इच्छित दिशा में जीवधारियों का विकास

July 1980

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जीव विज्ञान के क्षेत्र में पिछली शताब्दी में प्रतिपादित विकासवाद के सिद्धान्त ने मनुष्य के गौरव , उसके मूलस्वरुप , स्तर , स्वभाव और आधार पर जिस तरह चोट की है वह मनुष्य को नियति के हाथ का एक खिलौना भर सिद्ध करती है। ‘जीवन संघर्ष ‘ विकासवाद का एक प्रमुख सिद्धान्त है । उसके अनुसर पृथवी पर सर्व प्रथम एक कोशीय अमीबा के रुप में जीवन अवतरित हुआ । अमीबा इतने बढ़े कि उनके लिए पोषण की वस्तुओं का अभाव होने लगा । फलतः अमीबा का तेजी से हृस होने लगा और जो अमीबा बलवान तथा योग्य थे वे अधिक विकसित रुप में जीवित रहे । इस जीवन संघर्ष में योग्य बचे और अयोग्य मारे गये। संघर्ष का यह क्रम अनवरत चलता रहा साथ ही योग्य प्राणी बचे और अयोग्य लुप्त हो गये। जो बचे, परिस्थितियों के अनुसार उनके आकार-प्रकार भी बदलते रहे और इसी क्रम से क्रमशः मछली , मेंढ़क , साँप , पक्षी , गाय , बैल , घोड़े , बन्दर , बनमानुष और मनुष्यय की उत्पति हुई।

दूसरे प्राणियों से उन्नत प्राणियों का विकास हुआ- इस सिद्धान्त के खण्डन में कई तर्क दिये जा सकते हैं और यह भी सिद्ध किया जा सकता है कि पृथ्वी पर चलन वाले जीवन संघर्ष में योग्य बलवान अयोग्य , अशक्तों को मार कर जीवित बचे तथा विकसित हुए जैसे अमीबा अभी भी इस रुप में पाये जाते हैं, जिस रुप में कहा जाता हैं कि वह पृथ्वी पर सर्व प्रथम अवतरित हुआ । यदि अमीबा ही विकसित होकर दूसरे रुप में बढ़ा तो अमीबा जीवित क्यों है ?

फिर भी जातिविधान ,लुप्तजन्तु , गर्भशारुत्र , संधियोनियाँ आदि को जैविक परिभाषाओं के अनुसार यह सिऋ करने का निरन्तर प्रयास चलता रहा है कि पृथ्वी पर जीवन क्रमशः विकसित हुआ । क्रमिक विकास का यह सिद्धान्त इतना बहुसमर्थित है कि उसके कारण मनुष्य को पूर्व इतिहास नितान्त ही दीन , हीन और मूल्यहीन ही ठहरता है। मनुष्य जाति के पूर्वज वर्तमान की अपेक्षा बहुत गिरे हुए , अविकसित , असभ्य और कहना चाहिए बन्दर थे - यह मान्यता हमें अपने अतीत के प्रति अश्रद्धालु और स्वयं को अहंकारी ही बनाती है।

सवाल केवल भावनाओं और साँस्कृतिक मूल्यों का ही नहीं है । विकासवाद की यह धारणा तथ्यों से भी परे है । क्रमिक विकास के सिद्धान्त का एक अंश ही ग्राह्म हो सकता हैं जैसे बालक का शरीर और मस्तिष्क अविकसित होता है। समय के अनुसार उसकी प्रगति होती है और सुवावस्था तक पहुँचने पर वह प्रौढ़ प्रगल्भ , परिपक्व बन जाता है।

लेकिन मनुष्य की या अन्य जीव-जन्तुओं की मूल परम्परा में एकरुपता और समान्ता बनी रहती । जीवधारियों में इस परम्परागत समानता की सम्भावना उनके शुक्राणुओं में विद्यामान मानी जाती है। गेहूँ के बीच से ही गेहूँ उत्पन्न होता है। आम की आकृति और स्वाद का पूरा ढाँचा उस गठली में भरा रहता है जिससे कि नया पौधा उत्पन्न होता है। इस वंशधर में अपने पूर्वज के गुण ही विकसिक पाये जायेंगे । विकास क्रम की यह परम्परा कभी भी देखने में नहीं आती कि सरसों का बीज क्रमशः विकसित होते-होते कटहल जैसे फूल लगाने लगा हो । मूँग की बल पर कद्दू जैसे स्वाद और आकार के फल लग सकना शायद कभी भी सम्भव न हो सकेगा ।

