इससे कम होने पर पानी में अम्लीयता बढ़ती है। दर अधिक होना पानी में क्षारीय तत्वों के बढ़ने की परिचायक होती है। वर्षा के सामान्य जल का पी. एच. दर प्रायः 507 होता है। ऐसी वर्षा फसलों एवं जीवधारियों के लिए उपयोगी, पोषक मानी जाती है। जीवनदायी सूक्ष्म तत्वों का उसमें बाहुल्य होता है। वर्षा जल में पी.एच. का मान कम होना यह दर्शाता है कि उसमें प्रदूषित तत्व न्यूनाधिक मात्रा में मौजूद हैं। ऐसे निष्कर्ष अनेकों खोजों से प्रकाश में आये हैं कि पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों में अब अम्लीय वर्षा होने लगी है जो मानव द्वारा वायुमण्डल में छोड़े गये प्रदूषण का ही परिणाम है।

अम्ल वर्षा में सल्फ्यूरिक एसिड तथा नाइट्रिक एसिड का प्रमुख योगदान होता है। ये दानों ही अम्ल औद्योगिक उत्पादनों में छोड़े गये सल्फर डाइआक्साइड तथा नाइट्रोजन की वाष्प कणों से हुयी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप बनते हैं। वे ही जल में घुलकर बरसते हैं। ‘साइन्स टूडे’ मासिक पत्रिका में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार सन् 1866 में टोरन्टो विश्व विद्यालय—कनाडा के जीव विज्ञानियों ने लक्सडन सरोवर में 4 हजार से भी ऊपर की संख्या में युवा सॉलयन मछलियों की गणना की थी किन्तु एक वर्ष बाद ही उनमें से एक भी जीवित नहीं बची जबकि उनकी देख-रेख, सुरक्षा में किसी प्रकार की कमी न रखी गयी। सन्देह होने पर सरोवर के जल का परीक्षण करने पर उसकी अम्लीयता अत्यधिक पायी गयी। 1961 से 1671 के एक दशक के अन्तर में अम्लीयता में 150 गुनी वृद्धि पायी गयी। उस आधार पर होने वाली वर्षा जल का परीक्षण किया गया। वैज्ञानिकों को यह देखकर आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि उस जल में भी पी.एच. की दर सरोवर जितना ही था। उस सरोवर को विषाक्त घोषित कर दिया गया।

कनाडा में किये गये एक अध्ययन के अनुसार ओन्टेरियो क्षेत्र के ढाई लाख सरोवरों में से लगभग पचास हजार अम्ल वर्षा के कारण बुरी तरह से दूषित हो चुके है। उनमें से अधिकाँश मृतप्राय हैं। पूर्वी उत्तरी अमरीका में किये गये परीक्षणों में भी अम्ल वर्षा के प्रमाण मिले हैं। अनुमान है कि वहाँ नाइट्रोजन आक्साइड की 60 प्रतिशत मात्रा आटोमोबाइल्स से, 10 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन ऊर्जा प्लान्ट से तथा 30 प्रतिशत अन्य उद्योग से उत्पन्न होता है। कल 30 प्रतिशत अम्ल वर्षा का कारण यह उत्पादन पूर्वी उत्तरी अमरीका में होता है। शेष 70 प्रतिशत सल्फ्यूरिक एसिड के कारण अभिप्रेरित है, जो सल्फाइड जैसी कच्ची धातु के गलने से अन्य धातुओं के परिशोधन प्रक्रिया से तथा जीवावशेष ईंधन को उपयोग में ला रहे थर्मल पावर प्लान्ट से उत्पन्न होती है। यूनाइटेड स्टेट्स में प्रति वर्ष 2 करोड़ 80 लाख टन सल्फर डाइ आक्साइड तथा 2 करोड़ 40 लाख टन नाइट्स ऑक्साइड वायु मण्डल में फेंका जाता है जो जलवाष्प से सौर किरणों के उत्प्रेरण में क्रिया करके सल्फ्यूरिक एवं नाइट्रिक एसिड में बदल जाते हैं और अम्ल वर्षा का कारण बनते हैं। उत्तरी अमरीका के कितने ही क्षेत्रों में अम्ल वर्षा होने से कितनी ही नदियाँ तथा सरोवर विषाक्त हो चुके हैं तालाबों, सरोवरों से जलचर जीव बड़ी तेजी से नष्ट होते जा रहे है।

