जन्म लेना एक अलग बात है और जीवन जीना उससे बहुत ही भिन्न तथा विशिष्ट बात है। मनुष्य या पशु-किसी भी प्राणी का बच्चा जन्म लेता है तो जन्म से ही उसे अपना ध्यान आता है। भूख लगती है तो रोता चिचियाता है, बीमार पड़ता है तो उदास हो जाता है और सोने की इच्छा होती है तो उचित स्थान के लिए ठनकने भटकने लगता है। अबोध स्थिति में ये सारी आवश्यकतायें अभिभावक पूरी करते हैं। थोड़ी समय बढ़ती है, मनुष्य बड़ा होता है तो स्वयं अपनी आवश्यकतायें पूरा करने लगता है।
इस स्थिति तक ही सीमित रहने का नाम जीव नहीं है। कहना ही हो तो यों कहा जा सकता है कि वह जन्म के बाद थोड़ा समझदार हो गया है तथा अपनी आवश्यकताएं किसी सीमा तक पूरी करने में स्वयं समर्थ हो सका है। किसी सीमा तक इसलिए कि कोई भी मनुष्य अपने उपयोग की समस्त वस्तुओं को अकेले जुटाने, बनाने में सफल नहीं हो सकता है। उनका मूल्य रुपयों में चुकाने की बात कही जाय तो यह भी कहा जा सकता है कि रुपये अथवा सिक्के का अपने आप में कोई मूल्य नहीं है। वह सहयोग के आदान-प्रदान की एक व्यावहारिक व्यवस्था भर है। अन्यथा दूसरे व्यक्ति श्रम न करें, जीवनोपयोगी वस्तुओं का निर्माण बन्द हो जाय, आवश्यक वस्तुओं का अभाव हो जाय तो सिक्का बस सिक्का ही रह जायगा।
इस आदान-प्रदान के-क्रय-विक्रय के अतिरिक्त भी मनुष्य पर समाज के अन्य और कितने ही उपकार हैं।उनसे उऋण होना जीवन और मानवता का तकाजा है। लेकिन मनुष्य की चिन्तायें और उसकी गतिविधियाँ स्वार्थ की उस परिधि से किंचित भी बाहर नहीं जाती जिनमें कि वह जन्म के समय व्यस्त रहता है। इसीलिए संकीर्ण स्वार्थ को घृणित, असामाजिक, अमानवीयता कहा जाता है। जीवन का अर्थ खोजते हुए फ्रेंच के प्रसिद्ध, कवि राडल फेलेरो ने वर्तमान समस्याओं के कारण को उद्घाटित करते हुए कहा है -गड़बड़ क्या है सबसे पहले मैं खुद ही गड़-बड़ हूँ। क्योंकि मैं स्वार्थ हूँ, मनुष्य में मेरा विश्वास नहीं और समाज के प्रति मेरी आस्थायें दरिद्र हैं।
स्वार्थ की परिधि से थोड़ा भी बाहर निकल कर झाँका जाय तो प्रतीत होगा कि वह समय और वह सामर्थ्य जो हमें अपने लिए ही अपर्याप्त लगती है, दूसरे के लिए कितनी सहायक सिद्ध हो सकती है। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को एक बड़ा-सा बँगला भी अपर्याप्त लगता है, क्योंकि उसके चारों ओर फूल-पौधे लगाने के लिए खाली जमीन नहीं है। परन्तु कितने ही व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हें सर छुपाने के लिए टूटी झोपड़ी तक नहीं मिलती। कोई व्यक्ति इसीलिए व्यथित है कि उसके बच्चे को सुबह नाश्ते में मक्खन और स्लाइड नहीं मिल सका क्योंकि बाजार बन्द था। इसी कारण पूरी समाज व्यवस्था भ्रष्ट और काहिल लगती है; किन्तु दुनिया में 40 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो भूख के कारण अपना जीवन मौत की झोली में डालने के लिए अब तब करा रहे हैं उनकी व्यथा किसी को नहीं सालती, न उधर ध्यान देना ही उचित और आवश्यक प्रतीत होता है-
