सत्यनिष्ठा के अनुकरणीय प्रसंग

July 1980

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अविचल सत्य निष्ठा-

एथेन्स में अमीर उपरावों की एक सभा चल रही थी । सभासद उस समय एथेन्स के ही एक नवयुवक द्वारा अमीर उमरावों की की जाने वाली आलोयना पर विचार कर रहे थे। समझा-बुझाकर , लालच प्रलोभन देकर या डरा ध्मका कर जैसे भी सम्भव हो उस युवक को आलोचना करने के लिए मनाने हेतु सभा में बुलाया गया । युवक सभा में उपस्थित हुआ । प्रधान ने कही,”तुम ही हो जो हम लोंगो पर चरित्रहीनता का दोष लगाते हो ?”

युवक ने कहा ,”हाँ मैं ही हूँ और अब भी आप सब लोगों से यह आग्रह करता हूँ कि आप लोगों को यह नहीं समझना चाहिए कि धनवान और सत्ता सम्पन्न होने का अर्थ छोटों के स्वत्व तथा शील का अपहरण करना होता है। युवक की इस निर्भीक वाणी को सुनकर झल्लाये परन्तु उन्हें मालूम था कि इस युवक के साथ काफी लोगों की सद्भावनाएँ हैं, इसलिए जहाँ तक हो सके इसे कोई हानि नहीं पहुँचाना चाहिए , यह सोचकर उन्होंने युवक को तरह-तरह के प्रलोभव दिये परन्तु वह किन्हीं भी प्रलोभनों के आगे नहीं झुका । अन्त में उसे दण्ड का भय दिखाया गया । युवक ने यही उत्तर दिया कि ‘मैं प्राण दे सकता हूँ किन्तु धमकियों के आगे झुक कर सत्य का परित्याग नहीं कर सकता । इतिहास साक्षी है कि इस युवक को जहर पिला कर मृत्यु दण्ड दिया गया , पर मरते समय भी उसके मुख मण्डल पर सत्य की आभा दीप्तिमान हो रही थी ।

संन्यासी का धर्म-

मैसूर के महाराजा चाराजेन्द्र बगडियार बहादुर स्वामी विवेकानन्द से बहुत प्रभावित हुए । उन्होंने स्वामी जी से आग्रह कर उन्हें अपने यहाँ रहने के लिए राजी कर लिया । स्वामी जी वेदान्त धर्म के प्रसार का कुछ काम करना चाहते थे । यहाँ काफी सुविधाएँ थी , सो वे खुशी-खुशी राज भवन में अतिथि बन कर ठहर गये । राज भवन उन दिनों कई विकृतियों और बुराइयों का घर बना हुआ था। स्वामी जी प्रायः महाराजा को इस सम्बन्ध में सचेत किया करते थे। नरेश को यह सब पसन्द नहीं था । एक दिन खीझकर उन्होनं स्वामी जी से कहा-’महाराज मैंने ही आपको आश्रय दिया और आप ही मेरी आलोचना करते हैं।’

स्वामी जी ने कहा -’जहाँ बुराई हो उसे बताना और दूर करने के लिए आवश्यक प्रयत्न करना मेरा धर्म है। यदि आप सुख सुविधाएँ देकर मुझ से अपना धर्म छोड़ देने की अपेक्षा रखते हैं तो मुझे नहीं चाहिए यह सब ।” और यह कह-कर उन्होंने अपना झोला उठाया तथा वहाँ से चल दिये ।

महाराज को अपनी भूल का ज्ञान हुआ । उन्होंने स्वामी जी से तुरन्त क्षमा माँगी और उन्हं रोक लिया । वाल सुलभ सरलता के धनी स्वामी जी रुक गये। स्वामी जी इस अविचल सत्यनिष्ठा और सहज सरलता को देखकर महाराज ने अपने दुर्व्यसन छोड़ ही दिये ।

हम क्यों भागें ?

आस्ट्रेलिया के एक जंगल में भंयकर आग लगी । आग इतनी भंयकर थी कि वह आस-पास के नगरों में भी फैलने लगी । इस आग से कई जाने गई लाखो रुपये की सम्पत्ति नष्ट हुई । इसी क्षेत्र में एक कारावास भी आता था । कारावास के कैदी यदि चाहते तो भाग सकते थें, पर नहीं भागे । उल्टे अपने प्राणों की बाजी लगाते हुद छत्तीस घण्टे आग बुझाते रहे । जेलर के पूछे जाने पर कैदियों ने कहा ,”महोदय! बन्धन किसे पसन्द होता है ? किन्तु कारावास भोगने की अवधि से पहले भाग कर नियम तोड़ना अच्छी बात नहीं लगी । न्यायालय ने हमें अपने पापों का प्रायष्चित करने के लिए अवसर दिया है तो हम उससे क्यों भागें ?


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