टोरोंटो- कनाडा से 400 किलोमीटर दूरी पर स्थित एक सदव्युटी क्षेत्र है। यह क्षेत्र विश्व का प्रमुख निकल उत्पादक है। यहाँ कच्चे पदार्थों के रूप में लोहा, कॉपर और निकेल सल्फाइड उपलब्ध है जिनके दहन क्रिया के फलस्वरूप सल्फरडाइ-ऑक्साइड का बादल उस क्षेत्र में सदा छाया रहता है। फलतः होने वाली वर्षा में अम्लीयता अत्यधिक रहती है। उस क्षेत्र की उर्वरा भूमि इस कारण तेजी से अपनी उर्वरता गँवाती जा रही है। एसिड एवं ठोस धातुओं के कारण मिट्टी विषैली हो चुकी है। यहाँ प्रतिदिन 2500 टन सल्फर डाइ आक्साइड वायुमण्डल में फेंकी जाती है। परीक्षण करने वाली वर्षा में अम्ल की मात्रा इतनी बढ़ जायेगी कि वृक्ष वनस्पतियों तथा जीवधारियों का जीवन दूभर हो जायेगा।

उत्तरी बरमाउन्ट के पहाड़ पर कैमेल हम्ल नामक एक सदाबहार जंगल है। बीस वर्षों पूर्व लाल रंग के स्प्रूस वृक्ष तथा सौ फीट से भी ऊँचे देवदारु के सुन्दर वृक्ष पाये जाते थे। इनमें कुछ की आयु तो सैकड़ों वर्ष से भी ऊपर की थी। पर उनमें से अधिकाँश अब मर चुके हैं तथा जो बचे हैं वे भी नष्ट होने वाले है। अब यह क्षेत्र सुनसान-सा दीखता है। पश्चिम जर्मनी, यू. एस. ए. के कितने ही क्षेत्रों की स्थिति भी यही है। केन्द्रीय यूरोप में लगभग 21 लाख से लेकर 50 लाख एकड़ तक वन क्षेत्र नष्ट हो चुके हैं। उल्लेखनीय यह है कि इनका विनाश कटाई से नहीं अम्ल मिश्रित वर्षा जल के कारण हुआ है जो अब अनेकानेक सम्भावित खतरे की ओर ध्यान आकृष्ट कर रहा है। उपरोक्त तथ्यों का रहस्योद्घाटन हबर्ट डब्ल्यू बोगेलमन नामक वनस्पति शास्त्री ने किया, जो यूनिवर्सिटी ऑफ वरमाउण्ड - कनाडा में प्रोफेसर हैं।

एक पर्यवेक्षण रिपोर्टानुसार मथुरा में नव स्थापित तेल शोधक कारखाने से उत्पन्न धुँए के करण आगरा हो गया है। उस क्षेत्र का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि शोधक कारखाने से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण से अगले दिनों आस-पास के सारे क्षेत्र में अम्ल वर्षा की सम्भावना बढ़ गयी है।

अम्ल वर्षा से अनेकानेक खतरनाक सम्भावनाएँ जुड़ी हुयी हैं। अम्ल वर्षा में सनाहित नाइट्रोजन आक्साइड सल्फर डाइ आक्साइड व सल्फेट ऑयन के लम्बी अवधि तक अन्तःश्वसन से एम्फीसेमा तथा इसके समरूप अन्य दमे समकक्ष श्वसन रोग उत्पन्न होते हैं। 1651 में लन्दन में छायी धुन्ध में इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखा गया। उसके दुष्प्रभाव से मात्र दो दिन में पाँच हजार व्यक्ति काल कलवित हो गये। अम्ल वर्षा का जल पीने से अनेकों प्रकार के पाचन सम्बन्धी तथा रक्त सम्बन्धी विकार पैदा होते हैं।