इस तरह की तमाम प्रवृत्तियाँ मनुष्य की आत्म केन्द्रित स्वार्थ परायणता का परिचय देती है और यह मानने के लिए माध्य करती है कि कितना ही जीवित दिखाई देने के बाद भी मनुष्य जन्म भर ले सका है, जीवन को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सका है कवि फोलेरो ने अपनी एक कविता में लिखा है- जिसके भाव कुछ इस प्रकार हैं-”दुनिया में चालीस करोड़ बच्चे भूखे हैं। आपका बच्चा क्यों नहीं? आपके बच्चे को क्या खाना, कपड़ा और मकान प्राप्त है? आपके बच्चे को ही क्यों? दूसरे के बच्चे को क्यों नहीं? श्रीमती जी, कभी आपने सोचा है इस पर? एक तिहाई मनुष्यों को भरपेट भोजन नहीं मिलता। दुनिया में अस्सी करोड़ आदमियों ने डाक्टर की शक्ल तक नहीं देखी। दुनिया में एक अरब से अधिक आदमी पढ़ नहीं पाते।’
सचमुच इन बातों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता और जाता भी है तो केवल चर्चा करने, क्लब या होटलों में बैठ कर बात-चीत शुरू करने का कोई सूत्र ढूंढ़ने अथवा अपने सामान्य ज्ञान की छाप दूसरों पर छोड़ने के लिए ही। इन मानवीय समस्याओं को भी लोग अपने अहं की तुष्टि अथवा तात्कालिक लाभ के लिए प्रयुक्त करते हैं, समय काटे नहीं कट रहा है, मित्र से बातचीत के सारे विषय समाप्त हो चुके हैं तब बातचीत जारी रखने के लिए क्या किया जाये? खाली बैठना भी अच्छा नहीं लगता तो आदमी इन समस्याओं पर बातचीत शुरू कर देता है। इससे बढ़कर स्वार्थपरता और क्या होगी? जन्म के बाद मनुष्य जीवन नहीं जीता बल्कि उसका स्वार्थ और गहरा हो जाता है तथा वह उसे और अधिक चतुराई व निर्भयता से पूरा करना सीख जाता है।
माननीय समस्यायें है, उनके समाधान के लिए कुछ करना चाहिए, यहाँ तक तो सभी कोई स्वीकार करते हैं। परन्तु क्या करना चाहिए और क्यों नहीं करते हैं का प्रश्न आता है तो उत्तर में सब मौन हो जाते हैं। अधिक ही कोई नैतिक या सामूहिक दायित्वों का दबाव पड़ा तो लोक यह कहते हुए पल्ला झाड़ कर अलग खड़े हो जाते हैं कि - हम कर ही क्या सकते हैं? भूख; अशिक्षा, रोग, अभाव, दैत्य और ऐसी ही समस्यायें इतनी व्यापक हैं कि हमारे अकेले के प्रयास जलते हुए तवे पर पानी की बूँद के समान होंगे।
यह उत्तर भी मानवी समस्याओं को सुलझाने के लिए कुछ करने से कन्नी काट जाने के लिए दिया जाता है। प्रश्न किया जाना चाहिए अपने आप से कि आपके प्रयास जलते तवे पर पानी की बूँद छिड़कने जैसे हो सकते हैं, हो सकता है उनके बड़े परिणाम भी हों, किन्तु उन प्रयासों की दिशा में अभी तक आपने थोड़ा बहुत कुछ किया है। जलते हुए मकान को बुझाने के लिए लोग बाल्टियाँ लेकर दौड़ पड़ते हैं। एक बाल्टी पानी से कोई मकान की आग नहीं बुझ जाती। फिर भी प्रयत्न तो किया ही जाता है और दूर देहातों में जहाँ आधुनिकतम अग्निशामक यन्त्र