विकासवाद के अनुसार जिस अण्डों का उपयोग न किया जय वह जंग खाकर नष्ट हो जाता है । जिन अंडो का उपयोग किया जाय वही अण्डे विकसित होते हैं। ‘थ्योरी आफ यूज एण्ड डिसयूज ‘ के इसी सिद्धान्त के अनुसार जीवों में अवशेष तथा विभिन्न प्राणियों की शारीरिक संरचना का तुलनात्मक अध्ययन कर विकासवाद का क्रम निरुपण किया जाता है। जैस बन्दर ने पेड़ो परसे उतर कर जमीन पर रहना आरम्भ किया तो उसकी पूँछ का उपयोग भी बन्द हो गया । फलस्वरुप पूँठ धीर-धीरे कमजोर पड़ती गयी और बन्दर से मनुष्य बनने तक पूरी तरह नष्ट हो गयी।

यह संगति भी कल्पना और अनुमान के आधार पर ही बिठायी गयाी है। प्रकृति के परमाणुओं में भी ऐसी व्यवस्था नहीं कि एक बीज से दूसरे भिन्न बीज की या भिन्न बीज वाले पदार्थ की उत्पति हो सके । इस क्रम निरुपण की प्रामणिकता को परखने के लिए पिछल दिनों कार्नेल यूनिवर्सिटी के ‘सेल’ फिजियोलौजी ग्रोथ एण्ड डेवलम मेण्टस्’ विभाग के निर्देशक श्री एफ॰सी॰स्टीवड्र ने एक प्रयोग किया और उस प्रयोग में एक गाजर काटी। गाजर में असंख्य कोशिकायें थीं।प्रत्येक कोशिका में समान गुण थे । स्टीवर्ड ने कुछ कोशिकायें निकाल कर काँच की नलियों में रखी और उनमें नारियल का पानी भर दिया ।

एक कोशिका के और अधिक टुकडे़ नहीं किये जा सकते , परन्तु नारियल का पानी पीते ही गायजर की वे कोशिकायें एक से दो, दो से चार , चार से आठ के क्रम में बढ़ने लगीं और अन्त में प्रत्येक काश एक स्वतन्त्र गायर का पौधा बन गया । इस प्रयोग के आधार पर प्रो॰स्टीवर्ड ने सिद्ध किया कि कोई भी कोशिका अपनी जाति के नये कोश बनाने की शक्ति तो रखती है, परन्तु वह नयी जाति के कोष नहीं बना सकती है।

फिर भी यह मान लिया जाय कि जीवधारियों में धीरे-धीरे परिवर्तन हुए तो प्रश्न उठता है कि परिवर्तन का वह क्रम अब रुक क्यों गया है ? ज्ञात इतिहास से अब तक मनुष्य शरीर में कोई परिवर्तन के संकेत नहीं मिलते ? क्या प्रकृति की विकास प्रक्रिया रुक गयी है ? दूसरा प्रश्न यह है कि विकासवाद के अनुसार जीव में सामान्य से विकास में करोड़ो वर्ष लग गये तो मनुष्य जैसे विलक्षण जीव के रुप में वनमानुष सहसा किस प्रकार विकसित हुआ ।

