परावलम्बन, अमरबेल की तरह हेय

July 1980

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परावलम्बन हर दृष्टि से हानिकारक सिद्ध होता है। परावलम्बी व्यक्ति अथ्वा समाज दोनों ही घाटे में रहते हैं। श्रम से बचे रहने और दूसरों की कमाई पर जीवित रहने का तुरन्त का लाभ भले ही मिल जाय,होता अन्ततः दुःखदायी ही है। श्रम से जी चुराने वाले स्वयं के पैरों में कुल्हाडी़ तो मारते ही हैं, समाज को भी क्षति पहुँचाते हैं। पुरुषार्थ का अभाव जीवन्तता को समाप्त कर देता हैं और मनुष्य शरीरिक और मानसिक दृष्टि से कमजोर हो जाता हैं। परावलम्बी बने रहने से समाज में घृणा एवं तिरष्कार का पात्र बनता है, लाभ उसका नहीं होता । किन्हीं कारणों से आश्रय टूट जाने पर अथवा जिनसे सहयोग मिलता रहा , उनके मुँह फेर लेने से वह कहीं का नहीं रहता। पुरुषार्थ बनता नहीं और जो आधार था वह भी टूट गया । इस दोहरे आघात को वह सहन नहीं कर पाता और किसी प्रकार जीवन के दिन काटता है।

परावलम्बन से सामजिक घाटाप भी कम नहीं होता इस प्रकृति का अनुकरण अन्य वयक्ति भी करते हैं। फलस्वरुप पुरुषार्थ न करने , दूसरोँ के श्रम से लाभ उठाने की अनैतिक परम्परा-सी चल पड़ती है। श्रम की कीमत पर सफलताएँ अर्जित करने की प्रवृति से व्यक्ति एवं समाज नैतिक बने रह सकते हैं । परावलम्बन तो अनैतिकता को ही बढ़ावा देता है । दूसरों की कमाई को उड़ा लेने वाले चोर, उठाईगीर , जेबकट , डाकू समाज में कितनी अव्यवस्था फैलाते हैं , इससे सभी परिचित हैं। इस प्रकृति से सामाजिक ,नैतिक आधार भी टूटते जाते हैं । परावलम्बी व्यक्ति और समाज क्रमाशः अपनी जीवन्तता खोते जाते और अधःपतन के गर्त में गिर जाते हैं। व्यक्तिगत अथवा सामाजिक दोनों ही हस्तियों से परावलम्बन हानिकारक है।

प्रगति के दौड़ में पिछडा़ समाज अवगति-अभाव, दरिद्रता से घिरा व्यक्ति दोनों ही इस बात के प्रमाण हैं कि स्वावलम्ब का अभाव है तथा परावलम्बी तन्त्र विद्यमान हैं। यह स्थिति न भी हो - सम्पन्नता हो तो भी वह स्थायी नहीं हो सकती क्योंकि वह दूसरो की कृपा पर अवलम्बित होगी । जो किसी भी क्षण टूट सकती है। किसी प्रकार यह स्थिति बनी रहे तो भी परावलम्बी व्यक्ति के जीवन की कोई परिणति नहीं होती । उसका कोई लक्ष्य और आदर्श नहीं होता । खाने और जीवित रहने की पशुवत प्रवृति तक उसका जीवन सिमट कर रह जाता है। मानव जीवन की महान गरिमा को न तो वह समझ पाता और न ही श्रेष्ठ उद्देश्य की ओर कदम बढ़ा पाता । परावलम्बन के बने रहने एवं जीवित रहने के अवलम्बन को टूट जाने पर तो उल्टे उसकी स्थिति परोपजीवी लता ‘अमरबेल’ जैसी हो जाती हैं। जीवन-मरण का संकट उत्पन्न हो जाता है।

अमरबेल एक परजीवी लता होती है जो अपना भोजन पूर्णतया वृक्षों से प्राप्त करती है। खुराक के लिए वह स्वयं तो उपार्जन नहीं करती । वृक्षों पर चढ़ जाती तथा उनके संग्रहित जीवन तत्वों को अपने तन्तुओं के सहारे अवशोषित कर लेती हैं। जब तक पौधे में पोषक तत्व बने रहते हैं अमरबेल उनका शोषण कर अपना विस्तार करती जाती है । पोषक तत्वों की कमी पड़ जाने से पौधे मर जाते हैं। पौधे के मर जाने से जब आहार नहीं मिलता तो वह अपने ही तन्तुओं को चूसना आरम्भ कर देती और अन्ततः स्वयं भी सूख जाती है। अमरबेल को यदि आहार मिलता रहे तो उसमें आर्श्चयजनक रुप से वृद्धि होती है। वनस्पति होते हुए इसका स्वभाव आक्रमणकारी जीव-जन्तुओं जैसा होता है । जिस प्रकार कुत्ते , बिल्ली के बच्चे अपने शिकार पर झपटते हैं उसी प्रकार अमरबेल से फूटने वाला अंकुर भी जन्मते ही दूसरे पौधों की ओर दौड़ता है । एक प्रयोग में देखा गया कि अमरबेल से फूटने वाल अंकुर निकटवर्ती रखे पौधे को निकट से हटा देने पर फूटने वाला अंकुर मुरझा कर सूख गया ।

