समग्र-सफलताओं का मूलभूत आधार

July 1980

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ईसा मसीह ने अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए कह है , जो द्वारा खटखटायेंगा उसके लिए दबाजा खोला जायेगा और जो माँगेगा वह दिया जायगा । “ इस उक्ति में आध्यात्मिक और भौतिक जीवन के , सम्पूर्ण क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने का अचूक रहस्य उद्घाटित किया गया है । सफलता का द्वारा खटखटाने का अर्थ है उसे प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प और माँगने पर मिलने का अर्थ पूरी शक्ति के साथ अपनी शक्तियों का उपयोग । स्मरणीय है सफलताएँ भोतिक हों अथव अआध्यात्मिक , उन्हें प्राप्त करने के लिए कोई बाहरी साधनों का आवश्यकता नहीं पड़ती , मूल आवश्यकता तो अपनी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत करने तथा उन्हें सक्रिय बनाने की होती है , बाहरी साधन और उपकरण भी आवश्यक होते है , पर वे एक सीमा तक ही उपयोगी सिद्ध होते हैं । यदि उनका ठीक प्रकारसे उपयोग करने की कला न आती हो , संकल्प , साहस और पुरुषार्थ न किया जाय तो वे साधन एक तरह निरर्थक और र्व्यथ ही सिद्ध होते हैं । मनुष्य जिस प्रकार की इच्छा करता है ,हृदय से पूरे प्राण से जो संकल्प करता है उसी के अनुरुप परिस्थितियाँ उसके निकट एकत्रित होने लगती हैं । इस इच्छा या संकल्प को एक प्रकार का चुम्बक कहा जा सकता है , जिसके आकर्षण से अनुकूल शक्तियाँ खिंची आती हैं। जहाँ गड्ढा होता हैं वहाँ चारों ओर से वर्षा का पानी बहता हुआ सिमट आता है और गड्ढा भर जाता है , लेकिन जहाँ ऊँचा टीला है वहाँ भरी वर्षा होने पर भी पानी नहीं ठहरता । इच्छा और संकल्प एक प्रकार का गड्ढा है जिसमें सब ओर से अनुकूल स्थितियाँ खिंच-खिंच कर चली आती है।

प्रश्न उठता है सफलता और सुख-शाँति की इच्छा तो सभी करते हैं , प्रत्येक व्यक्ति उन्नति करना और आगे बढ़ना चाहता है , फिर सभी की इच्छाएँ पूरी क्यों नहीं होती ? इस प्रश्न का समाधान खोजने के लिए एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा । पैर में काँटा चुभता है और पीड़ा होती है , तो मनुष्य सभी काम छोड़ कर अपना पूरा ध्यान उस काँटे को निकालने में लगा देता है । उसे तब तक चैन नहीं आता जब तक कि पैर से काँटा नहीं निकल जाय । इच्छा या आकाँक्षा का यही वास्तविक स्वरुप है । सुख-शाँति से सभी रहना चाहते हैं ,प्रगति और उन्नति करने की आकाँक्षा हर कोई करता है , पर कितने व्यक्ति हैं जो इन इच्छाओं को पूरा करने के लिए समग्र तत्परता से प्रयत्न करते हैं । स्पष्ट है कि जिन्हें इच्छा या आकाँक्षा कहा जाता है वे सतही स्तर की होती हैं । यदि पूरे मन और प्राण से इच्छा की जाती है , वर्तमान परिस्थितियाँ शूल की तरह चुभती हैं तो उन्हें दूर करने के लिए भी उसी स्तर की तत्परता होनी चाहिए ।

