आत्मिक प्रगति के तीन सुनिश्चित आधार अवलम्बन

July 1980

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विद्यार्थी को अच्छे नम्बर से उत्तीर्ण होने और उस सफलता के आधार पर उच्च पद पाने के लिए कई बातों पर आश्रित रहना पड़ता है। अपना निजी मनोयोग एवं परिश्रम तो सर्व प्रथम हे ही, उसके बिना तो गाड़ी एक कदम नहीं बढ़ती , पर इसके अतिरिक्त भी अन्य दो साधन चाहिए । इनमें एक है-उपयुक्त शिक्षक एवं सुनिश्चित पाठ्य-क्रम । दूसरा हे-अभिभावकों का सहयोग,अनुदान । यह तीनों सुयोग जब बन पड़ते है तो सफलता सुनिश्चित हो जाती है। इनमें से एक आधार भी लड़खडाने लगे तो समझाना चाहिए कि प्रगतिक्रम रुका और सफलता संदिग्ध हो गई अपवाद रुप में तो कोई एकाकी मात्र अपने बलबूते भी बहुत कुछ कर सकता है, पर साधारण क्रम यही है। निजी पुरुषार्थ के अतिरिक्त साधन और सहयोग को भी हर प्रसंग में आवश्यकता पड़ती है। उनके न मिल सकने पर सुयोग्यों को असफलता का दुःख उठाना पड़ता है।

छात्र की सफलता का उदाहरण देकर यह बताया गया है कि भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए सर्वत्र उपरोक्त त्रिविधि साधनों की आवश्यकता पड़ती है । जिन्हे मिल जाते है वे सफलता का श्रेय लेते हैं, जिन्हें इनसे वंचित रहना पड़ता है वे अपने प्रयत्न पुरुषार्थ में कोई कमी न पाते हुए भी दुीर्भाग्यग्रसित रहते है। पुरुषार्थ में कोई कमी न पाते हुए भी दुर्भाग्यग्रसित रहते हैं। पुरुषार्थ का महत्व सर्वोपरि होते हुए भी वह एकाकी ऐसा नहीं है जो अभीष्ट प्रतिफल उपलब्ध कर सके । साधन और सहयोग के बिना प्रबल पुरुषार्थ भी असफल रहता पाया गया है। विद्यार्थी को उपयुक्त अध्यापन न मिले और अभिभावक उसके लिए भोजन,वस्त्र , पुस्तक, फीस आदि का प्रबन्ध न करे ,तो पुरुषार्धी और मेधावी होते हुए भी उसे अभीष्ट प्रतिफल से वंचित रहना पडे़गा ।

आत्मिक क्षेत्र की सफलता के सम्बन्ध में भी यही बात है । साधना पद्धति सही और सुनिश्चित होनी चाहिए । दुर्भाग्य से इन दिनों भारतीय आध्यात्मिकता के क्षेत्र में इन दिनों आराजकता का साम्राज्य है। अन्य धर्मा में सुनिश्चित साधन पद्धतियाँ अपना प्रगति क्रम जारी रखते है। मुसलमानों में मौलवी और ईसाइयों में पादरी अपना-अपना नया मजहव नहीं चलाते । अपनी-अपनी नई साधना पद्धतियाँ नहीं गढ़ते । अपनी मनमर्जी के नये-नये मन्त्र और विधान नहीं उगाते, पर इस सम्बन्ध में हिन्दू समाज को दुर्भाग्यग्रस्त ही कहना चाहिए कि हर धूर्त गुरुनामधारी ने अपनी डेढ़ ईट की अलग मसजिद खडी की और ढाई चावल की खिचडी पकाई है। आठ कनीजिया नौ चूल्हे की कहावत व्यावहारिकतः कितनी सच हे यह कहना कठिन है। पर उपासना के क्षेत्र में हर गुरु नामधारी ने अपना एक विशेष सम्प्रदाय शास्त्रों , आप्त वचनों एवं परम्पराओं की पूरी अवहेलना करते हुए गढ़ लिया है। पर्यवेक्षण में उसे हारना न पड़े इसलिए यसह तुर्रा लगा दिया है कि जो विधि बताई गई है उसे प्रकट न किया जाय जब कि समस्त संसार में विज्ञ-जन अपने प्रतिपादनों की प्रामाणिकता एवं विशिष्टता सिद्ध करने के लिए उन्हें साहसपूर्वक तर्क एवं प्रमाणें सहित प्रस्तुत करते हैं तब अपने यहाँ किसी को न कहने का प्रतिबन्ध लगाया जाता है। इसका और कोई कारण नहीं, उस मनगढंत जाल-जंजाल की पोल खुल जाने का भय ही गोपनीयता का प्रतिबन्ध लगाता है। साधना विधियों की बहुलता और गोपनीयता की इस अराजकता के दिनों किसी सहज जिज्ञासु के लिए यह निर्णय करना कठिन पड़ता है कि इन तथाकथित गुरुजनों द्वारा बताई जाने वाली अनेकानेक उपासना विधियों में से किसे अपनाये, किसे छोडे़ । भ्रान्तियों, शंकाओं, सन्देहों और अनिश्चित दिशा धारा की मनःस्थिति साधक की निष्ठा में सबसे बड़ी बाधा है। इसके रहते किसी का अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचना कठिन है।

