भव-बंधनों से मुक्ति के लिए सम्बन्धों का पुनर्निर्धारण

July 1980

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भ्रमग्रस्त मायाबद्ध जीवन क्रम ही मनुष्य को अवाँछनीय , चिन्तन ओर हेय कर्तृत्व में उलझाता है । इसी से वर्तमान पर शोक-सन्तोष की घटायें छाई रहती है ओर भविष्य अन्धकारमय बनता है । यदि अपने और संसार के सम्बन्धों का पुनर्निर्धारण किया जा सके तो उस तत्वबोध के आधार पर सहज ही विचार क्षेत्र में उत्कृष्टता और क्रिया क्षेत्र में आदर्शवादिता भर सकती है । फलस्वरुप बाह्ना जीवन में स्वर्गीय वातावरण तथा अन्तः-जीवन में आनन्द और उल्लास के द्वारा मुक्ति जैसा आलोक अपने भीतर उत्पन्न किया जा सकता है ।

इस स्थिति को प्राप्त करने में बाधा एक ही और वह है हमारे चिन्तन की त्रुटि । हमारे चिन्तन में एक भारी भूल यह है कि शरीर और आत्मा को एक ही मान लिया गया है । हम अपने स्वरुप को भूल बैठे हैं और शरीर के साथ इतने रम गये हैं कि दोनों की सत्ता एक ही मानने लगे हैं। इसका दुष्परिणाम यह हूआ है कि शरीर के-मन के-स्वार्थ अपने सुख-दुःख प्रतीत होने लगे हैं। जबकि वस्तुतः वे सर्वथा भिन्न हैं। शरीर का स्वार्थ वासना में और मन का तृष्णा की पूर्ति में हो सकता हैं, पर आत्मा की शान्ति तो जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए किए गये प्रयासों के साथ ही जुडी हुई हैं।

समुद्र के खारे जल में नमक और पानी दोनों मिले होते हैं अतएव वह किसी काम में नहीं आता । यदि जल और नमक पृथक कर दिये जाँये तो दानों ही उपयोगी हो सकते है ।यदि शरीर आत्मा का बाहन मात्र बनकर रहे तो उसे महामानव, देवदूत, ऋषि स्तर का बनने-सुखी एवं यशस्वी बनने का-अवसर मिल सकता है । आत्मा को भी शान्ति सद्गति मिलेगी । पर यदि वे दानों इकट्ठे हो जाते हैं, आत्मा अपना स्वरुप भूल कर शरीर स्तर की बन जाती है तो वासना और तृष्णा की-लाभ और मोह की दल-दल में गहराई तक धँस जाना पडे़गा और गहरी कीचड़ में गरदन तक फँसे हाथी की तरह दयनीय दुर्दशा के साथ जीवन गँवाना पडे़गा ।

अस्तु,स्मरण रखा जाना चाहिए कि आत्मा और शरीर एक नहीं हैं। आत्मा के साथ शरीर का, मन का और परिवार का क्या सम्बन्ध है इस तथ्य पर विचार करना चाहिए और अपनी धारणाओं तथा मान्यताओं में आवश्यक फेर बदल करना चाहिए इस तथ्य को भुला न दिया जाए कि शरीर और मन यह दो औजार उप-करण हैं-वाहन अथवा सेवा है जो सौपे गये उत्तरदायित्वों को निबाहने में समुचित सहायता प्रदान के लिए मिले हैं । बडे़ अफसरों को सरकार मोटर की, ड्राइवर की सुविधा देती हैं ताकि वे लम्बे क्षेत्र में सुविधापूर्वक भाग दौड़ कर सकें । हमें उत्कृष्ट स्तर का शरीर और मन ऐसे उपकरण के रुप में मिले हैं कि निर्धारित कर्त्तव्यों को पूरा कर पाना सुविधा के साथ सम्भव हो सके। आत्मा औ शरीर के बीच उपयोगकर्त्ता तथा उसके वाहन , सेवक , उपकरण , औजार के बीच रहने वाला रिश्ता ही यथार्थ है । दोनों की सत्ता पृथक है, दोनों के स्वार्थ अलग हैं दोनों एक नहीं हैं।

शरीर इसलिए मिला हैं कि उससे आदर्शवादी कार्य कराये जाँय, मन इसलिए मिला है कि जीवनोद्देश्य को पूरा करने की योजनायें बनायें और अवरोधों की गुत्थियाँ सुलझायें । परिवार इसलिये मिला है कि सद्भावनाओं और सत्प्रवृतियों को सुविकसित करने, अपनी आन्तरिक परिपुष्टता के लिये इस प्रयोगशाला में वैसा ही अभ्यास करते रहा जाय जैसा पहलवान अखाडे़ में जाकर किया करता है । भगवान ने परिवार के कुछ लोगों को सुविकसित बनाने के लिए हमें संरक्षक की तरह नियुक्त किया है और माली की तरह इस छोटे उद्यान को सुरम्य बनाने का उत्तरदायित्व सौंपा है यह मान्यतायें हम रखें तो इन तीना में से किसी पर भी अपना आधिपत्य जमाने की आवश्यकता न मिले । तीनों के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करने भर की बात रहे और यह चेष्टा बनी रहे कि इन आधारों की सहायता से अधिक अच्छी तरह जीवन-लक्ष्य की पूर्ति किस तरह हो सकती है ।