उपलब्ध नहीं है लोग बाल्टियों से ही आग पर काबू पा लेते है। दीपक इन्कार कर दे कि सारी पृथ्वी में अन्धेरा है मैं अन्धकार को हटाने में अकेला दीप उसके लिए क्या कर सकता हूँ। दीपक ने आज तक तो यह बहाना नहीं बनाया और वह अकेला ही अन्धकार से जूझने के लिए सन्नद्ध खड़ा है। वस्तुतः “हम क्या कर सकते है?” का प्रश्न ही इस बात का प्रतीत है कि कुछ करने की उमंग नहीं है और कायरता की वह निर्लज्ज स्वीकृति इस प्रश्न के रूप में उभर कर सामने आयी है।
इस आत्यन्तिक स्वार्थपरायणता के अलावा मनुष्य के जीवन से वंचित रहने का एक दूसरे का कारण यह है मनुष्य के प्रति विश्वास और सद्भावों का अभाव मनुष्य अपने ही समान पड़ौसी को मनुष्य के रूप में देखने से पहले उसे कुल, बिरादरी और संप्रदाय के हिस्सों में देखता है तब इसके बाद कहीं मनुष्य के रूप में स्वीकार कर सका, तो करेगा। इस प्रवृत्ति को संकीर्णता नहीं तो और क्या कहा जायगा। धर्म, जाति, कुल और संप्रदाय के कारण ही मनुष्य दूसरे मनुष्य से घृणा करने लगता है। अपने परिवार में अपना कोई बन्धु-बान्धव रोगी या बीमार पड़ता है तो उसके स्वास्थ्य की थोड़ी चिन्ता होती है और उसकी चिकित्सा-परिचर्या की व्यवस्था की जाती है। उस समय मन में रहने वाली चिन्ता और रुग्ण स्वजन की स्वास्थ्य कामना की तुलना स्वयं अपने स्वास्थ्य की कामना से की जाय तो विदित होगा कि वहाँ भी अपनी ही चिन्ता ज्यादा होती है। स्वयं बीमार हो जाने पर व्यक्ति स्वस्थ होने के लिए जितना आतुर होता है उतना किसी बन्धु-बान्धव के बीमार होने पर नहीं होता। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डा. जानबोरहम का तो यहाँ तक कहना है कि -स्वजनों के अस्वस्थ होने से दुःखी नहीं होता व्यक्ति उनके रोग के कारण व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में होने वाला अशान्ति से स्वयं प्रभावित होने के कारण उसके उपचार का व्यग्रता से प्रबन्ध करता है।”
डा. जान बोरहम का यह भी कहना है कि - “मातायें रात में अपने बच्चों को गीले से उठा कर सूखे में सुलाने का प्रयत्न ममता की अपेक्षा अपनी सुविधा के लिए ज्यादा करती हैं। क्योंकि उन्हें लगता है बच्चा यदि गीले में सोता रहा तो रो-रो कर उसकी भी नींद हराम कर देगा।” कहा नहीं जा सकता कि इन दोनों मनोवैज्ञानिकों के कथन कहाँ तक सत्य है; परन्तु व्यक्ति के सम्बन्धों पर निर्भर व्यवहार को देखते हुए इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि वह दूसरों के लिए हितकामना से कम स्वार्थ की भावना से अधिक चिन्तित रहता है। पड़ोसी के बीमार पड़ने पर कितनी चिन्ता होती है, दूर स्थित रिश्तेदार के बीमार पड़ने पर कितना दुख होता है और किसी अपरिचित व्यक्ति को दुर्घटना का शिकार होते देख कर कोई कितना परेशान होता है। आदि स्थितियों में मानवीय करुणा, सहृदयता तथा सद्भावना की अच्छी परख हो जाती है।