इस कठिनाइ्र के निवारण का गायत्री अभियान के सूत्र संचालकों ने प्राण-पण से प्रयत्न किया है और शास्त्र तथा आप्त परम्पराओं का लम्बे समय तक पर्यवेक्षण करने के उपरानत वह राजमार्ग प्रस्तुत किया है, उसे चुनौती दे सकना किसी भी तर्क, तथ्य एवं प्रमाणों को मान्यता देने वाले के लिए शक्य नहीं हो सकता । अध्ययन अनवेषण ही नहीं , अनुभव भी इस राजमार्ग का उत्कृषृता के सम्बन्ध में प्रमाण स्वरुप प्रस्तुत किया गया है। ‘साधना में सिद्धि का उपलब्ध होना ही उसके सही होने की सबसे बड़ी साक्षी है। प्राचीन काल के उदाहरणो पर जिन्हें सन्देह हो वे गायत्री युग लाने वाले सूत्र संचालक की निजी साधना और सिद्धि का पर्यवेक्षण करते हुए भी प्रतिपादन की प्रामणिकता का पता लगा सकते हैं। सन्देह निवारण की दृष्टि से यह साक्षी काफी वजनदार है।

आत्मिक प्रगति के लिए सुनिश्चित साधना पद्धति में गायत्री के अवलम्बन से बढ़ कर दूसरा मार्ग हो नहीं सकता इसे, भारतीय धमनियायाी क्रमशः अधिक अच्छी तरह समझते और अनुभव करते जा रहे है। उसके लिए उपयुक्त विधान क्या होना चाहिए, उसकी समुन्द्र मंथन जैसी लम्बी अनुसन्धान प्रक्रिया का जो निर्ष्कष नवनीत निकला है वह सर्व साधारण के सामने प्रस्तुत है। गायत्री महाविज्ञान ये छोटी पुस्तिकाओं में उसे सरलतापूर्वक देखा,समझा जा सकता है । अब तो उनका प्रचलन भी इतना हो गया कि किसी नैष्ठिक साधक से पूछ कर निभ्रन्ति साधना पद्धति को जाना जा सकता हैं कोई सन्देह हो तो हरिद्वार मथुरा के केन्द्र उनका निराकरण समाधान करने के लिए विद्यमान हैं। ऐसी दशा में साधना से सिद्धि प्राप्त करने के मार्ग में जो प्रथम अवरोध ‘सही मार्ग-दर्शन ‘ न मिलने का-सही अध्यापक अध्यापन न मिलने का था , उसका समाधान मिल गया ही समझा जा सकता है।