भ्रान्तियों की भूलभुलैया हमें कुछ का कुछ दिखाती बताती हैं, अतएव हम सथार्थता से विपरीत स्थिति में अपने को फँसा लेते हैं और न सोचने जैसा सोचने न करने लायक करने लगते हैं उसका परिणाम पग-पग पर अशान्ति, उद्विग्नता, खीज और खि।न्नता के रुप में सामने आता है। यदि कर्तव्या पालन और सदुपयोग भर की बात ध्ययान में बनी रहे तो हरिस्थति में प्रसन्न एवं सन्तुलित रहा जा सकता है ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के अम्त , पारस एवं कल्प-व्क्ष की त्रिविधि सिद्धिया इसी स्तर की मनोभूमि में उपलब्ध होती हैं।

आत्मा को शरीर और मन से भिन्न मानने पर सहज ही यह विवेक जागृत होता है कि जीवन सम्पदा का कितना अंश इन वाहनों की आवश्यकता पूर्ति के लिए खर्च किया जाये और कितना निर्दिष्ट लक्ष्य की पूर्ति में लगाया जाय न्यायोचित विभाजन हो सके तो समय , श्रम , बुद्धि, प्रतिभा एवं सम्पत्ति की ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का एक बडा अंश आत्म-कल्याण के लिए निकल सकता है । अन्यथा यदि अपना आपा-काय कलेवर में ही धुला, खपा दिया गया तो लोभ और मोह के अतिरिक्त आकाँक्षा एवं क्रिया का सारा उपार्जन उसी को समर्पित करना पडे़गा । शरीर और मन की लिप्सा में ही सुख दीखने लगेगा ऐसी दशा में वासना और तृष्णा की भूख बुझाने में ही अपनी सामर्थ्य कम पड़ने लगेगी । आत्म-कल्याण की बात तो बन ही न पडे़गी ।

यह दृष्टि यदि विकसित हो जाय तो अपने से सम्बद्ध व्यक्तियों तथा समीपवर्ती क्षेत्रों में फैली हुई दुष्प्र वृत्तियाँ क्रोध या उद्वेग उत्पन्न नहीं करतीं, न ही प्रतिशोध पैदा करती हैं, वरन् शान्तिपूर्वक सुव्यवस्थित रीति से विकृतियों को सुधारने में जुट जाने की प्रेरणा देती हैं। डाक्टर रोग को मारता है और रोगी को बचाता है । विवेकवान पाप को मिटाता और पापी को बचाता है । क्रोध से नहीं सन्तुलित सुधार प्रक्रिया अपनाने से ही विकृतियों का समाधान होता है। संसार में फैली हुई विकृतियाँ हमारे लिए सेवा साधना की-सुधार ,उपक्रम के लिए ही है । रोगी न रहे ता डाक्टर की क्या उपयोगिता । परमार्थ परायण, पुरुषार्थ को प्रखर करने का सुअवसर पाने के लिए ही सम्भव है समीपवर्ती क्षेत्र में विकृति उत्पन्न हुई हो ऐसा भी तो सोच सकता है ।

तत्वदर्शी यह भी जानता है कि पूजा उपक्रमों का उद्देश्य ईश्वर को फुसला करभौतिक एवं आत्मिक वरदान झटक लेना नहीं, वरन् उच्च भावनाओं और उच्च क्रियाशीलता के लिए आवश्यक प्रेरणा प्राप्त करना हैं । ताकि व्यक्तित्व में देवी तत्वों का अधिकाधिक समावेश करके पूर्णता की दिशा में दु्रतगति से बढ़ चलना सम्भव हो सके । जीवनोद्देश्य की पूर्ति छुटपुट पूजा-पुत्री मात्र से ही सकती हैं, ऐसा तत्वदर्शी नहीं मानता । अस्तु उसकी उपासना-साधना अज्ञानग्रस्त लोगों जैसी भ्रम धारणाओं पर निर्धारित नहीं होती। वह ईश्वर अनुकम्पा, बहुमूल्य उपलब्धियाँ पाने के लिए पूरी कीमत चुकाने पर विश्वास करता है और उसके लिए महामानवों जैसी स्थिति प्राप्त करने की प्रेरणा उपासना उपक्रमों के माध्यम से प्राप्त करता है ।

शरीर और मन को पृथक् मानने, उनके बीच स्वामी सेवक जैसा सम्बन्ध स्पष्ट करने से भ्रमग्रस्तता के भवबन्धनों से छुटकारा मिल सकता है। बाहृ आकर्षणों में खिंचते फिरने की, अपेक्षा विवेक के आधार पर अपनी मान्यताओं, आकाँक्षाओं एवं क्रिया-कलापों का पुनः निर्धारण करना होता है , इसी आधार पर समुन्नत जीवन धारा के साथ प्रबाहित होता हुआ अन्ततः आनन्द को उपलब्ध किया जा सकता है ।


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