व्याहृतियों में विराट का दर्शन

September 1983

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भूर्भुवः स्वस्त्रयो लोका व्याप्तमोम्ब्रह्म तेषुहि स एव तथ्यतो ज्ञानी यस्तद्वेत्ति विचक्षणः॥ -गायत्री स्मृति

शास्त्रों का कथन है कि “भू, भुवः ओर स्वः ये तीन लोक हैं। इन तीनों लोकों में ॐ ब्रह्म व्याप्त है। जो बुद्धिमान उस व्यापकता को जानता है, वह ही वास्तव में ज्ञानी है।”

यह विश्व तीन भागों में विभक्त है। प्रत्येक को लोक की संज्ञा दी गयी है। भूः लोक, भुवः लोक, स्वः लोक ये तीनों प्रसिद्ध है। सामान्य भाषा में इन्हें पृथ्वी, पाताल एवं स्वर्ग कहा जाता है तो अध्यात्म की भाषा में इन्हें साँसारिक, शारीरिक और आत्मिक क्षेत्र मानते हैं। इन तीनों में ॐ नाम का परमात्मा समाया है। गायत्री मन्त्र के आरम्भ में प्रयुक्त प्रवण और व्याहृतियों में यही तत्वज्ञान छिपा पड़ा है।

परमात्मा का वैदिक नाम है। ब्रह्मा की स्फुरण सूक्ष्म प्रकृति पर निरन्तर आघात करती रहती है। सृष्टि में दृष्टिगोचर गतिशीलता इन्हीं आघातों एवं स्पन्दनों के कारण है। ब्रह्म प्रकृति के मिलन स्थल पर सतत् ॐ की झंकार होती रहती है। इसलिये इसे ही परमात्मा का स्वघोषित नाम कहा गया है।

यह ॐ ही तीनों लोकों में व्याप्त है। भूः शरीर भुवः संसार, स्वः आत्मा ये तीनों ही परमात्मा के कार्य क्षेत्र क्रीड़ा स्थल हैं। गायत्री मन्त्र यही प्रारम्भिक शिक्षण देता है कि इन सभी स्थलों को, निखिल ब्रह्माण्ड को भगवान का विराट् रूप समझ कर अभ्यास की उच्चतम भूमिका प्राप्त करने का प्रयास किया जाना चाहिए। ॐ भूर्भुवः स्वः का तत्वज्ञान समझ लेने वाला साधक एक प्रकार से जीवनमुक्त हो जाता है। परमात्मा को सर्वज्ञ, सर्वव्यापक देखने वाला मानव माया, मोह, ममता, संकीर्णता, अनुदारता, कुकर्म दुष्चिन्तन की अग्नि में झुलसने से बच जाता है एवं प्रतिपल परमात्मा का दर्शन कर परमानन्द का रसपान करता रहता है। गीत में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को यही विराट स्वरूप दिखाकर माया से मुक्ति दिलाई थी। इसी विशालता की सृष्टि में व्याप्त अपने स्वरूप की झाँकी भगवान राम ने अपने जन्मकाल में कौशल्या को कराई थी। परमात्मा की इसी भूमिका को प्रत्येक द्विज के, मानवता का उत्तरदायित्व समझने वाले व्यक्ति के अन्तःकरण में स्थापित कर देना गायत्री मन्त्र का प्रथम उद्देश्य है।

भगवान के इस स्वरूप को देख सकना हर किसी के लिये सम्भव है। समस्त विश्व ब्रह्माण्ड को परमात्मा की विशालकाय प्रतिभा मानकर उसके अंग प्रत्यंगों के रूप में समस्त पदार्थों को देखने की भावना ही विराट रूप का दर्शन है। स्थूल आँखों से यह दर्शन नहीं किया जा सकता है। इसलिये भगवान के दिव्य ददामि ते चक्षु सम्बोधित कर अर्जुन के लिये इस रूप का दर्शन सम्भव किया था ये दिव्य चक्षु शोर कुछ नहीं पवित्र, निष्पाप अन्तःकरण ही है। मलिनता रहित, कषाय-कल्मषों के आवरण से रहित, रससिक्त अन्तःस्थली में ही प्रभु की प्रतिच्छाया बनती है। विराट् की यह लघु झाँकी हर व्यक्ति के अन्दर विराजमान है। गायत्री का तत्वज्ञान सार्थक को इसका दर्शन कर सकने का पथ दिखाता है, उसे इसका पात्र बनाता है।

भारतीय संस्कृति का मूल है -ईश्वर विश्वास। दर्शन का आरम्भ ही आस्तिकवाद से होता है। भारतीय जीवन के रग-रग में ईश्वर की सत्त धुली हुई है। समस्त विचारधाराओं और परमेश्वर की सत्ता में अटूट विश्वास रहा है। संस्कृति की अक्षुण्णता, परम्पराओं की विविधता हेतु हुए भी परस्पर एकता तथा अनेकानेक मत पथ होते हुए भी समभाव इसी एक सिद्धान्त के आधार पर बने रह सके हैं। जब-जब इसमें कुछ विकृतियाँ, विसंगतियाँ आयीं- तब तब पतन का पथ प्रशस्त होता चला गया ईश्वरीय तथ्य को विचारधारा से पृथक कर दिया जाय तो फिर इस सृष्टि की सारी महत्ता ही समाप्त हो जाती है। संसार को जड़ ईश्वर रहित मानने से उसे भोग्य समझने की स्वयं के लाभ के लिए मनमाना उपयोग करने की इच्छा प्रधान होने लगती है। उपभोग का भौतिक दृष्टिकोण अत्याचार एवं शोषण को जन्म देता है। वस्तुओं को जोड़-जोड़कर उनका संचय एवं सम्पत्तिवान बनने का लोभ असंख्यों अभावग्रस्तों को दुःखी रहने को विवश कर देता है। अनीश्वरवादी भौतिक दृष्टिकोण पदार्थों का मनमाना उपभोग कर स्वसन्तुष्टि की इच्छा पैदा करता है। जबकि इसके विपरीत प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थों में, परमाणु में, तीनों लोकों में भूर्भुवः स्व में, सर्वत्र ॐ को परमात्मा को व्याप्त देखने से दूसरे ही दृष्टिकोण की उत्पत्ति होती है।