मार्ग-दर्शन के अतिरिक्त प्रगति पथ पर अग्रसर होने का दूसरा अवलम्बन है पुरुषार्थ । पुरुषार्थ के दो पक्ष है एक श्रम, दूसरा मनोयोग। श्रम में स्फूर्ति और तत्परता होनी चाहिए । मनोयोग में तनमयता, निष्ठा का समावेश होना चाहिए । अन्यथा इन दिनों का स्तर नहीं बनता और चिन्ह पूजा होने जैसी स्थिति बनी रहती है। लकीर पिटते रहने को पुरुषार्थ नहीं बेगार भुगतना कहा जाता है। उसका प्रतिफल भी नगण्य ही मिलता है। साधना के क्षेत्र में भी उच्चस्तरीय पुरुषार्थ चाहिए साधक की उपासना में साधन श्रद्धा और जीवन प्रक्रिया में उत्कषृता का अधिकाधिक समनवय करना चाहिए । भजन-पूजन बेगार भुगतने की तरह क्रिया-कृत्य बन कर ही नहीं चलते रहना चाहिए वरन् उसमें सघन निष्ठा का समावेश होना चाहिए । इन दिनों युग पुरश्चरण का जो महान संकल्प चल चडा है उसमें संख्या और समय स्वल्प है, पर निष्ठा का स्तर बढ़ाने पर पूरा जोर दिया गया है। कहा गया है कि उसकी नियमितता और आवश्यकता भोजन, शयन से कम नहीं वरन् अधिक ही अनुभव की जानी और वत्र लिया जाना चाहिए कि भोजन या शयन से पूर्व निर्धारित साधना क्रम पूरा किया जाययेगा । किसी कारणवश बन नहीं पडा तो उसे छोड़ नहीं दिया जाना चाहिए, वरन् अगले दिनो साधन बढा कर उसे पूरा किया जाना चाहिए यह नैष्ठिक अनुशासन हैं । इसी को व्रत कहते है। व्रत के बिना साधना में शक्ति उत्पन्न ही नहीं होती । प्रत्यंचा खींचे बिना वाण की प्रखरता कहाँ दृष्टिगोचर होती है ?

साधनात्मक पुरुषार्थ में (1) उपासना का नियमित और निश्चित होना (2) व्यक्तित्व में पवित्रता एवं प्रखरता का समावेश बढ़ना । (3) तपश्चया्र की संयम एवं सेवा शर्तो की पूरा किया जाना-यह तीन चरण हैं। साधक इन्ही के सहारे इतना सशक्त बनता है कि अन्तराल से सिद्धियों का उभार-संगम से सम्मान, सहयोग और अदृश्य जगत की देवी अनुग्रह की विद्युत वर्षा होने लगे । इस वर्ष की नैष्ठिक उपासना में सप्ताह में एक दिन अस्वाद ब्रह्मचर्य एवं मौन की संयम साधना पर जोर दिया गया है। साथ ही नव सृजन के लिए अंशदान की उदारता बरतने में निष्ठावान रहना चाहिए इनहें तपश्चर्या की नीति अपनाने का अंगुलि निर्देश समझा जाना चाहिए इन्हें मात्र कृत्य की तरह पूरा भर नहीं कर लिया जाना चाहिए , वरन् उन्हें तपस्वी जीवन के आधार भूत सिद्धान्त समझा जाना चाहिए और निरन्तर यह प्रयत्न चलना चाहिए कि यह आदर्श व्यक्तित्व के अंग बनकर दबे देवत्व को उभारने का चमत्कार दिख सके ।