स्मरणीय है विकासवाद के अनुसार पृथ्वी पर तीन हजार लाख वर्षो में जो जीवन-चक्र चला वह प्रारम्भ के ढ़ाई हजार लाख वर्षो तक बहुत ही मन्द गति से चला - उसमें केवल जीवन के लक्षण थे। पाँचा करोड़ वष्र पूर्व से ही जीवन के विकास की गति अति तीव्र हुई तथा एक करोड़ वर्ष पूर्व पशु तथा वनस्पति जगत में जीवन के विभिन्न प्रमाण मिले । मनुष्य के पूर्वज तो कुछ लाख वर्ष पूर्व ही विकसित हुए और वे भी एक लाख वर्ष पूर्व तब गुफावासी और पाषाण युग में थे मनुष्य का मानसिक विकास तो गत 10-11 वर्षो से ही हुआ और उसमें भी अधिकतम विकास पिछले दो हजार वर्षो में हुआ । कहा जाता है कि ज्ञान-विज्ञान का जितना विकास पिछले दो हजार वर्षो में उससे अधिक पिछले दो सौ वर्षो में हुआ । दो सौ वर्षो में भी पिछले पचास वर्ष ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अब तक के विकास के अद्वितीय उदाहरण है।

यहाँ यह विचारणीय है कि ज्ञान-विज्ञान का विकास इतनी तीव्रगति से हुआ तो शरीर का विकास अवरुद्ध क्यों हो गया ? और मनुष्य को बौद्धिक विकास हुआ तो उसके कथित पूर्वज बन्दर बौद्धिक दृष्टि से जहाँ के तहाँ ही क्यों हैं ? मनुष्य जैसे विलक्षण जीव के रुप में विकसित होनेउ के बाद मनुष्य उससे भी अधिक विलक्षण-विचक्षण क्यों नहीं हो सका ? सुलझे हुए वैज्ञानिको नें विकासवाद पर इस तरह के कई प्रश्न चिन्ह लगाये है ।

विकासवादी सिद्धान्ता के अनुसार अब से छह हजार वर्ष पूर्व सुमेरिया में गुफावासी आदिम मानव ‘नियालिथिक ‘ रहता था । लेकिन पुरातत्व शोधों के अनुसार तब वहाँ एक सुविकसित सभ्यता विद्यमान थी । वहाँ के लोग नगरों में रहते थे, खेती करते थे और कला-संगी के क्षेत्र में भी विकास कर चुके थे । हिन्दू सभ्यता और मय सभ्यता विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यतायें मानी जाती है। दानों सभ्यताओं में प्रचलित और लिपिबद्ध, गाथाओं के अनुसार उन दिनों अन्तरिक्ष से विमान आते जाते थे और पृथ्वीवासियों का अन्य ग्रहों,लोकों के निवासियों से भी सर्म्पक था ।

सृष्टि पर जीवन का क्रमशः विकास हुआ और फिर कुछ हजार वर्ष पूर्व मनुष्य आज की तरह चलना सीख सका , उपलब्ध प्रमाणों के बाद भी यह मानना पूर्वाग्रह पूर्ण होगा । जीवन का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है, जिसे भरतीय तत्वविदों के जीव सत्ता का नाम दिया है। यह जीवात्मा अपनी इच्छा और कर्मा के अनुसार किन्हीं भी योनियों में किन्हीं भी प्राणियों के देह में निवास करने लगती है। मनुष्य की जीव चेतना, अन्य प्राणियों का देहधारण भी कर सकती है और अन्य प्राणी मनुष्य योनि में भी जन्म ले सकते हैं , मनुष्यों के समान कई प्राणियों के व्यवहार और कई मनुष्यों का पाशविक आचरण इस बात का प्रतीक है कि जीव सत्ता अपने पूर्व जीवन के संस्कारों को साथ लेकर विभिन्न योनियों में भ्रमण करती है।

इस परिवर्तन या विकास की जड़वादी व्याख्या अधूरी है और अब तो भू गर्भवेत्ता भी इस व्याख्या को असंगत ठहरा रहे है । विकासवादी विश्लेषण के अनुसार प्राणियों की पूर्व स्थिति में वापसी असम्भव है। विश्व के विभिन्न भागों में प्राप्त हाथियों के फासिल्स के आधार पर भूवत्ताओं ने निर्ष्कष निकाला है कि करोड़ो वर्ष पूर्व हाथी की उत्पति हुई तथा उस समय हाथी का आकार कुत्ते के बराबर था ।

