अनुदानों का ग्रहण अभ्यास

July 1980

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(1) प्राण ऊर्जा स्फूर्ति, समर्थता साहसिकता, जीवट जैसे शब्दों से प्राण ऊर्जा, कुण्डलिनी शक्ति का परिचय कराया जाता है। यह सभ विशेषताएँ काय-कलेवर में सन्निहित रहती हैं। इसलिए इन्हें प्राण सामर्थ्य कहा जाता है। क्रियाशीलता , तत्परता, कर्मनिष्ठा इसी सामर्थ्य की पिरणिति मानी जाती है। सर्त्कम इसी के सहारे बन पड़ते है । इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्राण संचार प्रक्रिया है। इसे कुण्डलिनी जागरण का प्रथम सोपान समझा जा सकता हैं जिन्हें यह क्षेत्र अभीष्ट हो उन्हें प्राण प्रवाह के वितरण का लाभ लेना चाहिए।

(2) ज्योति अवतरण का तार्त्पय है-तृतीय नेत्र उन्मीलन दूरदर्शिता , विवेकशीलता का जागरण । ज्योति का अर्थ अध्यात्म क्षेत्र में सद्ज्ञान के लिए होता है। आत्म-बोध-एवं आत्म ज्ञान, ब्रह्मज्ञान की उपलब्धि के लिए ज्योति अवतरण की साधना की जाती हैं । तपों के सहारे अन्धकार में भटकने की व्यथा से मुक्ति मिलती है और माया की ग्रन्थि खुलती है। आज्ञाचक्र को दिव्य दर्शन का केन्द्र संस्थान माना गया है। शिव और दुर्गा की छवियों में तीन नेत्र हैं। दो सामान्य तीसरा भृकुटि स्थान पर दिव्य नेत्र । इसे गीता में दिव्य चक्षु कहा गया है और इसके सहारे विराट् ब्रह्म का दर्शन सम्भव बताया गया है। दिव्य दर्शन, दिव्य श्रवण भविष्य ज्ञान, दूसरों को प्रभावित करने जेसी अनेक सिद्धियों का संस्थान इसी को माना गया हैं। प्रतिभा एवं प्रखरता यहाँ से उभरती है। यह सूक्ष्म शरीर का कार्य-क्षेत्र है जिन्हें इस क्षेत्र की उपलब्धियाँ अभीष्ट हों उनके लिए ज्योति अवतरण के प्रवाह से सर्म्पक साधना चाहिए ।

(3) रसानुभुति का तार्त्पय है आत्मा और परमात्मा के मिलने से मिलने वाली सरसता का रसास्वादन । ऋण और धन विद्युत प्रवाहों की तरह आत्मा और परमात्मा की सत्ताएँ हैं। जब भी दोनों का मिलन होगा, उमंग भीर फुलझडियाँ उडे़गी। बिजली के दो तार मिलने पर चिनगारियाँ उठती है। ओर करेन्ट चल पड़ता है। अध्यात्म क्षेत्र की फुलझडियाँ हैं- तुष्टि, तृप्ति, शान्ति । जिन्हे उत्साह सन्तोष आनन्द आदि के रुप में अनुभव किया जाता है।

चिन्तन में उत्कृष्टता और चरित्र में आदर्शवादिता की मात्रा देखकर ही यह अनुमान लगाया जाता है कि किसे ईश्वर की कितनी समीपता प्राप्त हुई और कौन कितनी रसानुभूति कर रहा है। अमृतत्व इसी प्रकार की भाव सम्वेदना को कहा गया है। इस स्थिति में एक विशेष प्रकार का आवेश छाया रहता है। जिसमे उच्च स्तरीय निर्णय,साहस एवं प्रयास करने में तनिक भी कठिनाई का अनुभव नहीं होता । परिष्कृत दृष्टिकोण ही र्स्वग है। क्षुद्र समुदाय का लोक प्रवाह ही बन्धन है। उससे छुटकारा पाने और यथार्थतावादी अबलम्बन अपना सकने की साहसिकता का नाम मुक्ति है । इन्हीं दोनों को परम पुरुषार्थ एवं पूर्णता का प्रतिफल कहते है। यह चेतना का “कारण” क्षेत्र है । इसमें भाव सम्वेदनाएँ ही प्रधान रहती है । ‘भक्ति यही है। इस क्षेत्र का व्यक्ति योगी, यदि ऋषि, देवात्मा जैसी स्थिति तक जा पहुँचता है।