इस स्तर की इच्छा जहाँ भी रहेगी वहाँ अभिरुचि , मनोयोग और आवश्यक साधन जुटाने के लिए समस्त शक्तियाँ सक्रिय हो उठेंगी। इसके विपरीत सतही इच्छाएँ तथा अकाँक्षाओं की कमी रहने पर विभूतियाँ प्राप्त नहीं हो सकेंगी । स्मरण रखा जाना चाहिए कि मन में जो इच्छा प्रधान रुप से काम करती है, उसे पूरा करने के लिए शरीर की समस्त शक्तियाँ काम करने लगती है । निर्णय शक्ति , निरीीक्षण शक्ति , आकर्षक , अन्वेषण , चिन्तन और कल्पना आदि मस्तिष्क की सभी शक्तियाँ उसी दिशा में सक्रिय हो जाती हैं और तब एक जीवित चुम्बकत्व तैयार हो जाता है । जिस प्रकार चुम्बक को कूडे़ कचरे में भी फिराया जाय तो धातुओं के इधर-उधर बिखरे हुए टुकडे़ उससे चिपक जाते हैं उसी प्रकार विशिष्ट आकाँक्षाएँ मन में उत्पन्न होती हैं ता व्यक्ति की जागृत शक्तियाँ उस सभी तथ्यों को ढूँढ और प्राप्त कर लेती हैं जो सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है

ईसा मसीह के उक्त कथन का यही रहस्य है कि खटखटाने पर द्वारा खुलता है और माँगने पर मिलता है अर्थात् आकाँक्षा उत्कट और बलवती होनी चाहिए । उत्कट और बलवती आकाँक्षा मनुष्य में वह तत्परता उत्पन्न करती है जो प्रत्येक क्षेत्र में अवरोधों को चीरती , रुकावटों को हटाती और बाधाओं को मिटाती अभीष्ट दिशा में बढ़ती जाती है । तत्परता के बल पर ही किसी भी क्षेत्र में सफल हुआ जा सकता है, क्योंकि उसके द्वारा प्रेरित क्रियाशीलता अभीष्ट शक्ति सम्पादित कराती हैं और यह सुविदित है कि सक्रियता अथवा निरन्तर अभ्यास से पूरे शरीर को या उसके किसी भी अंगा को अथव व्यक्तित्व के किसी भी पक्ष को बलवान बनाया जा सकता है । लुहार का दाहिना हाथ अपेक्षकृत अधिक मजबूत होता है , क्योंकि अधिक काम में आने के कारण उसकी क्षमता बढ़ी हुई रहती है । पैदल चलने के अभ्यासी लोगों की रगें मजबूत पाई जाती हैं । नफीरी बजाने वालों के गलफडे़ फेंफडे़ दूसरे लोगों की तुलना में अधिक पुष्ट होते हैं। इसका एक मात्र कारण उन अंगो की क्रियाशीलता ही है।

उत्कट आकाँक्षा आध्र तज्जन्य तत्पर क्रियाशीलता के बल पर कितने ही लोगों ने विभिन्न क्षेत्रो में आर्श्चयजनक प्रगति की है। दुबले-पतले शरीर वाले कितने ही लोगों ने वलवान बनने की उत्कट आकाँक्षा से प्रेरित होकर व्यायाम, आहार , बिहार, संयम , नियम का पालन कर अपने को उच्च क्षेणी का बलवान तथा पहलवान बना लिया । विश्व विख्यात पहलवान सेंडो बचपन में बहुत दुबला-पतला और प्रायःबीमार रहा करता था । परन्तु जब उसमें बलवान बनने की भावना जागी और इसके लिए नियमित रुप से व्यायाम करने के साथ-साथ आहर-बिहार का संयम अपनाया तो उसने अपनी पहलवानी की धाक सारे संसार में जमा दी । भारत के माने हुए पहलवान मास्टर चन्दगीराम 21 वर्ष की आयु तक जुकाम , सर्दी , बुखार, आदि रोगों से इस बुरी तरह ग्रस्त रहते थे कि उनका शरीर सूख कर काँटा हो गया था । चलते-चलते उन्हें चक्कर आने लगते । किन्तु जब उन्होनें अपना ध्यान शारीरिक बल वृद्धि पर केन्द्रित किया और व्यायाम , कसरत करने लगे तो फिर शरीर का काया-कल्प ही हो गया । ऐस अगणित उदाहरण हैं जो मनुष्य की उत्कट आकाँक्षा, एकाग्रता , लग्न और तत्परता के सम्न्य द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में आर्श्चयजनक प्रगति के प्रमाण प्रस्तुत करते है।

