आत्मश्रेय और देवी अनुग्रह पाने का दुहरा सुयोग

July 1980

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मनोनिग्रह के लिए एकाग्रता की साधना करनी पड़ती हैं बिखराव को एकत्रित कर देने पर क्षमता कितनी अधिक बढ़ जाती है, इसे सभी जानते हैं। छोटे से अतिसी शीशे पर फैली हुई सूर्स किरणे जब एक बिन्दु पर जमा होती है तो देखते-देखते आग जलने लगती है। भाप को एक छिद्र में होकर निकालने पर उस शक्ति से रेल का ईन्जन चलने लगता है। थोड़ी-सी बारुद बन्दूक की पतली नली में होकर गुजरती है तो निशाने को पार करती चली जाती है। मानसिक बिखराव जब किसी लक्ष्य विशेष पर केन्द्रित होता है तो अर्जुन के मत्स्य बेध जैसी चमत्कारी सफलता मिलती है। कला-कौशल के नाम से जानी जाने वाली अनेक विशिष्टताऐं तन्मयता के आधार पर ही उत्पन्न होती है। वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, कलाकारों में जो प्रतिभा उभरती है उसे एकाग्रता का ही प्रतिफल कहना चाहिए योग साधना की चरम परिणित ‘समाधि’ और कुछ नहीं तत्मयता की ही उच्चस्तरीय परिणिति है। उस क्षेत्र में आकर्षक चर्चा होती रहती है। इसे एकाग्रता का माहात्मय वर्णन ही समझा जाना चाहिए ।

अनुदानों के प्रसंग में भी श्रद्धापूर्ण तन्मयता ही अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करती हैं। कीट भृंग का उदाहारण प्रख्यात है। भृंग कीडे़ को अपने समान बनाती है इसमें कीडे़ की तन्मयता का भी कम योगदान नहीं होता । इष्ट देव के अनुरुप साधक का ढल जाना । भौतिक क्षेत्र में भी संकल्पों को पूर्ण कर सकना इसी आधार पर सम्भव होता है कि तादात्मय किस स्तर का बन पड़ा भक्त की साधना भगवान के निकटतम सालोक्य, सामीप्य, और सामुजय स्थित तक पहुँचा देती है। भगवान की अनुकम्पा बरसती तो सभी पर है, पर उसे अन्तरंग में आकर्षित एवं धारण करने वाले ही ग्रहण कर पाते है।

दूध तो माता के स्तन से ही प्राप्त होता है, पर उससे लाभान्वित होने के लिए बच्चे को भी चूसने और पचाने का प्रयत्न करना पड़ता है। न तो अकेले बच्चे के चूसने से काम बनता है न माता ही स्तर निचोड़ने कर दूध को पेट में पहुँचाने और हजम करा देने में समर्थ होती है। अनुदानों के बीच भी दाता और ग्रहीता को अपने-अपने ढंग की भूमिका निभानी पड़ती है। रेडियो स्टेशन उपयोगी प्रसारण करते रहते है किन्तु उनका लाभ उन्हीं ट्रान्जिस्ळरों को मिलता है जो उन्हें पकड़ने की क्षमता से सम्पन्न होते हैं। समर्थ सद्गुरु की अनुकम्पा का लाभ सभी शिष्ट समान रुप से नहीं उठा पाते। उनकी श्रद्धा एवं चेष्टा भी उस सुयोग का लाभ ले सकने में एक बहुत बड़ा कारण होता है। मात्र बादल ही बरस कर हरियाली उत्पन्न नहीं कर देते इसके लिए भूमि की उर्वरता भी अपना काम करती है।

यह सब इसलिए कहा जा रहा है कि युग सन्धि में जागृत आत्माओं को विशिष्ट प्रयोजन के लिए जो अनुदान मिलने लगे हैं उनसे लाभान्वित होने के लिए ग्रहीता की क्या भूमिका होनी चाहिए इस तथ्य को भली प्रकार समझा जा सके।

उच्चस्तरीय अनुदान दे सकने वाल सत्ताएँ न पूर्व काल में काम थीं और न अब कोई कमी हुई है। मात्र ग्रहणकर्ताओं की पात्रता ही घटी है। इस अभाव में अनुदान मिलने का सुयोग रहने पर भी इच्छुकों को खाली हाथ रहना पड़ता है । वर्षा होती तो चट्टानों पर भी है, पर कठोरता के कारण पानी का भीतर प्रवेश कर सकना ही सम्भव नहीं होता । गड्ढों में जल राशि जमा होती है पर टीलों की चोटियों में स्थिति अनावृष्टि के कारण सूखा पड़ने जैसी ही बनी रहती है। गाय अपने बच्चे को दूध पिलाती है किन्तु भैंस का पड्डा यदि थनों से जा सलगे तो उसके लिए उदारतानहीं बरतती । गाय की अन्तःचेतना जानती है कि उसे किसे पिलानी चाहिए किसे नहीं।

युग संधि के दिनों में वर्षा ऋतु की तरह उच्चस्तरीय अनुदानों का प्रवाह सूक्ष्म जगत में चल पड़ा है। इसका प्रथम उद्देश्य सृष्टि सन्तुलन बनाने की ईश्वरीय इच्छा को पूरा करना है। अवतरण इसी प्रयोजन के लिए होते हैं। अधर्म का उन्मूलन और धर्म का संस्थापन ही अवतारो का उद्देश्य रहा है। इन दिनों भी इसी उद्देश्य के लिए प्रज्ञावतार की युगान्तरीय चेतना गतिशील हो रही है। उसके अनुकूल वातावरण बन सके इसके लिए देव पक्ष का समर्थन करने वाले प्रवाह अदृश्य लोक से चल पड़े हैं।