अध्यात्म क्षेत्र का आत्म-शोधन एवं आत्म-परिष्कार करना ही परम पुरुषार्थ है। इसी के लिए व्रत, संयम, तप के विभिन्न अनुशासन अपनाने पड़ते है। उपासना पद्धति में भी निष्ठा और नियमितता का अधिकाधिक समावेश करना पड़ता है। जो इस तथ्यों पर जितना अधिक ध्यान देता है वह उसी अनुपात से सच्चा साधक माना जाता है ओर उसी परिमाण से चमत्कारी सिद्धियाँ प्राप्त करता है। जो उस ओर ध्यान नहीं देते मात्र उपासना कृत्यों को ही सब कुछ मान बैठते हैं उनको बाल बुद्धि की जादूगरी में रस लेने वाला कहा जा सकता है। हाथों की हेरा-फेरी और जीभ को लपालपी भर से तो बाजीगर ही चमत्कार दिखा सकते हैं। जो इतना भी नहीं समझते कि सस्ते उपचारों से बडे़ चमत्कार दिखाने वाले बाजीगर वस्तुतः खोखले होते हे और बाल मनोरन्जन करके पेट भरने मात्र की कमाई कर पाते है। साधना को जो बाजीगरी भर मानते हैं और देवताओं की छुट-पुट उपहार मनुहार से बरगलाये जा सकने जैसे मूर्ख मानते है वे भारी भूल करते हैं। तत्वतः आत्मिक क्षेत्र का पुरुषार्थ उपासना पद्धति और जीवन प्रक्रिया से उच्चस्तरीय निष्ठा का समावेश करते चलना ही है।

गायत्री परिवार के परिजनों ने अपनी साधना में निष्ठा का समावेश करने का प्रयत्न सदा से किया है अब युग सन्धि की बेला में वे उस प्रयास को और भी अधिक तत्परता के साध सम्पन्न करने जा रहे हैं। इन दिनों जागृत आत्माओं के कन्धों पर जो विशिष्ट उत्तर-दायित्व आये है उनका निर्वाह कर सकने में नैष्ठिक साधना अपनाने पर बहुत जोर दिया जा रहा हैं । जो इस दिशा में जितनें शोर्य पराक्रम कर सकेंगे वे उतने ही बडे़ पुरुषार्थी कहे जायेंगे और आत्मिक प्रगति के सुनिश्चित परिणाम उत्पन्न करने वाले विविधि अवलम्बनों में से एक अति महत्वपूर्ण पक्ष की पूर्ति करेगे।

भौतिक प्रगति एवं समृद्धि का जितना महत्व समझा और ध्यान दिया जाता है उतना ही यदि आत्मिक क्षेत्र की उपलब्ध्यों के सम्बन्ध में दृष्टि रही होती तो निश्चय सामान्य परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्ति भी देव मानवो की भूमिका निभा सकने में समर्थ हो सके होते । चलता इतना है कि भौतिक सफलताओं के लिए छुट पुट आध्यात्मिक उपचार उपेक्षापूर्वक किये जाते हैं यदि आत्मबोध उगा और तत्व ज्ञान जगा होता तो आत्मिक प्रगति को प्रमुखता मिलती और भौतिक सुविधाओं की वैसी ही उपेक्षा बन पड़ती जैसी कि इन दिनों वैभव के निमित्त जीवनोद्देश्य की अर्वज्ञा होती रहती है। यह आन्तरिक परिवर्तन प्रस्तुत कर सकना ही सच्चे अर्थो में आत्मिक क्षेत्र का पुरुषार्थ है जो इसे जिस मात्रा में कर पाता है वह इसी कायकलेवर में रहते हुए अपने में देवी विशिष्टताओं का अनुभव करता और परिचय देता है।

आत्मिक प्रगति का तीसरा अवलम्बन है-वरिष्ठों का अनुदान । छात्र की सफलता का उदाहारण देते हुए कहा जा चुका है कि उसे अभिभावकों का बहुमुखी सहयोग मिलना चाहिएं। भोजन ,वस्त्र ,पुस्तक ,फीस, जअ खर्च अिद का सारा प्रबन्ध छात्र को स्वयं ही करना पडे़ तो अधिकाँश क्षमता उसी को जुटाने में नष्ट हो जायगी और फिर पढ़ने के लिए न फुरसत मिलेगी, न ताजगी रहेगी । ऐसी दशा में अत्यधिक भार बढ़ जाने से न उसकी पढ़ाई ठीक प्रकार चलेगी न सफलता ही सुनिश्चित रहेगी । छोटे बच्चे को माता दूध भी पिलाती है और उसकी अन्य सुविधाओं को भी जुटाती रहती है। यदि यह लाभ न मिले तो नवजात शिशु के लिए अपनी स्वल्प सामर्थ्य के बल पर जीवन धारण किये रहना भी कठिन हो जायेगा ।

आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में भी यही सिद्धान्त काम करता है। साधना के प्रति सच्चे अर्थो में जो निष्ठावान हैं, उन्हे सिद्ध पुरुषों के उच्चस्तरीय अनुदान मिलते हैं और वे स्वल्प पुरुषार्थ में भी उच्चस्तरीय सफलताएँ प्राप्त कर सकने में सफल होते है। विवेकानन्द को परमहंस का, शिवाजी को समर्थ का, चन्द्रगुप्त को चाणक्य का , बिनावा को गाँधी का अनुदान मिला और वे मूलतः अंिकचन होते हुए भी अन्ततः महान बन सकने में सफल हुए । हनुमान, अंगद और नल-नील को चमत्कारी उपलब्ध्याँ उनकी अपनी उपार्जित नहीं थीं वे अनुदान में मिली थी। कुन्ती पुत्र पाण्डव जो पराक्रम दिखा सके वह उनका निज का नहीं देव प्रदत्त था । गंगा लाये तो भागीरथ ही थे , पर उस सफलता में उन्हें शिवजी का अनुदान कम नहीं मिला था । तपश्चर्याएँ ऐसे ही अनुदान,वरदान प्राप्त करने के निमित की जाती है।

सर्वविदित है कि युग-निर्माण योजना के सूत्र संचालकों की अपनी उपार्जित आत्मिक सम्पदा जितनी है उससे असंख्य गुनी अनुदान स्वरुप मिलती है। यदि ऐसा न होता तो गोवर्धन उठाने और समुद्र सेतु बनाने जैसे जो महान प्रयत्न चल रहे हैं उनमें से एक भी अग्रगामी न हो सका होता ।

गुरु और शिक्षक में नैतिक अन्तर है। शिक्षक मार्ग दर्शक भर होता है। बतान, पढाने के उपरान्त उसकी जिम्मेदारीपूर्ण हो जाती है किन्तु गुरु की गरिमा इतनी सीमित नहीं है, उसे शिष्य को प्रशिक्षण से भी अधिक अनुदान देना पड़ता है अध्यापक कोई भी हो सकता है, पर अनुदान देने वाले अभिभवक तो भगयवानों को ही मिलते हैं। यदि यह आवश्यकता पूर्ण न हो सके तो मार्ग-दर्शन और पुरुषार्थ के दोनों आधार बन पड़ने पर भी एक बड़े महत्व का अवलम्बन अनुपलब्ध ही रह जाता है और उच्चस्तरीय सफलता संदिग्ध बनकर रह जाती है।

कई व्यक्ति ऐसे सिद्ध पुरुषों की तलाश में रहते हैं जिनके वरदान, आशीर्वाद से उनकी कठिनाई हल निकले एवं अभीष्ट सफलताओं में सरलता हो सके । ऐसे सिद्ध पुरुष प्राचीन काल में तो बहुत थे, पर अब भी उनका वंश नष्ट नहीं हुआ है। सत्पात्रों की उनकी सेवा सहायता अभी भी प्राचीन काल की तरह उपलब्ध होती है। फिर क्या कारण है कि प्राचीन काल में साधकों को ऐसे अनुदान मिलते रहते थे और अब वैसे सुयोग नहीं बनते । सिद्ध पुरुषों के वरदान प्राप्त करके जो गुरु कृपा की सराहना कर सके ऐसे भाग्यशाली कठिनाई से ही कहीं दीखते हैं। इच्छुकों की कमी नहीं वे भाग दौड़ भी कम नहीं करते-फिर भी जब निराशा हाथ लगती है तो अनेक प्रकार के सन्देह मन में उठते हैं । उनमें एक यह भी है कि सिद्ध पुरुषों की समाप्ति तो नहीं हो गई अथवा वे अनुदार तो नहीं बन गये ?