मस्तिष्क की स्मरण शक्ति और बुद्धि की प्रखरता बढा़ने में इग्लैण्ड के डब्ल्यू॰जे॰एम॰ बाटन की कोई सानी नहीं रखता । इगलैण्ड के केंट कस्बे में जन्मा बाटन आरम्ी में इतना मन्दबुद्धि था कि उसे पढ़ी हुई कोई बात याद नहीं रहती । वह कमजोर भी काफी था और कमजोरी बीमारी के कारण उसे 11 वर्ष की आयु में ही स्कूल छोड़ देना पड़ा । अब मस्तिष्क या बुद्धि के विकास की क्या कल्पना या आशा की जा सकती थी । लेकिन इस स्थिति में भी बाटन ने अपने पिता की प्रेरणा से मनारंजन का एक शौक बढ़ाया। वह इधर-उधर की बाते याद कर लेता और उनका स्थान , समय, घटनाक्रम आदि का ठीक-ठीक विवरण बताकर लोगों पर अपनी स्मरण शक्ति का रोव जमाता ।

धीरे-धीरे उसने अपनी स्मरण शक्ति को इतना अधिक विकसित कर लिया वह चलता-फिरता विश्व कोश समझा जाने लगा । यह अभ्यास उसने इस लक्ष्य के प्रति गाँठ-बाँधकर किया कि उसो अपनी याददास्त को बढाना है । पूरी तत्परता के साथ इस दिशा में लगे रहने के बाद उसने अपनी याददास्त को इतना तेजकर लिया कि उसकी ख्याति चारों दिशाओं में फैलने लगी । एक बार उससे यूरोप के प्रमुख ज्योतिषियों , राजनीतिज्ञो और प्रतिष्ठित व्याक्तियों ने ऐसी घटनाओं के विवरण पूछे जो विस्मृति के गर्त में गुम गये ही प्रतीत होते थे , पर उसने पूछी गई सारी घटनाओं को सिलसिलेवार सन्, तारीख सहित इस प्रकार बताया कि पूछने वाले को आर्श्चयचकि रह जाना पड़ा । बाटन अपने समय में इतना प्रसिद्ध हो गया था कि उसकी मृत्यु के बाद अमेरिका के एक स्वास्थ्य संस्थान ने उसका सि 10 हजार डालर में खरीदा ताकि उसकी मस्तिष्कीय विलक्षणताओं का रहसय मालूम किया जा सके ।

इच्छा शक्ति का केन्द्रकरण तथा पूरी तत्परता के साथ प्रयात्नशील रहना ही वह आधार है जिसके बल पर इच्छित उपलब्धियाँ प्राप्त की जा सकती है । मनुष्य उन्हीं वस्तुओं अथवा उपलब्धियों को प्राप्त कर सकता हैं जिनके लिए वह आग्रहपूर्वक प्रयत्न करता है । अगर किसी लक्ष्य विशेष का निर्धारण न कर काम किया जाये तो उनका परिणाम भी शून्य या नगण्य ही रहेगा और कहना नहीं होगा कि लक्ष्य का निर्धारण तभी होता है जब मन में किसी विशिष्ट आकाँक्षा का निवास हो और उसे प्राप्त करने के लिए तत्परता के स्तर की व्यग्रता हो । अनेक जीव-जन्तु कीट पतंगे फूलों के आसपास घूमते रहते है , पर उनमें से केवल मधुमक्खी ही शहद निकालती है , क्योंकि उसे मधु प्राप्त करने की आकाँक्षा और व्यग्रता रहती है । इस सम्बन्ध में ब्रिटेन के प्रसिद्ध विचारक कार्लाईल का कथन है कि , ‘एक ही विषय पर अपनी शक्तियों को एकाग्र करने से कमजोर व्यक्ति भी बहुत कुछ कर सकता है, जबकि बलवान व्यक्ति भी यदि अपनी शक्तियों को कई दिशाओं में बिखेर देता है तो वह बलवान होते हुए भी कुछ नहीं कर सकता । एक-एक बूँद पानी अगर एक ही स्थान पर निरन्तर पड़ता रहे तो कडे़-से-कडे़ पत्थर में भी छेद हो जाता है लेकिन यदि पानी का बड़ा भारी बहाव भी शीध्रतापूर्वक उसके ऊपर से शीघ्रतापूर्वक निकल जाय तो उसका नाम-निशान भी उस पर नहीं दिखाई पड़ता । “