दूसरा उद्देश्य संचित संस्कार सम्पदा वाले सत्पात्रों जागरुकों को सामयिक श्रेय मिल सके। सूखी हुई दूब भी वर्षा ऋतु आते ही हरी-भरी हो उठती है। यह उसका पुरुषार्थ नहीं सौभाग्य अनुदान है। सीप को मोती की उपलब्धि उसका पुरुषार्थ नहीं, समय का सुयोग एवं वरिष्ठ का अनुग्रह है। इसमें दाता और ग्रहीता दानों ही कृत-कृत्य होते हैं। दुर्भाग्य और कुछ नहीं, पात्रता के अभाव का प्रतिफल मात्र है विशेषतया सुअवसरों की उपेक्षा करना तो एक प्रकार स्वंय अपनाया गया अभिशाप है।

सामान्य समय पर याचकों को ही दौड-धूप करते देखा जाता है, पर कई बार प्रतिभाओं को उपयुक्त प्रयोजनों के लिए जब ढूँढना पड़ता है तो उन्हे छात्र-वृति का लालच देकर ढूँढा और बुलाया जाता है। अफसरों की भर्ती के लिए नियुक्ति आवेदन विज्ञापन छपाते हैं और मार्ग व्यय देकर साक्षात्कार के लिए बुलाते हैं। नियुक्ति की आकाँक्षा तो आवेदनकर्ताओ को भी रहती है, पर सुयोग्य ढँढ निकालने में नियुक्ति तन्त्र को उत्कंठा एवं तत्परता भी कम नहीं होती। परमहंस ने चिरकाल की खोजबीन के उपरान्त हजारों लाखों के भक्तजनों में से विवेकानन्द को ढूँढ निकाला था । सुयोग मिलने पर प्रसन्नता एक को नहीं वरन् दोनों ही पक्षों को हुई थी ।

युग सन्धि के इस पावन पर्व पर ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए निमित्त पुरुषार्थ करने और श्रेय पाने वालों की तलाश चल रही है। मार्ग व्यय देकर अनेकों आवेदन कर्त्ताओ को आग्रहपूर्वक बुलाया जा रहा है । इस खोजबीन में एक मौलिक अन्तर है। सरकारी नियुक्ति तन्त्र अपनी आवश्यकता के अनुरुप छाँटकर लेने के उपरान्त शेष को दो टूक मनाही कर देते है । पुस्तुत दैवी आमन्त्रण में ऐसी नहीं है। इसमें सर्वधा निराश किसी को भी नहीं किया जायेगा । जो जितने का -जिस स्तर का अधिकारी है उसे उतना तो दिया ही जायेगा । खाली हाथ किसी को भी लौटने की आशंका नहीं है।

हिमालय के मध्यवर्ती आध्यात्मिक धु्रव केन्द्रग से युग सन्धि के दिनों एक विशिष्ट प्राण प्रवाह रेडियो प्रसारण की तरह-वर्षा मानसून की तरह उमड़ता रहेगा । उससे लाभन्वित होने के लिए सभी जागरुकों को आमन्त्रित किया गया है। युग पुरश्चरण के भागीदारों का साहस एवं उत्तरदायित्व अधिक होने के कारण उन्हें अनुदान भी उसी स्तर का मिलेगा किन्तु जो उतना साहस न जुटा सकेंगे उन्हे भी अपनी पात्रता के अनुरुप हलके स्तर के उपहार पाने का अवसर मिलेगा । वर्षा में बडे़ तालाब और सरोवर भी अगाध जल राशि एकत्रित करते हैं किन्तु खाली रह जाने की शिकायत छोटे गड्ढो और पोखरों को भी नहीं रहती है। उन दिनों गणना उनकी भी सौभाग्यशलियों और उपलब्धकर्ताओं में ही होती है।

अकाल पड़ने पर कुँआ खोदने आदि के लिए तकाबी बाटने के लिए सरकारी अफसर स्वयं गाँव-गाँव घूमते हैं। इतना ही नहीं खोदने की सुविधा एवं जानकारी देते हुए प्रयत्नरत होने के लिए किसानों की खुशामद भी करते हैं। यों प्रत्यक्ष लाभ किसानों का ही है। पीने का पानी और सिंचाई का साधन मिलने से राहत उन्हीं को मिलती है, फिर भी सरकार जानती है कि समर्थ किसानों पर ही देश की खुशहाली निर्भर है। इसलिए तकाबी लेने और कुँए खोदते देखकर उन्हें भी कम प्रसन्नता नहीं होती युग सन्धि में हिमालय की दिव्य शक्तियाँ जो अनुदान वितरण कर रही हैं वे कई प्रकार की है और उनकी गरिमा का स्तर भी क्रमशः अधिकाधिक बढ़ा-चढा हैं जो उन्हें प्राप्त करेगा । वह आत्म श्रेय और दैवी अनुदान का दुहरा लाभ प्राप्त करने वाला सौभाग्यशाली होगा ।


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