परावलम्बी व्यक्तियों की भी यही स्थिति होती है। शरीरगत आवश्यकताओं एवं साधनों को प्राप्त करने के लिए उनसे पुरुषार्थ तो बनता नहीं। दूसरों के परिश्रम की कमाई का लाभ उठाने की ताक-झाँक में रहते हैं। इसके लिए अनीति युक्त मार्ग अपनाना पडे़ तो भी नहीं चूकते । पराश्रय की यह प्रवृति उन्हें अनैतिक तो बनाती ही हैं । श्रम न करने से पुरुषार्थ घटता और आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है । ऐस व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से समर्थ होते हुए कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकने में असमर्थ ही हाते हैं। किसी प्रकार जीवन के दिन गिन-गिन कर पूरा करते हैं।

अमरबेल सम्पूर्ण संसार में पायी जाती है। इसकी लगभग 150 किस्में हैं। इनकी काट-छाँट एवं पेड़ों की सुरक्षा की व्यवस्था न की जाय तो समूचे पेड़ को ही आच्छादित कर लेती है। वनस्पति शास्त्र विशेषज्ञों ने तो अमरबेल की कई आर्श्चयजनक जातियों की खोज की है जिनकी प्रकृति चालाक एवं धूर्त मनुष्यों जैसी होती है । चोर , डाकू दूसरों के घरों में घुसकर उनकी सम्पति हड़प कर जाते हैं , आवश्यकता पड़ने पर हिंसा तक का सहारा लेते हैं। अमरबेल को तालाब आदि में घुसकर छोटे-पौधों की पोषक सामग्री चूसते हुए भी पाया गया है । अपहरण न कर पाने पर वह मर तो जाती है किन्तु भूमि से भोजन उपार्जित करने का प्रयत्न नहीं करती और परावलम्बी ही बनी रहती है।

वनस्पति जगत में इस प्रकार के कई पौधे पाये जाते हैं। चीन और अमेरिका में पायी जाने वाली ‘एन्डोथिया पैरासिटिका “ नामक फफूँदी भी इसी तरह की होती है । वह ‘चेस्ट नट’ नामक पौधे पर जीवित रहती और उसे ही खा जाती है। पौधे के नष्ट होते ही वह भी मर जाती है।

इस दुष्ट प्रकृति के कारण न तो काई इन्हें गले लगाता है और न ही आश्रय देता है। उल्टे यह पता लग जाने पर कि वृक्षों-पौधों के निकट अमरबेल उग आयी है, उसे उखाड़कर फेंक दियसा जाता है। कोई भी उन्हें पौधों के निकट आने नहीं देता परावलम्बी व्यक्ति भी उसी प्रकार तिरष्कृत होता । अन्ततः वह घाटे में ही रहता है। परावलम्बन से तुरन्त का लाभ तो यह होता है कि श्रम नहीं करना पड़ता और दूसरों की संचित कमाई से लाभ उठाने का अवसर मिल जाता है, पर यसह स्थिति स्थायी और अधिक दिनों तकनहीं रहती । परावलम्बी जीवित तो रहते हैं, पर मृत्यु तुल्य ही । परिवार एवं समाज दोनाँ ही स्थानों पर उपेक्षा होती एवं विरष्कार का भाजन होना पड़ता है।

इस प्रवृति के रहते न तो व्यक्ति प्रगति कर सकता है और न ही समाज । यह आश्रयदाता को अवनति एवं पतन के द्वार पर पहुँचा देती हैं। परावलम्बी वयक्ति अथवा समाज अधिक दिनों तक अस्तित्व नहीं बनाये रख सकते और समाप्त हो जाते हैं। परावलम्बन जहाँ भी होगा अभाव , दरिद्रता ,रोग एवं शोक को साथ लेकर प्रकट होगा , व्यक्ति एवं समाज को जर्जर एवं सामर्थ्य विहीन बनायेगा । इस प्रवृति का हर तरह से बहिष्कार करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए ।


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