दैवी प्रकोपों में मानवी दुष्कृत भी सहयोगी

July 1980

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दैवी प्रकोपों से भी मनुष्य को अपार हानि उठानी पड़ती हैं। बाढ़ , भूकम्प , सूखा , महामारी , कृमिकीटक आदि के सम्बन्ध में यही समझा जाता है कि मनुष्य के ऊपर समय-समय पर बरसने वाली इन विपत्तियों में मनुष्य का कोर्इ्र दोष नहीं । दैवेच्छा ही इन प्रसग्डो प्रधान रहती है । पीड़ितों को सहायता करने के अतिरिक्त और कुछ बन नहीं पड़ता । सहज करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं सूझता ।

दुर्देव कहलाने वाली विपत्तियों में बहुत-सी प्रकृति असन्तुलन से भी होती हैं और सचमुच उनकी रोकधाम में मानवी प्रयत्न कुछ कारगर नहीं होते । ईश्वर से प्रार्थना करके मन का समाधान करना पड़ता है। सामान्य प्रचलन इतना ही है फिर भी यदि गम्भीरता पूर्वक पर्ववेक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि इन विपत्तियों के मनुष्यकृत व्यक्तिक्रम भी बहुत बड़े कारण होते हैं । यदि नियति मर्यादाओं से बचा जा सके तो इन प्रकृति प्रकोपों में सहज ही भारी कमी हो सकती है।

उदाहरण के लिए बाढ़ प्रकोप के देवी संकट को लिया जा सकता है। इससे समय-समय पर भारी हानि उठानी पड़ती है । भारत के सिंचाई आयोग द्वारा किये गये पर्यवेक्षण से पता चलता है कि देश में प्रति वर्ष औसतन 730 मनुष्य तथा 43000 जानवर मारे जाते हैं तथा अरबों रुपयों की फसल एवं चल-अचल सम्पति नष्ट होती है ।

सन् 78 को बाढ़ वर्ष कहा जाये तो कुछ अत्युक्ति न होगी । उसने पिछले सभी रिकार्ड तोड दिये । उपलब्ध सूचनाओ। के अनुसार देश भर में 2284 मनुष्य तथा 206602 पशु मारे गये । ढाई करोड़ से अधिक व्यक्तियों में उससे किसी न किसी प्रकार हानि उठानी पड़ी । अन्न तथा सम्पति की हानि तो इतनी अधिक है कि उसने देश की अर्थ-व्यवस्था को बुरी तरह चरमरा दिया ।

बाढ़ सम्बन्धी रिकार्डो से पता चलता है कि यह सिसिला चिन्ताजनक स्थिति में सन् 1980 से आरम्भ हुआ । उस वर्ष की हानि 21 करोड़ की आँकी गई थी । इसके बाद उसमें क्रमशः अभिवृद्धि ही होती गई । और सन् 71 से 632 करोड़ तक जा पहुँची ।

बाढ़ प्रकोप की विभीषिका आखिर बढ़ क्यों रही है ? इस प्रश्न के विभिन्न क्षेत्रों से विभिन्न उत्तर मिलते हैं । सूक्ष्मदर्शी कहते हैं कि दुष्प्रवृत्तियों के कारण अदृश्य जगत में बढ़ा हुआ प्रदूषण इन दैवी प्रकोपों का प्रमुख कारण है । सूक्ष्म वातावरण की स्थूल वातावरण पर प्रतिक्रिया होती है और प्रकृति असन्तुलित होकर विशाल लीला रचने लगती है । अन्तरिक्ष विज्ञानी कहते हैं कि मानवी उपयोग में अधिक ऊर्जा आने लगी है । ईंधन की अनेक किस्में विषाक्त गैसे उत्पन्न करके वायु प्रदूषण तथा तापमान बढ़ाती है। फलतः अधिक बादल बनते एवं बरसते हैं बर्फ के भण्डार तेजी से पिघलते हैं , नदियाँ उतना वेग धारण न कर सकने के कारण बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करती हैं। अणु शक्ति का उपयोग एवं उत्पादन से जो विकिरण उत्पन्न होता है, वह ही अनेकों प्रकृति असन्तुलन उत्पन्न करता है फलतः बाढ़ जैसी कितनी ही त्रासदायक विभीषिकाएँ उत्पन्न होती है ।

उपरोक्त सभी कारण विचारणीय हैं । दैवी प्रकोप मात्र भारत में ही नहीं संसार भर में होते हैं उनसे धन , जन की अपार क्षति सहन करनी पड़ती है । इन प्रकोपों में बाढ़ का एक सामान्य स्थान है फिर भी उससे होने वाली हानि के आँकडें बहुत डरावने हैं । इस प्रक्रिया में अधिक चिन्ता इसलिए होती है कि उसकी प्रतिक्रिया सामयिक क्षति पहुँचा कर ही समाप्त नहीं हो जाती , वरन् दुरगामी दुष्परिणाम उत्पन्न करती है। वे सामयिक त्रास बनकर ही समाप्त नहीं हो जाते वरन् ीविष्य को भी अन्धकारमय बनाते है ।

