अंतरिक्ष के प्रचंड ऊर्जा स्त्रोत

July 1980

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आकाश देखने में पोला, खोखल लगता है ऐसा प्रतीत होता है मानो बहुत ऊँचाइ्र पर किसी ने गीली चादर तातकर उसमें फाड, टाँगे और टिमटिसाते दिये लटकाये हों। दृश्य के रुप में इतना ही विदित होता है , पर वस्तुतः उसमें भारी सामथ्य्र सम्पदा और विशालता को देखकर आर्श्चयचकित रह जाना पड़ता है।

इन दिनाँ जिसे खग्रास ग्रहण का सामना करना पड़ रहा है, वह सूर्य अकेला ही इस आकाश में नहीं है। अपनी आकाश गंगा में ऐस करोड़ो तारे हैं ओर उनमें से सैकड़ो उससे कही अधिक बड़े है । उनमें निसत होने वाली ऊर्जा समस्त ब्रह्माण्ड में फैलता है । दूरी के आधार पर धूमिल होना स्वाीविक है। फिर ीी उस वितरण में से कुछ हिस्सा पृथ्वी के हिस्से में भी निश्चित रुप से आता है।

ब्रह्मण्ड में गैस के असंख्य वादल परिभ्रमण करते हैं। इनमें पाया जाने वाला पदार्थ आर्श्चयजनक है। कही वह इतना हलका है कि 100 किला मीटर जगह में उसका वजन मात्र एक ग्राम हो । कही वह इतना भारी है कि एक इन्च व्यास में हजारों टन तोला जा सके । विस्तार की दृष्टि से ब्रह्माण्ड का विस्तार अकल्पनीय है। एक प्रकाश वर्ष 63000000000 किलो मीटर का माना जाता है । अपनी आकाश गंगा में प्रायः 150 अरब तारे है । उनका मध्यान्तर इतना बड़ा है कि आकाश गंगा के एक सिरे में दूसरे सिरे तक पहुँचने में एक लाख प्रकाश वर्ष लगे । अब पिण्डो की गतिशीलता परिधि पर दृष्टिपात किया जाय अपनी सूय्र 220 किला मीटर प्रति सैकिण्ड की चाल से अपनी मण्डली की साथ लेकर आकाश गंगा के केन्द्र धु्रवतारे की परिक्रमों के लिए चल रहा है। यह एक परिक्रमा 25 करोड वर्षा में पूरी होती है धरती का जिस दिन जन्म हुआ होगा उस दिन से लेकर अब तक सूर्य ने केन्द्र की एक परिक्रमा तक पूरी नहीं की है। वह अवधि पूरी होने तक पृथ्वी जीवित भी रहेगी या नहीं इसमें सन्देह है।

हर तारा ऊर्जा उमलता है और वह इतनी प्रचण्ड होती है कि उसका सूक्ष्मतम घटक परमाणु तक में पाई जाने वाली सामर्थ्य आर्श्चयचकित करती हैं अणुओं में सनिनहित ऊर्जा जिस शक्ति केन्द्र का नगण्य सा अनुदान है वह कितनी महान होनी चाहिए इसकी कल्पना भी ठीक से करते नहीं बन पड़ती । ब्रह्माण्ड में अवस्थिति अरबों आकाश गंगाओं की बात छोडे़ मात्र अपनी मंदाकिनी का ही अनुमान लगायें तो आर्श्चयजनक आँकडे़ सामने आते है। 200000000020 करोड टन है। ऐसे 300 अरब सूर्या का वजन अपनी आकाश गंगा का है

गैसीय मेघ ऐसे ही रुई के पुलन्दे की तरह नहीं उड़ते फिरते वरन् उनमें असाधारण ऊर्जा के स्त्रोत रहते हैं। इन वादलों से ही ग्रह-नक्षत्र बनते हैं और वे बूढे़ होकर जब टूटते है तो अपनी सामर्थ्य इसी भाण्डागार को वापिस लौटा देते है।

आये दिन मरते रहेने वाले सूर्य और उनके परिवारी ग्रह-उपग्रह जन्मने पर अपनी भट्टी जलाते और गर्मी बखेरते हैं। मरते-मरते भी उनकी अन्त्येष्ठि इतनी गर्मी बखेरती है कि आकाश में ढलाई की भट्टियों और चित्ता की ज्वाले मालाओं से भरे-पूरे श्मशान की तरह हर घड़ी गरमागरम देखा जा सकता है। गुरुत्वाकर्षण , तापमान , परिभ्रमण, परिवर्तन , आकंचन-प्रकुँचन की ऐसी हलचले अनन्त आकाश में चलती रहती हैं, जिनसे प्रचण्ड क्षमता सम्पन्न शक्ति तरंगो का उत्सृजन अनवरत होता रहता है। वे तालाब की लहरो की तरह फैलती और आगे बढ़ती चली जाती है। दूरी बढ़ने से उनकी समर्थता हलकी तो होती है, पर पूर्णतया समाप्त होने की स्थिति कभी भी उत्पन्न नहीं होती । अगणित स्त्रोतों से उत्पन्न और अनेक आकर्षण विकर्षणों से प्रभावित प्रेरित वे लरंगे आगे बढ़ती है। साथ ही परस्पर मिलकर नये-नये आधार खडे़ करती हैं। अति सघन न्यूटोन तारे एक सैकिण्ड में तीस चक्कर लगाने की भंयकर चाल से गतिशील रहते हैं। इतनी ऊर्जा उत्सृजित करते हैं कि उनसे प्रभवित क्षेत्र को विद्युत चुमबकत्व का भण्डार कहा जा सके।