कहा जाता है कि करोंड़ो वर्ष पूर्व भारत की शिवालिक पहाड़ियों में हाथी विशाल संख्या में विद्यमान थे । हाथी का अिदम विकास ‘मोटोथिटियम’ जीव से हुआ बताया जाता है । गेण्डे के आकार के स्तनधारी जीव थे । इसी वर्ग से पहला हाथी ‘फियोफिय ‘ उत्पन्न हुआ जिसकी ऊँचाई तीन फुट थी । इसके बाद टैटरा बैलोजन , मास्टाउन , स्टोगोडन वग्र की पीढ़ियाँ विकसित हुई । जिनकी ऊँचाई क्रमशः पाँचा , आठ , और पन्द्रह फुट थी । पन्द्रह फुट ऊँचे हाथी ‘स्टोगोडन’ के बाहरी दाँत 12 फीट लम्बे और सवा दो फुट व्यास के थे ।

लेकिन इसके बाद हाथी की ऊँचाई और आकार घटने लगा । अब 10 से 12 फुट ऊँचे हाथी ही होते हैं। इन दिनो भारतीय हाथियों की ऊँचाई 10-11 फुट होती है। भूतत्व शास्त्रियो के अनुसार हाथी की ऊँचाई फिर घटनें लगी है और सम्भव है कि वे अगल 1-1 करोड वर्षो में 3 फीट ऊँचे अर्थात् कुत्ते जैसे होने लगें ।

विकासवाद इन्ही विसंगतियों के करण स्वयं ही सन्देहों और आक्षेपाँ का केन्द्र बनता जा रहा है। प्रस्तुत कर्त्ताओं के तर्क उन्ही के प्रतिवादित तथ्यों को काट रहे हैं एक ओर तो अमीबा को हृवेल जैसे विशाल आकार वाले प्राणी के रुप में परिणत होने की बात कही जाती है और दूसरी ओर आदिम काल के महागंजो को भैंसे , कुत्ते जितनी ऊँचाई के हाथियों की स्थिति में लौअ पड़ने और महा सरीसृपों को छोटी छिपकली मात्र रह जाने के प्रमाण दिये जाते हैं।

पूर्वजों तथा उनके वर्तमान वंशजों में आकृति और प्रकृति का इतना अन्तर अस्वाभविक है। क्योंकि इससे तो उनकी मूलसत्ता का ही कोई आधार शेष नहीं रह जाता । प्राणियों में विकास और पतन दानों की सम्भाबनायें समान रुप से विद्यमान हैं। हाथी कभी कुत्ते जैसे आकार से विशालकाय प्राणी बन सकते हैं तो विशालकाय प्राणी से वापस उसी स्थिति में भी लौट सकते हैं। मोटे रुप में यह बात गले न उतरे , परन्तु सिद्धान्ततः यह सही है कि प्राणधारी अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुसार ही उठत,गिरते हैं। जीव सत्ता को ऊँचा उठाने और नीचे गिराने में , प्रगति करने अथवा अवनति के गर्त में धकेलने के लिए इच्छा शक्ति ही प्रधान हैं । प्रकृति ने अथव ईश्वरीय विधि-व्यवस्था ने प्राणी को न तो प्रगति के लिए विवश ही किया है और न पतन के गर्त में गिरने से रोका है।

वह अपनी स्वतन्त्र इच्छा शक्ति के अनुसार किधर भी बढ़ या घट सकता है। परिवर्तन उत्थान की दिशा में ही नहीं पतन की दिशा में भी हो सकता है। गति आगे बढ़ने का कारण भी हो सकती है और पीछे हटने में भी सहायक हो सकती है । आकाश की ओर भी आगे बढ़ा जा सकता है और पाताल की ओर भी प्रवेश किया जा सकता है। ईश्वर ने हर प्राणी की स्वतन्त्र सत्ता सृष्टि के आरम्भ में ही दी है। जीवात्मा किस स्थिति में रहना और किस दिशा में बढ़ना चाहता है यह उसके मनमर्जी की बात है ?


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