वह वर्षा भूमि की उर्वरता को नष्ट कर देती ऊसर बना देती है। मिट्टी के आवश्यक पोषक तत्व कैल्शियम, मैग्नेशियम, फास्फोरस आदि नष्ट हो जाते हैं। यदि पी.एच. दर अत्यन्त न्यून हो जाय तो नाइट्रोजन, पोटैशियम सल्फर जैसे तत्व भी मिट्टी से समाप्त हो जाते हैं। ऐसी भूमि में पैदावार की जाय तो भी इसमें विषाक्तता आ जायेगी जो अगणित रोगों को जन्म देगी। जर्मनी में हुए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि अम्ल वर्षा से उत्पन्न अल्यूमिनियम की विषाक्तता पौधे के विकास में अत्यंत हानिकार है।

अम्ल वर्षा से प्रभावित क्षेत्रों में अमरीका तथा कनाडा सबसे आगे है। दोनों ने एक दूसरे के ऊपर यह आरोप लगाया है। कि अम्लीय वर्षा के कारक प्रदूषक तत्वों को वायुमण्डल के माध्यम से वे एक दूसरे के देश में फैला हैं। वास्तविकता की जाँच पड़ताल के लिए दोनों ही देशों ने एक संयुक्त कमेटी विशेषज्ञों की बनायी है। वैज्ञानिकों का वह ग्रुप वायु से नमूना एकत्रित करेगा तथा दूसरे देश में होने वाली अम्ल वर्षा में उसकी भूमिका मालूम करेगा। विषाक्त वर्षा से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र वरमोन्ट, न्यू हैम्पशायर, एडीरोन्डैक पर्वत न्यूयार्क तथा कनाडा के उत्तरी क्षेत्र - प्रीकैम्ब्रियन शील्ड भाग के सबसे बड़े झील में प्राकृतिक पोषक तत्व समाप्त हो चुके हैं। जिसमें फसलें जंगल तथा उनमें रहने वाले जलचर, थलचर जीव तेजी से मर रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार का इन क्षेत्रों में अम्ल वर्षा से उपरोक्त हानियों के लिए जिम्मेदार है। जबकि अमरीका की तुलना में पाँच गुना कम अम्ल वर्षा के लिए कारक प्रदूषक तत्व कनाडा द्वारा अमरीकी क्षेत्र में फैलाये जाते हैं।

कुछ दिनों पूर्व दिल्ली क्षेत्र में हुयी वर्षा में भी अम्ल की मात्रा पायी गयी। कानपुर के निकट गंगाजल में अम्ल की मात्रा का पाया जाना इस बात का प्रमाण है कि अब अपने देश के वायुमण्डल की स्थिति दूसरे यूरोपीय देशों जैसी ही विषाक्त बनती जा रही है। आसन्न यह संकट अगले दिनों और भी अधिक गम्भीर होने की सम्भावना कितने ही मौसम विज्ञानियों ने व्यक्त की है।

अम्ल वर्षा के रूप में दिखायी पड़ने वाली विभीषिका मानवी अदूरदर्शी क्रिया की ही प्रतिक्रिया है। प्रकृति के गर्भ में बीजारोपण विष बीजों का किया जा रहा है, प्रतिफल भी उसी के अनुरूप दृष्टिगोचर हो रहा है। जो क्रम चल रहा है, यथावत् चलता रहा तो वे प्रकोप और भी तीव्र होंगे। यह सोचना अविवेकपूर्ण है कि उससे सीमित क्षेत्र अथवा देश विशेष प्रभावित होंगे। कारण कि वायुमण्डल को देश की भौगोलिक सीमा में बाँध सकना तथा उसके भले बुरे प्रभावों से अछूता रखना सर्वथा असम्भव है। समस्त संसार एक प्रकृति चक्र से बँधे होने के कारण देर-सबेर में प्रभावित होगा। गड़बड़ाये सन्तुलन को सुधारने, वातावरण में भरे विष का परिशोधन करने तथा आगे के लिए रोकथाम की अविलम्ब व्यवस्था न बनायी गयी तो वरदायी प्रकृति का दूसरा कुद्ध रूप महाकाल के रूप में प्रकट होकर समस्त मानव जाति को घुट-घुटकर मरने को विवश करेगा।


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