इसी उच्चस्तरीय भूमिका को लक्ष्य मानने वाले आरम्भिक छोटे चरण उठाने की सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए रसानुभूति स्तर के वितरण से लाभान्वित हो सकते हैं। इस ध्यानों में से जिसे भी करना हो पन्द्रह मिनट से आरम्भ करना चाहिए । सप्ताह में एक मिनट बढ़ाते हुए आधा घण्टे तक पहुँचाना चाहिए ।

जिस प्रकार सरस्वती, लक्ष्मी, काली के तीन बीज ह्नी, श्री , क्लीं का उपयोग गायत्री मन्त्र के साथ करते हुए बुद्धि समृद्धि और सामर्थ्य की आराधना करते हैं, उसी प्रकार उपरोक्त तीनों वितरणों में से अपनी स्थिति और आवश्यकता को देखते हुए कोई भी साधनाक्रम अपनाया जा सकता है, पर जा अपनायाजाय उसे जल्दी-जल्दी बदला न जाय । उतावले लोग चंचल मनःस्थिति में बार-बार अपना साधना क्रम बदलते हैं फलतः अपने श्रम को निरर्थक करते हुए संकल्प शक्ति को दुर्बल करते रहते हैं। अच्छा हो निर्धारण के समय शान्ति-कुँज हरिद्वार से परामर्श कर लिया जाय। जो इसकी आवश्कता समझे वे हर वर्ष गायत्री जयन्ती या बसन्त पर्व पर वर्ष में एकबार अपनी प्रगति का लेखा-जोखा भी भेज दिया करें । स्मरण रहे इस सर्न्दभ में परामर्श या उत्तर प्राप्त करने के लिए जबावी पत्र भेजना अनिवार्य रुप से आवश्यक है।

साधनाओं का उपक्रम इस प्रकार है । ध्यान अवधि में इन्हीं भावनाओं में निमग्न रहा जाय क्रम पहले से ही याद कर लिया जाय ।

(1) प्राण संचरण ( कुण्डलिनी स्फुरण )

-हिमालय के मध्यवर्ती अध्यात्म श्रव केन्द्र से उमड़ता दिव्य प्राण प्रवाह।

-शुभ्र चमकीले बादल जैसा। प्रवाह साधक की ओर । पहुँचना साधक तक ।

साधक ब्रह्मरंध्र द्वारा प्राण प्रवाह का स्वागत, आकर्षण, अभिनन्दन, ग्रहण, अवधारण, मस्तिष्क मध्य के सहस्त्रार चक्र में ।

सहस्त्रार मस्तिष्क मध्य, मूलाधार मल-मूल छिद्रो का मध्य ।

-सहस्त्रार से मूलाधार तक, मूलाधार से सहस्त्रार तक, सहस्त्रार से मूलाधार तक , मूलाधार से सहस्त्रार तक प्राण ऊर्जा का मंथन, मेरुदण्ड मार्ग, मंथन-मंथन-मंथन

-मंथन से प्राण ऊर्जा की उत्पत्ति, अग्नि शिखा की जागृति, कुण्डलिनी में स्फूर्ति।

-कण-कण में प्राण विद्युत, नस-नस में प्राण विद्युत, नस-नस में प्राण विद्युत, रोम-रोम में प्राण विद्युत कुण्डलिनी ।

-साधक पा्रण पुँज-अगिन पिण्ड, प्राणवान, ओजवान।

ॐ कार का पाँच बार गुँजन शंखनाद वत्।

ॐ तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मासद्गमय,मृत्योममृतंगमय

-तीन बार । तमसो मा, तमसो मा, तमसो मा। ज्योतिर्गमय, ज्योतिर्गमय, ज्योतिर्गमय। शाँति समाप्ति।

(2) ज्योति अवतरण दिव्य दृष्टि जागरण

- हिमालय के अध्यात्म धु्रव केन्द्र में स्वर्णिम सूर्यादय।

- ज्योति किरणों का प्रसारण, पहुँच साधक तक ।

- नमन-वन्दन-ग्रहण। आज्ञा-चक्र में। आज्ञा-चक्र भृकुटि केन्द्र, प्रवेश दिव्य-ज्योति का आज्ञाचक्र में, दिव्य ज्योति प्रज्ञा ।

- कण-कण में ज्योंति, नस-नस में ज्योति, रोम-रोम में ज्योंति, साधक ज्योति वान, तेजवान, प्रज्ञावान।