विचार पद्धति के संशोधन में ही वर्तमान समस्याओं का हल अंतर्निहित है। प्रत्येक वस्तु में सच्चिदानंद शक्ति का दर्शन, सब प्राणियों में परमात्मा की झाँकी एक ऐसी आत्मिक विचार प्रणाली है जिससे विश्व सेवा, लोक सुरक्षा समस्त सृष्टि की सुव्यवस्था की भावना पैदा होती है। प्रभु की चलती-फिरती प्रतिमाओं को स्वस्थ, सुन्दर और सुखी बनाये रखना ही मनुष्य का प्रयत्न हो ऐसी भावना उठने लगती है। संसार के सभी पदार्थों, प्रकृति वैभव में ईश्वर का निवास है, अतः इसे दैव अमानत मानकर स्वयं के लिये न्यूनतम रखकर शेष को सबके लिये छोड़ देना ही उचित है, यह संकल्प मन में दृढ़ होने लगता है। इस प्रकार विश्व में भूर्भुवः स्वः में परमात्मा की झाँकी करने से संसार के प्रति सृष्टा के प्रति एक श्रद्धामय भावना उत्पन्न होती है जो भोगवादी मान्यता को हटाकर उत्सर्ग की भावना को मुखरित करती है।

मनुष्य की पशुता, पाशविक मनोवृत्तियों पर अंकुश लगाना और उसके स्थान पर सद्प्रवृत्तियों की स्थापना ही अध्यात्मवाद का मुख्य लक्ष्य है। युगों-युगों से इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु नियामक सत्ता के विराट् स्वरूप का ध्यान करने एवं तद्नुसार अपने चिन्तन को परिष्कृत करने का सन्देश गायत्री मन्त्र देता आया है। इसके व्याहृति भाग की यह प्रेरणा है कि प्रभु की सुरम्य वाटिका के किसी भी कण का दुरुपयोग हम अपनी पाशविक वृत्तियों लिप्साओं को सन्तुष्ट करने में न करें।

कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने ग्रन्थ “मानवसत्य” में लिखा है “मैंने गायत्री मन्त्र को मौखिक भाव में नहीं अन्तः करण से बार-बार दुहराया है। हर बार इसका चिंतन करते हुए मुझे यही लगता कि विश्व के और मेरे अस्तित्व में आत्मीयता है- एकरसता है। भूर्भुवः स्वः- इस भूलोक के साथ अन्तरिक्ष के साथ मेरा अखण्ड योग है। इस विश्व ब्रह्माण्ड का आदि अन्त जो ईश्वर है, उसने ही हमारे मन में चेतना को जागृत किया है। गायत्री मन्त्र के ध्यान द्वारा हम जिसे उपलब्ध करने का प्रयास करते हैं वह विश्वास से हम हमारी आत्मा से चैतन्य के सम्बन्ध में अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।”

भूः संसार को, भुवः शरीर को, स्वः अन्तरात्मा को कहते हैं। गायत्री साधक इन तीनों को परम प्रभु की सत्त व प्रकाश से ओत-प्रोत मानता है वह लोक सेवा के माध्यम से संसार की उपासना, शरीर व मन को स्वस्थ, संयत, ऊर्ध्वगामी, सद्गुण सम्पन्न बनाकर कायारूपी प्रभु की साधना तथा अन्तरात्मा को पवित्र, उदार बनाकर अन्तःकरण में विराजमान ईश्वर की प्रतिमूर्ति की पूजा करता है। सर्वत्र ईश्वर ही ईश्वर परिलक्षित होना ही परमानन्द की, ब्रह्मा निर्वाण की, सहज समाधि की स्थित प्रज्ञ की, परमहंस की स्थिति है। जितनी मात्रा में साधक इस तथ्य को हृदयंगम करता चला जाता है उसी अनुपात में वह माया मुक्त होता चला जाता है। इस जीवन में ही वह स्वर्ग का आनन्द उठा लेता है।

समस्त उपासना पद्धतियाँ इसीलिये हैं कि मनुष्य प्रभु की सत्ता को अपने समीप देखें एवं उसे मनोभूमि में प्राथमिकता दे। जो कार्य किसी भी उपासना से सम्पन्न होता है, वह प्रवण और व्याहृतियों में सन्निहित भावनाओं को अपनाने से हो सकता है। इन भावनाओं का मनन-चिन्तन एक आत्मानुशासन स्थापित करता है। व्याहृतियों का दर्शन वस्तुतः मनुष्य की अन्तःभूमि को सुसम्बद्ध रूप से विकसित करने की एक सुव्यवस्थित विद्या है।


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