बाढ़ के कारण तेजी से नदियों में पानी पहुँचता है। वर्षा का वेग एवं दबाव अधिक होने से यह स्वाभाविक भी है। निकासी के पुरातन रास्ते सामान्य एवं सीमित बने होते है । वेगवान जल-प्रवाह उन रास्तों में होकर सामान्य गति से नहीं निकल पाता तो उतावली करता और विग्रह ठानता है। इस उथल-पुथल में पृथवी की ऊपरी सतह पर जमी हुई उपजाऊ मिट्टी की सतह घुलती है और पानी के साथ नदियों में चली जाती है। इससे दुहरी हानि होती है ।

एक तो उपजाऊ परत घुलने से भूमि की उर्वरता घटती है और फसल का उत्पादन स्वल्प रह जाता है । जो अनाज उत्पन्न होता है वह घटिया किस्म का रहता है । घस भी कम और पोषण रहित होने से उस पर निर्भर रहने वाले पालतू पशुओं को अशक्ता घेरती है । इस प्रकार मनुष्य और पशु दोनों ही घाटे में रहते है ।

दूसरी हानि है नदियों की सतह ऊँची उठते जाना । उथली नदियाँ बहुत कम पानी बहापाती हैं। फलतः वह फैलता है और समीपवर्ती क्षेत्रो में दूर-दूर तक बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करता है । पानी के साथ जलाशयों में मिट्टी का पहुँचना उनकी क्षमता एवं उपयोगिता को नष्ट करता है । उथली नहरें , बाँध , तालाब , सभी की संचय शक्ति घटती है और उनका थोडा़ सा पानी जल्दी ही सूखता , समाप्त होता देखा जाता है। बाढ़ जिन दिनों आती है उन दिनों जल जंगल एक कर देती है अतएव उसमें डूबने से घस एवं फसल सड़कर नष्ट होती है । मिट्टी भरने से बाढ़ में जलाशय उथले होते हैं और पानी का संचय घटने से न केवल वनस्पतियों के लिए वरन् मनुष्य के अन्य उपयोगों के लिए जल संकट खड़ा होता है । इससे निर्वाह एवं उद्योग के दोनो ही क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होते है और प्राणियों का आरोग्य एवं जीवन संकट में फँसता है ।

बाढ़ की हानियों को यदि समझा जा सके तो उसे प्रकृति प्रकापों में मूर्धन्य गिना जायगा । ऐसी दशा में उसकी रोकधाम के उपायों पर भी गम्भीरतापूर्वक विचार होना चाहिए । इस सर्न्दभ में प्रत्यक्ष कारणों में सब से अधिक महत्वपूर्ण और मूर्धन्य है - वृक्षों का अन्धाधुन्ध कटना वृक्षों की जड़े जमीन को गहराई तक जकडे़ रहती हैं और उसे सहज ही पानी के साथ नहीं बहने देती । इसके अतिरिक्त वृक्ष तेज वर्षा के दबाब को अपने ऊपर छाते की तरह सहन करते हैं और जमीन पर पहुँचने तक उसे काफी हलका कर देते है। धीमी गति से पानी पहुँचने पर पृथ्वी उसका बहुत बड़ा अंश अपने भीतर सोख लेती है । फलतः वह कुँओं , झरनों आदि से क्रमबद्ध रुप से पहुँचता और समयानुसार भप बनकर ऊपर उड़ता रहता है। तेज वर्षा तो तूफानी को रोकने में वृक्षों का अवरोध हर दृष्टि से कारगर होता है और उससे धरती की सुरक्षा छाता तानने जैसी होती है।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इन दिनों लकड़ी का अन्धाधुन्ध अपव्यय हो रहा है और जंगल बुरी तरह कट रहे हैं। खेती के लिए जमीन साफ करने के लिए पेड़ो का सफाया हो रहा है । जितने कटते हैं उतने लगते नहीं । फलतः वन सम्पदा का निरन्तर हृस होता चला जाता है । यह हानि धन हानि से भिन्न है । भूमि की उर्वरता और उसकी जल सम्पदा में कमी आने पर मनुष्यों को ही नहीं अन्य प्राणियों को भी भारी क्षति सहन करनी पड़ रही है । यह क्रम आगे भी इसी तरह चलता रहा तो विनाश की विभीषिका का जल संकट तक सीमित ही नहीं रहेगी वरन् अन्य अनेकों प्रकार की ऐसी समस्याएँ उत्पन्न करेगी जिनका समाधान समय बीत जाने पर सम्भव न रहेगा ।

प्रकृति असन्तुलन को रोकने के लिए उसके सभी कारणों पर विचार करना और रोकधाम के लिए प्रयत्नशील होना आवश्यक है । इस प्रसंग में बाढ संकट और उसका प्रमुख कारण वृक्ष विनाश सर्वोपरि महत्व के प्रश्न है । इस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।


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