रक्त ज्योतिवान्, माँस ज्योतिवान्, अस्थि ज्योतिवान्, स्थूल शरीर ज्योतिवान्।

- मन ज्यातिवान, बुद्धि ज्योतिवान, चित्त ज्योतिवान, सूक्ष्म शरीर ज्योतिवान्।

अर्न्तजगत ज्योतिवान, अन्तःकरण जयोतिवान, अन्तरात्मा ज्योतिवान, कारण शरीर ज्योतिवान ।

- स्थूल शरीर जयोतिवान, सूक्ष्म शरीर ज्योतिवान , कारण शरीर ज्योतिवान ।

साधक ज्योति पिण्ड, तेज पुँज प्रज्ञा पुँज ।

ॐ कार का पाँच बार गुँजन शंखनाद बत्।

ॐ तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा-सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय, तीन बार ।

- तमसो माँ , तमसो मा, तमसो मा ज्योतिर्गमय, ज्योतिर्गमय, ज्योतिर्गमय शान्ति समाप्ति।

(3) रसवर्षण ( प्रभु मिलन )

- हिमालय के अध्यात्म धु्रव केन्द्र से अमृत उफान-दूध झाग जैसा ।

- रस सिन्धु की हिलोरें-साधक तक ।

नमन वन्दन ग्रहण, ह्नदय केन्द्र में प्रवेश भाव श्रद्धा का ।

- अमृत वर्षा घन-घोर अमृत वर्षा, साधक रस विभोर, आनन्द से सरावोर ।

- कण-कण में अमृत, नस-नस में अमृत, रोम-रोम में अमृत।

- समर्पण साधक का-परब्रह्म को विलय-विसर्जन, एकत्व, अद्वेत, भक्त भगवान एक ।

पय पान, सोम पान , अमृत पान ।

- परिवर्तन - तमसा का ऊषा में, कामना का भावना में जड़ता का चेतना में, श्रुद्रता का महानता में , आत्मा का परमात्मा में ।

- तृप्ति-तुष्टि-शान्ति।

- साधक की अनुभूति सत्-चित् आनन्द, आत्म दर्शन, ब्रह्म-दर्शन ।

- ॐ कार गुँजन पाँच बार शंखनादवत्।

ॐ तमसो मा ज्योतिर्गमय, असता मा सद्गमय, मृत्योममृतंगमय । तीन बार ।

तमसो मा, तमसो मा , तमसो मा, ज्योतिर्गमय, ज्योतिर्गमय, ज्योतिर्गमय शान्ति सामाप्ति ।

यह तीनो ही धाराणाएँ अभ्यास में अति सरल एवं सर्वथा हानि रहित हैं। इन्हे बाल-बृद्ध, नर-नारी, रुगण स्वस्थ कोई भी कर सकते है। सथासम्भव शरीर और वस्त्रों की शुद्धि करके ही बैठना चाहिए । व्यक्तिगत उपासना में उतर मुख बैठने का प्रयत्न किया जाय । किन्तु सामूहिक साधना में वैसा प्रतिबन्ध नहीं है। वहाँ बैठने की सुविधा को ही प्रधानता देनी चाहिए ।

गायत्री जयन्ती के उपरान्त सभी जागृत आत्माएँ बिना किसी धर्म सम्प्रदाय का भेद-भाव किये उस उपक्र को अपना सकती है। गायत्री उपासना का न्यूनाधिक क्रम चलता रहे तो इसका लाभ विशेष मिलता है। न करने पर भी हानि या रुकावट कुछ नहीं है गायत्री परिवार के सभी परिजन इस उपक्रम का आरम्भ तत्काल कर दें। जहाँ सामूहिक या मासिक रुप से इसे चलाया जा सकता है । इस अनुदान का लाभ अपने ग्रहण शक्ति के अनुरुप न्यूनाधिक मात्रा में हर कोई उठा सकता है। इसलिए उसका प्रसार प्रशिक्षण करने में काई हर्ज नहीं है ध्यानकर्ता अपना नामाँकन शान्ति-कुँज में करालें और समय-समय पर अपने अनुभवों का उल्लेख करते हुए परामर्श प्राप्त करते रहना चाहें तो अधिक मात्रा में अधिक उच्चस्तर का उपयुक्त अनुदान मिलने की अधिक सम्भावना रहेगी ।


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