पोले आकाश में खेखलापन दीखता भर है, वस्तुतः उसमें सामर्थ्य के अजस्त्र भाण्डागार ीरे पडे़ हैं। उन्हीं को पृथ्वी अपनी आवश्यकतानुसार उपलब्ध करती हुई गुजरा करती है । जब कभी उसके स्वाभाविक व्यवस्था क्रम में अन्तर पड़ता है, तभी विपन्न परिस्थितियाँ उत्पन्न होतीं और सनतुलन बिगड़ता है। सूर्य ग्रहण, सूर्य के धब्बे , चुमबकीय तूफान जैसी अन्तरिक्षय परिस्थितियाँ पृथ्वी की सुव्यवस्था में व्यतिरेक उत्पन्न करती हैं तो उस पर निवास निर्वाह करने वालों को चिन्तित होना और प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने का प्रयत्न करना स्वाभाविक है।

सौर मण्डल के अन्य ग्रह-उपग्रहों की अपेक्षा पृथ्वी के वातावरण , वनस्पति जगत तथा प्राणि समुदाय को सूय्र और चन्द्र दो ही अधिक प्रभावित करते हैं। चन्द्रमा का प्रभाव समुद्र पर अधिक आसानी से देखा जाता है। ज्वार-भाटों की हलचलों में पृथ्वी पर पड़ने वाला प्रभाव आकर्षण ही प्रमुख कारण है। यह एक प्रत्यक्ष दृश्य है इसके अतिरिक्त यह प्रभाव सूक्ष्म रीति से सूक्ष्म परिस्थितियों पर भी पड़ता है जिससे धरती को अनेक परिस्थितियाँ प्रभावित होती हैं। यहीं तक नहीं , प्राणियों की विशेषतया मनुष्यों की मनःस्थिति पर भी इन परोक्ष दवाओं के कारण अप्रत्याशित रुप से उथल-पुथल होती है। अनिच्छित रुप से कुछ ऐसा होने लगता है जिसमें कर्त्ताओं का श्रेय या दोष उतना नहीं होता जिसके लिए उनहें उत्तरदायी ठहराया जाता हैं।

सूर्य के सम्बन्ध में यह बात और भी अधिक जोर देकर कही जा सकती हैं। उसके उदय, अस्त का - प्रभाव मध्यान्ह का पृथ्वी की-उसके निवासियों की स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है इसे दैनिक जीवन की घटनाआँ से जोड़ कर सहज ही अनुभव किया जाता है। रात आते ही शरीर शिथिल होने लगता है। नींद आने लगती है। प्रभाव काल में ही सभी बिना जगाये जग जड़ते है। जहाँ तक कि पक्षियों को घोसले से निकल कर चहचहाने और फुदकने, उड़ने की तरंग उठती है। सवेरे के और मध्यान्ह के परिश्रम का परिणाम कितना भिन्न होता है यह सभी जानते हैं। फूलों का खिलना सूर्योदय के साथ - साथ आरम्भ होता है, जब कि रात्रि को स्थिर ही नहीं रहते सिकुड़ने भी लगते हैं। हवा गर्मी में नहीं अन्य परिस्थितियों में भी सूर्य की समीपता और दूरी का अन्तर पड़ता है। ऋतुओं के प्रभाव में सूर्य ही आधार भूत कारण होता है।

पृथ्वी का जीवन और जहाँ का सुखद वातावरण सूर्य का ही अनुदान है। भू-लोक के निवासियों को निर्वाह की ही नहीं चेतनात्मक उर्त्कष के लिए भी उपयुक्त सुविधा उपलब्ध रहती है। उदासीनों, उपेक्षा करने वालों और अब मानना पर उतारु रहने वालों का तो अमृत भी भला नहीं कर सकता । गायत्री मन्त्र सूर्य का मन्त्र है। सविता , देवता से ब्रह्म तेजस् प्राप्त करने का रहस्यमय विधान उसका साधना पद्धति में सन्निहित है। सूर्य की सत्ता का मूल्यान्कन करते हुए तत्वदर्शियों ने ठीक ही कहा है- “त्वम्मानो जगतश्चक्षु.” हे सूर्य आप ही इस संसार के नेत्र हैं। “त्वम् आत्मा सर्व देहिनाम्” आप ही सब प्राणियों की आत्मा हैं। “त्वम् योनिः सर्व भूतानाम्” आप ही सब प्राणियों की काया हैं। “त्वमा चारः क्रियावताम” आप ही पुरुषार्थियों के आचरण हैं। इन सूत्रों में सूर्य और प्राणियों के मध्य विद्यमान सम्बन्ध -सूत्र पर ऋषियों ने संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित प्रकाश डाला है।


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