काशी नरेश एक दिन वेष बदलकर प्रजा संपर्क के लिए निकले। साथ में पुरोहित भर थे। दोनों थक कर एक गाँव के निकट वृक्ष तले सुस्ता रहे थे। पुरोहित पास के सरोवर पर स्थान को गये। राजा को झपकी आ गई।
एक ग्रामवासी ने भूखा अतिथि पेड़ के नीचे सोया देखा सो वह घर जाकर उसके लिए एक थाली भोजन ले आया।
थाल राजा के सामने था। इतने में पुरोहित आ गये। राजा ने उसे पुरोहित के आगे खिसका दिया। पुरोहित इधर-उधर नजर दौड़ाने लगा। देखा तो एक साधु आ रहा था। पुरोहित ने भोजन उसे दे डाला। साधु ने भी उसे खाया नहीं, दरिद्र भिक्षुक आता देखा तो उसे सौंप दिया। किसान यह कौतुक देख रहा था। उसने पूछा-भोजन में कोई दोष था क्या, जिस कारण वह एक से दूसरे के हाथों खदेड़ा गया।
राजा ने उसका समाधान किया और कहा- ‘बन्धु ! मैं साधारण व्यक्ति हूँ। मुझसे पुरोहित की गरिमा अधिक है उनकी आवश्यकता पहले पूरी होनी चाहिए। पुरोहित ने कहा विद्वान से तपस्वी श्रेष्ठ है उसके द्वारा समाज हित अधिक है इसलिए उसका अधिकार पहला है। फिर साधु से भी वह बड़ा है, जिसका प्राण अन्न के बिना जा रहा है।