आग के बिना न भोजन पकता है, न सर्दी दूर होती है और न ही धातुओं को गलाना ढालना सम्भव हो पाता है। आदर्शों की परिपक्वता के लिए यह आवश्यक है कि उनके प्रति निष्ठा की गहराई कठिनाइयों की कसौटी पर कसी और खरे-खोटे होने की यथार्थता समझी जा सके। बिना तपे सोने को प्रमाणिक कहाँ मना जाता है ? उसका उपयुक्त मूल्य कहाँ मिलता है ? यह तो प्रारम्भिक कसौटी है।
कठिनाइयों के कारण उत्पन्न हुई असुविधाओं को सभी जानते हैं, इसलिये उनसे बचने का प्रयत्न भी करते हैं। इसी प्रयत्न के लिये मनुष्य को दूरदर्शिता अपनानी होती हे, हिम्मत का सहारा लेना पड़ता है और उन उपायों को ढूँढ़ना पड़ता है जिनके सहारे विपत्ति से बचना संभव हो सके। यही है वह बुद्धिमानी जो मनुष्य को यथार्थवादी और साहसी बनाती है। जो कठिनाइयों में प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदलने के लिये पराक्रम नहीं किया, समझना चाहिए कि उन्हें सुदृढ़ व्यक्तित्व के निर्माण का अवसर नहीं मिला। कच्ची मिट्टी के बने बर्तन पानी की बूँद पड़ते ही गल जाते हैं। किन्तु जो देर तक अवे की आग सहते रहे हैं, उनकी स्थिरता, शोभा और उपयोगिता कहीं अधिक बढ़ जाती है।
तलवार पर धार रखने के लिए उसे घिसा जाता है। जमीन से सभी धातुएँ कच्ची निकलती हैं। उनका परिशोधन भट्टी के अतिरिक्त और किसी उपाय से सम्भव नहीं। मनुष्य कितना विवेकवान, सिद्धान्तवादी और चरित्रनिष्ठ है, इसकी परीक्षा विपत्तियों में से गुजर कर इस तप-तितीक्षा में पककर ही हो पाती है।