इस शंका के समाधान में इस तथ्य को भली प्रकार उजागर करना होगा कि महत्वपूर्ण अनुदान पात्रता के स्तर से सम्बन्धित है। पानी माँगने पर कहीं से भी मिल सकता हैं मनुष्यता का तकाजा एक दूसरे को सहयोग देते हुए जीवनयापन करने का है, पर बडी सहायता देने जैसे बडे़ कदम उठाने के लिए कोई तभी तैयार होता है जब प्रापत करने वाले की पात्रता परख ली जाय उदाहरण के लिए किसी के भी माँगने पर उसे बेटी नहीं दी जा सकती । जामाता को हार तरह ठोक-बजा कर देखना पड़ता है कि वह उसकी सुयोग्य बेटी के उपयुक्त है या नहीं । बडे़ अनुदान भी मिलते तो मुफ्त में ही हैं, पर उसके लिए पात्रता को कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होना पड़ता है । माँगते ही मिल जाने की कोई परम्परा इस संसार में नहीं होते । याचना पूरी हो ही जायेगी इसकी कोई गारण्टी नहीं । बैंको से मुफ्त में धन लेकर सभी चैक भुनाने वाले निकालते हैं, पर इस लाभ को पाने से पूर्व अपनी जमा राशि अथवा लौटाने की जमानत का प्रबन्ध करना होता है। हर किसी की मनोकामना पूरी करने वाले अनुदान बढ़ने लगें तो बैंक ही नहीं देवता एवं सिद्ध पुरुष भी दिवालिया बन जायेंगे। पात्रता की कसौटी पर खोटे सिद्ध होने वाले याचकों को प्रायः खाली हाथ ही लौटना पड़ता है । ठीक यही बात देव मानवों द्वारा सामान्य-जनों को उपयोगी अनुदान देते समय भी ऐसी ही जाँच-पडताल करनी होती है और वैसी ही नीति बरती जाती है।

बैंको से पैसा उधार तो मिलता है, पर मजा उड़ाने या जमा करने के लिए नहीं । किसी ऐस उपयोगी काम के लिए दिया जाता है, जिससे देश की समृद्धि बढ़े और अनेकों को रोजगार मिले । लेने वाले उस ऋण को ब्याज समेत वापिस लौटाते और देश का उत्पादन बढ़ाने का परमार्थ करते रहते हैं। कमीशन से अपना मध्यवर्ती लाभ कमाते और समृद्धि भी बनते हैं। ठीक यही तरीका दिव्य सत्ताओं से वरदान, अनुदान प्राप्त करने का है। वह किसी को भी अमीर बनने के लिए नहीं मिला । यदि देव सत्ताएँ ऐसा करतीं तो वे पक्षपाती और चापलूसी के इशारे पर नाचने वाली कहलातीं। फिर उनकी गरिमा के साथ जुडी हुई उत्कृष्टता का कोई आधार न रह जाता और पूरा भाई-भतीजावाद, बिरादरीवाद पनपता। ऐसा लेन-देन ओछे मनुष्य ही निहित स्वार्थे से प्रेरित होकर कर सकते है । देवत्व की गरिमा अपनाने वाले दृश्य या अदृश्य सत्ताओं से कभी किसी की ननोकामना पूर्ति की नहीं-उच्च प्रयोजनों के लिए अनन्त रुप में अनुदान पाने की ही अपेक्षा करनी चाहिए यह परम्परा अभी भी मौजूद है। आत्मिक प्रगति के लिए सत्पात्रों को उच्चस्तरीय अनुदान देने वाली देवी बैंके अभी भी अपना लेन-देन प्राचीन काल की भाँति ही चलती रहती हैं। आत्मिक प्रगति का तार्त्पय है उच्चस्तरीय व्यक्तित्व और उसके साथ अविच्छिन्न रुप से जुड़ा हुआ लोक-मंडल परक कर्तृत्व। उच्च उद्देश्य के लिए उच्च अनुदान प्राप्त करने की सुविधा अभी भी जी चाहे प्रसन्नता पूर्वक प्रचूर परिमाण में उपलब्ध कर सकता है।


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