अँग्रेजी भाषा के प्रख्यात साहित्यकार बुल्वर लिटन शौकियातौर पर ही लिखा करते थे लेकिन उन्होनें जो कुछ भी लिखा वह इतना श्रेष्ठ था कि उसके कारण लिटन की गणना अँग्रेजी के अग्रणी लेखकों में की जाती हैं । एकबार किसी ने उनसे इसका रहस्य पूछा तो लिटन ने कहा कि , ‘मै कभी शीघ्रतापूर्वक बहुत अधिक काम कर डालने की कोशिश नहीं करता बल्कि उसे उत्तम रीति से करना ही ज्यादा पसन्द करता हूँ । अगर आज अपनी शक्ति से अधिक काम कर डाला जाय तो कल तक थकान आ जायेगी और फिर थोड़ा-सा काम भी ठी क ढंग से नहीं हो सकेगा । जब मैंने कालेज छोड़ा और साँसारिक कामों में पड़ा तो उसके पहले वास्तव में मैंने ऐस कामो का कोई अध्ययन नहीं किया था लेकिन इसके बाद मैं पढ़ने लगा और मेरा विश्वास हे कि मैनें सामान्य लोगों से कम नहीं पढ़ा । मैने बहु-सी दूर-दूर देशों की यात्राएँ की , राजनीति में भाग लिया और उद्योग धन्धों में भी समय विताया । फिर भी साठ से अधिक किताबें लिख डाली । आपका विश्वास नहीं हो कि मैंने इस पढ़ने-लिखने में कभी तीन घन्टे से अधिक समय खर्च नहीं किया । लेकिन इन तीन घन्टो में जो भी पढ़ता-लिखता था वह पूर एकाग्रता , तन्मयता और तत्परता के साथ । “

सफलता का मूलभूत आधार उत्कट इच्छा , तत्पर सक्रियता और क्रियाशीलता ही है । इसके बिना कोई भी व्यक्ति ऊँचा नहीं उठ सका है और कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं प्राप्ता कर पाया है । तत्परता , तन्मयता, सक्रियता और मनोयाग के मूल में भी उत्कट आकाँक्षा ही उत्प्रेरक का काम करती है । यद्यपि सुख-दुःख भली-बुरी परिस्थितियों और उत्थान पतन का मुख्य कारण मनुष्य का कर्म समझा जाता है लेकिन कर्म रुपी वृक्ष भी तो विचार और इच्छा रुपी बीज से ही उत्पन्न होता इच्छा से प्रेरणा की और प्रेरणा से कर्म की उत्पत्ति होती है ।

मनुष्य अपनी आकाँक्षा के अनुरुप सोचता है और जैसा वह सोचता है वैसे ही साधन उपलब्ध करता है । जैसे साधन उपलव्ध होते हैं वैसा ही कर्म वह करने लगता है । जैसे कर्म किये जाते हैं वैसी ही परिस्थितियाँ सामने आ खड़ी होती हैं और उसी तरह के परिणाम प्रस्तुत करती है । इसे भाग्य , कर्मा का फल, किस्मत , चाहे, जो नाम दे दिया जाय, पर सचाई यह है कि यह सब अपनीं ही इच्छाओं की परिणति और फलश्रुति है । जो चाहा जाता है वही प्राप्त होता । इसलिए कहा गया है कि प्रत्येक मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता और तकदीर का लेखक स्वयं है । संसार में जितने भी व्यक्तियों ने सफलताएँ प्राप्त की हैं उन्होंने अपने प्रात्व्य के लिए पूरे मन से अभिलाषा की है और वे इस बात के लिए तड़पते , बेचैन होते रहे हैं कि किस प्रकार अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त की जाय । इस आकाँक्षा और तड़प ने ही उन्हें क्रियाशील बनाया तथा समस्त बाधाओं से जूझते हुए , असफलताओं की घड़ी में भी आशन्वित रहते और पराजय के बाद भी नये प्रयत्न करते रहकर अन्त में अपने अभीष्ट को प्राप्त किया । अस्तु उत्कट आकाँक्षा ही एक शब्द में सफलता का मूलभूत आधार कही जा सकती है ।


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