प्रकाश की अपराजेयता

July 1980

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सूर्यदेव ने अपनी अन्तिम किरणें समेट लीं । चारों और घना अन्धकार छा गया । प्रकाश की कोई किरण नहीं दिखाई दे रही थी । सूर्य के अस्त होते ही सर्वत्र नीरवता छा गई। अन्धकार की घनी तमिस्त्रा को देखकर भयाकान्त हुए सभी एक स्वर से बोल उठे अब क्या होगा ?

सर्वत्र अपना ही साम्राज्य देखकर अन्धकार गर्वोन्मत हो उठा । उसने बडे़ दप्र के साथ घोषणा की “मैने प्रकाश को जीत लिया है। सूर्य को , प्रकाश के अस्तित्व को समाप्त कर दिया है। उनका अवसान हो गया । अब तो सर्वत्र मेरी ही सत्ता है राज्य है। प्रसन्न होकर बोला अब मेरी ही पूजा, अर्चना होगी ।

एक छोटा दीपक अन्धकार की दर्प भरी बातें सुन रहा था । उसने सोचा प्रकाश के अभाव में कही अन्धकार सचमुच ही आधिपत्य न जमाले । भयातुर संसार का कौन मार्ग दर्शन करेगा । उसने अपने अन्दर झाँका तो पाया कि नन्हा हुआ तो क्या हुआ वह भी कुछ कर सकता है। अपनी नन्हीं लौ को उसने बाहर किया प्रकाश किरणें विखेरते हुए अन्धकार से बोला “तुम्हारा यह अंहकार मिथ्या है। तुम्हारा कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। हमारी अनुपस्थिति तुम्हारी सत्ता का कारण बनती है। सूर्य न सही किन्तु जब तक हम है प्रकाश मिट नहीं सकता ।

दीपक की बात सुनकर अन्धकार अट्टहास कर उठा और कहने लगा ,”इस तुच्छ से दीपक की इतनी धृष्टता, इतना साहस । प्रकाश पुँज विशाल सूर्य को तो निगलते मुझे देरी नहीं लगी, मेरे आते ही उसका अवसान हो गया । फिर इसकी क्या विसात जो मुझसे संघर्ष कर सके । अन्धकार ने क्रुद होकर अपनी कालिमा और घनी कर दी नन्हे दीपक की प्रकाश किरणों को ढकने का प्रयत्न करने लगा ।

किन्तु नन्हा दीपक तनिक भी भयभीत न हुआ । उसे अपने पुरुषार्थ पर विश्वास बना रहा । स्थिर लौ से सतत प्रकाश बखेरता रहा । समय बीतता जा रहा था अन्धकार तीव्र वेग से अपनी गहनता ओर भी बढाता जा रहा था। बढ़ती हुई कालिमा का नन्हे दीपक पर थोडा भी प्रभाव न पडा । दृढ संकल्पो से युक्त अटूट निष्ठावान साधक की भाँति वह अपने लक्ष्य में जुटा रहा और स्वर्गीय लौ से प्रकाश फैलाते हुए भयाक्रान्तो को पथ दिखाता रहा । रात बीतती जा रही थी । धीर-धीरे एक दो और तीन पहर रात्रि समाप्त हो गई और यह नन्हा साधक अन्धकार से जुझने के लिए लडता रहा । अन्धकार ने अपनी सारी शक्ति लगा दी किन्तु नन्हे दीपक को पराजित न कर सका । वह छोटा प्रकाश स्त्रोत अविचल भाव जलता रहा और स्तत प्रकाश बिखेरता रहा । अन्धकार नन्हे दीपक के प्रचण्ड पुरुषार्थ , ध्येय , निष्ठा एवं साहस को देखकर भयभीत हो उठा । जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था उसका डर और भी बढ़ता जा रहा था ।

रात्रि का अन्तिम पहर बीता और पूरब दिशा से उषा का आगमन प्रारम्भ हो गया । प्रभात में सूर्यदेव की स्वर्गीय किरणो से अपनी सुरक्षा करने के लिए अन्धकार कूच करने लगा । सर पर पाँव रखकर भाग गया । भगवान सूर्य को नन्हे दीपक ने अभिवादन किया और निवेदन किया -हे ज्योति पुँज संसार के प्रकाश स्त्रोत तुम महान हो । अब अपनी आभा से जगत को प्रकाश दो ।

जलते हुए नन्हे दीपक की अनवरत साधना त्याग एवं बलिदा वे समक्ष भगवान सूर्य भी नत-मस्तक हो उठे। उनकी आँखो में स्नेह की अश्रुधारा बहने लगी । प्यार से दीपक पर हाथ थपथपाते हुए उन्होंने कहा कि, “तुमने अपनी सतत साधना से प्रमाणित कर दिया कि प्रकाश कभी पराजित नहीं हा सकता । महान तुम हो । तुम्हारा त्याग अनुकरणीय होगा । तुम्हारी महानता के समक्ष मैं नत-मस्तक हूँ। मेरा प्रणाम्-अभिनन्दन स्वीकार करो।” उन्हे दीपक ने सन्तोष की साँस ली और अपनी लौ को समेटते हुए विश्राम को चल पड़ा ।


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