महाकाल का युगान्तरीय चेतन प्रवाह

September 1983

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परिवर्तन की बेला में दोनों ही शक्तियाँ सक्रिय होती हैं। एक चाहती है - महाविनाश, तो दूसरी का लक्ष्य है- नवसृजन। वस्तुतः यह एक सिक्के के दो पहलू हैं। नव निर्माण तभी सम्भव होता है जब अनुपयुक्त-अवाँछनीय को समूल नष्ट कर दया गया हो, सृष्टा की सदा से ही यह कार्य पद्धति रही है। यह बात अलग है कि अपनी-अपनी दृष्टि से किसी ने उसके क्रिया-कलापों को एकाँगी ध्वंस प्रधान ही माना हो।

जहाँ बीसवीं सदी के अब तक के अस्सी वर्षों में महाविनाश की भूमिका प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों ही रूपों में फलीभूत होती दिखाई पड़ रही हैं, वहाँ चिन्तन एवं व्यवहार की दृष्टि से, सीमित किन्तु प्रचण्ड शक्ति सामर्थ्य से भरे पूरे समुदाय ने जन-मानस को यह आश्वासन भी दिया है कि यह जीर्ण-क्षीण होती जा रही सृष्टि का नूतन कायाकल्प भर है इस चिन्तन से मनीषी समुदाय को अपनी भूमिका प्रखर बनाने एवं महाकाल की योजना में सहभागी बनने की प्रेरणा मिली है, समय समय पर उन्होंने इसे व्यक्त भी किया है ताकि सृजन समर्थक शक्तियाँ एकजुट हो सकें।

नृतत्व विज्ञानियों का ध्यान अब इस ओर गया है कि विश्व की सबसे प्रचण्ड “मन शक्ति का उपभोग अभीष्ट प्रयोजनों के लिये किया जाय। अब तक प्रतिपक्षी को परास्त करके स्वयं लाभान्वित होने की परम्परा ही मान्यता प्राप्त करती रही है। नये स्तर से सोचने पर यह रहस्य भी उजागर हुआ है कि शस्त्र बल, शासन शक्ति से बढ़कर भी मनोबल है जिसने इस अनगढ़ दुनिया और नर वानर मनुष्य को इस स्तर पर पहुँचाया। इन दिनों यह शक्ति प्रायः व्यक्तिगत प्रयोजनों के लिये ही खर्च होती रही है। शरीर-बल, साधन-बल की तरह ही न केवल साधारण लोग, मनीषी समुदाय भी मनोबल को निर्वाह प्रयोजनों में ही लगाते हैं। इस शक्ति का सामूहिक रूप से व्यापक परिवर्तन एवं नव सृजन के लिए जब भी प्रयोग हुआ है, तब वह निरर्थक नहीं गया। बौद्धिक क्रान्तियों का इतिहास भी ऐसा है, जिसने व्यापक स्तर पर परिस्थितियों को उलट देने में आश्चर्यजनक सफलता प्रस्तुत करके रख दी है।

इस संदर्भ में हर्बर्ट आर्मस्ट्रांग, मार्गरेटमीड, जेम्स ओनील, स्वहरमन काहन जैसे मनीषी गण रूसो, कार्लमार्क्स, बुद्ध, गाँधी आदि के समय की बौद्धिक क्रान्तियों की चर्चा उत्साहपूर्वक करते हैं। विश्व की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक क्षेत्र की महाक्रान्तियों की पृष्ठभूमि विचारकों द्वारा ही बनाई गयी थी। बाद में जनता ने बागडोर स्वयं हाथ में लेकर उन्हें सफल बनाया। मार्टिन लूथर, अब्राहम लिंकन, लूथर किंग जैसे महा-मनीषियों के प्रयत्नों ने ऐसा वातावरण बनाया जिसके कारण जन संगठन एवं संघर्ष खड़े हुए और अभीष्ट प्रयोजन पूरा करके रहे। यह मनःशक्ति ही है जो प्रगति, समृद्धि, संस्कृति, कला रहे। यह मनः शक्ति ही है जो प्रगति, समृद्धि, संस्कृति, कला एवं व्यवस्था के अनेकानेक सृजन प्रयोजन खड़े करती और मनुष्य को क्रमशः अधिकाधिक सुखी समुन्नत बनाती रही है।

इतिहास में मनुष्य की मनःस्थिति एवं परिस्थिति में क्रमिक परिवर्तन होते रहने के प्रमाणों की भरमार है कभी का वनचर नर-वानर आज की सभ्य और सम्पन्न स्थिति में यकायक उछलकर नहीं आ गया है। परिस्थितियों और आवश्यकताओं के दबाव से नये प्रकार से सोचने और नये उपाय खोजने से बाधित होकर मनुष्य ने अपने स्वभाव को बदला है। नये ढाँचे में ढलना और नये साधनों का उपयोग सीखा है। इस सदी के आविष्कार इसके प्रमाण हैं। किन्तु यह परिवर्तन क्रम रहा धीमा है। उसकी गति मन्द रही है। पीढ़ियों के उपरान्त इतनी भिन्नता आती रही है जिसे पुरातन की तुलना में कुछ बदला हुआ बताया जा सके।

नृतत्व विज्ञानियों-अन्य मनीषीगणों का ऐसा मत है कि अब वह परिवर्तन चक्र कहीं अधिक द्रुतगामी हो गया है। कुछ समय पूर्व वाहनों की चाल सीमित थी, पर अब ऐसे यान बन गये हैं जो धरती पर—पानी में तथा अन्तरिक्ष में वेगवत दौड़ लगाते तथा पवन पुत्रों की पंक्ति में खड़े होने का दावा करते हैं। अन्तरिक्ष की यह उछलकूद पृथ्वी के आस-पास तक ही नहीं सीमित रही, अन्य ग्रहों तक भी जा पहुँची।

याँत्रिक प्रगति की तरह ही चिंतन, चरित्र, व्यवहार में भी परिवर्तन आ रहे हैं। आदतों और अभ्यासों में जो हरे-फेर हो रहा है, उसमें भी इतनी तेजी आई है कि सहस्रों वर्षों में हो सकने वाले कार्य को कुछ ही महीनों में होते देखा जा सकता है। रीति-रिवाजों प्रथा परम्पराओं में आश्चर्यजनक क्रान्तिकारी परिवर्तन देखा जा सकता है।

इन समग्र परिवर्तनों पर एक विहंगम दृष्टि डालते हुए विद्वान मार्गरेट भीड़ ने अपनी पुस्तक “न्यू लाइब्ज फॉर ओल्ड” में एक हवाला दिया है। “न्यूगीनि के निकट मैनुस द्वीपवासियों के पाषाण युग में रहने वाले कबीले अब एक ही पीढ़ी में पूरी तरह बीसवीं सदी के बन गये हैं। एक शताब्दी से भी कम समय में ऐसी कायाकल्प जैसी स्थिति का बन जाना ऐसा है जिसे जादुई अचम्भों में से एक कहा जा सकता है। “लगभग ऐसी ही चर्चा” “ताओ ऑफ फिजिक्स” से ख्याति प्राप्त नोबेल पुरस्कार विजेता फिजिसिस्ट फ्रिट जॉफ काप्रा ने अपनी नयी पुस्तक “द टर्निंग पॉईन्ट” में की है आधुनिक सभ्यता के ये विधेयात्मक परिवर्तन न इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि मनीषी समुदाय सृजन पर उतर जाय तो असम्भव भी सम्भव कर दिखा सकता है।

वस्तुतः जनता की समूह शक्ति में प्रचण्ड सामर्थ्य है वह युगान्तरकारी परिवर्तन ला सकने में सक्षम है। अभी तक मनः शक्ति के शानदार इतिहास एवं वर्चस पर लोगों का ध्यान नहीं गया। बड़े प्रयोजनों के लिये उसका सुनियोजन भी नहीं सूझा। अब जबकि इस विश्व विभूति का नये सिरे से पर्यवेक्षण किया जा रहा है। तो मनीषियों का ध्यान भी इस ओर गया है कि लोकमानस को इस स्तर तक विकसित एवं प्रशिक्षित किया जाय जिसके सहारे वह प्रस्तुत विपन्नताओं से निपट सके और सुखद सम्भावनाएँ कल्पना चित्रों में रंग भर सके।

मनः शक्ति का उपेक्षित क्षेत्र अब धीरे-धीरे अधिक महत्वपूर्ण माना जाने लगा है और वह मार्ग ढूँढ़ा जाने लगा है जिस पर चलते हुए इस चेतना शक्ति के बिखराव को रोककर उसे ऐसे केन्द्र बिन्दु के साथ नियोजित किया जा सके जो विपत्तियों से निपटने और समृद्धियों को बढ़ाने में कारगर सिद्ध होता है। निश्चित ही ऐसी सूक्ष्म गतिविधियों के मूल में दैवी चेतन प्रवाह की प्रधान भूमिका है जो सृजनात्मक अभिरुचि व सामर्थ्य वाले मनः शक्ति सम्पन्नों के अन्तराल को झकझोरती, ऐसा चिन्तन करने व व्यवहार में उतारने हेतु प्रखरता का सम्बल भी देती है।

मूर्धन्य मनीषियों का मत है कि यदि मनः शक्ति को बुरी आदतों और दुर्व्यसनों से हटाकर सृजन कार्य में लगाया जा सके तो इतने भर से वर्तमान स्तर के स्वास्थ्य व साधनों से दस गुना उपयोगी उत्पादन बढ़ सकता है। यन्त्रों की सुविधा साधनों की शक्ति का अपना महत्व है। इतने पर भी मानवी उत्साह, श्रम और मनोयोग का परिपूर्ण एवं दिशाबद्ध उपयोग बन पड़ने पर जितनी समृद्धि बढ़ सकती है, उसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है।

वैज्ञानिक उपाय ऐसे खोजते हैं कि मानवी मस्तिष्क इलेक्ट्रोडों या रसायनों से पुर्जों की तरह ढलने लगें लेकिन मनीषी उनसे असहमत हैं। सृष्टि के नव सृजन हेतु विचार क्रान्ति का स्वरूप वे साहित्य, परामर्श प्रशिक्षण संगीत, अभिनय, कला आदि विचारोत्तेजक माध्यमों के सहारे बनाते हैं। वे चाहते हैं कि इनके माध्यम से ऐसा प्रवाह बहाया-वातावरण बनाया जाय, जिससे अनुप्रमाणित होकर व्यक्ति शालीनता-सुसंस्कारिता का अभ्यस्त बने और सामर्थ्यों को सृजनात्मक कृत्यों में नियोजित करते हुए सदा प्रमुदित उल्लसित बना रहे।

प्रस्तुत बेला उपयोगी परिवर्तन विचार क्राँति की है, महाविनाश की नहीं। समय आ रहा है जब विवेक जागेगा और अनुपयुक्त का उपयुक्त में बदलेगा। प्रज्ञा अभियान को उसी देवी चेतन प्रवाह का एक अविच्छिन्न अंग माना जा सकता है।


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