एक ही स्थान पर मित्र की भाँति रहने वाले लोग सम्प्रदाय और मजहब के नाम पर कितने भयंकर शत्रु हो जाते हैं - इसके प्रसंग, आये दिनों होने वाले साँप्रदायिक दंगों में देखे जा सकते है। स्वतंत्रता मिलने के तुरन्त बाद जब देख विभाजन हुआ भारत दो टुकड़ों में बँटा तो व्यापार में भागीदार लोग भी एक दूसरे खून के प्यासे हो गये। यह किसी धर्म संप्रदाय में नहीं है कि अपने विधर्मी की हत्या करो, मतभेद रखने वाले को किसी कीमत पर सहन मत करो। परन्तु मनुष्य हृदय में बसने वाली क्षुद्रता और संकीर्णता अपने धर्म सम्प्रदाय के सिद्धान्तों की भी सुविधानुसार व्याख्या कर लेती है।
इसीलिए तो कहा गया है कि जन्म लेने के बाद भी मनुष्य, जीवन को प्राप्त नहीं कर पाता। वह जन्मते ही स्वार्थ सीखता है और ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है त्यों-त्यों स्वार्थ की भाषा में अधिक पारंगत होता जाता है संकीर्णता की परिधि में और अधिक और अधिक सिकुड़ता जाता है। जन्म लेने के बाद मनुष्य किस प्रकार जीवन को प्राप्त करे यह जानने से पहले आवश्यक होगा कि जीवन का अर्थ समझ लिया जाय।
सृष्टि जगत में व्याप्त अन्तःचेतना का एक विश्राम जीवन है। यह ये जीवन है एक पड़ाव जो जन्म से मृत्यु के बीच इस काय कलेवर में डाला जाता है। किसी भी स्थान पर नियत अवधि के लिए ठहरते समय व्यक्ति अपने सारे सम्बन्धों को उस तंग कोठरी तक ही सीमित नहीं कर लेता बल्कि उसके लिए सारे सम्बन्ध जीवित रहते हैं और दूर रहते हुए भी वह उन्हें निभाने की चेष्टा करता है। जीवन चूँकि आत्मचेतना का शरीर वास है और और आत्म चेतना उसी विराट् चेतना का एक अंश है जो समूची सृष्टि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। अतः उसे शरीर की तंग कोठरी तक ही सीमित कर देना जीवन को खो देने, उसकी हत्या कर देने जैसा होगा।
जीवन की व्याख्या एक ही शब्द में करना चाहें तो वह शब्द होगा ‘प्रेम’। प्रेम के चाहे जितने अर्थ किये जाये परन्तु भारतीय मनीषियों ने विश्वव्यापी विराट् चेतना को अंगीकार करने के भाव को ही प्रेम कहकर सम्बोधित किया है। सद्यः प्रसूत शिशु अबोध और असमर्थ होने के कारण केवल अपनी ही क्षुधा पहचान सके, अपना ही कष्ट अनुभव कर सके तो यह अस्वाभाविक नहीं है। परन्तु जैसे-जैसे वय विकसित होती जाती है उसका अपना आपा भी विस्तृत होता चलना चाहिए और धीरे-धीरे उसे अपना कुटुम्ब, समाज, देश और विश्व के साथ अपने सम्बन्ध विकसित व प्रगाढ़ करना चाहिए। यह ठीक है कि मनुष्य की सामर्थ्य बहुत कम है और उसका अस्तित्व बहुत क्षुद्र। सर्व व्यापी अन्धकार की तुलना में दीपक भी बहुत असमर्थ और क्षुद्र है। परन्तु वह शक्ति भर अन्धकार से जूझने का प्रयास करता है और ऐसे हजारों दीपक व्यापक क्षेत्र में फैले हुए अन्धकार को हटाने में समर्थ हो जाते है। यह सोच कर निराश न हों और न ही अपने माननीय दायित्वों से पलायन करें कि - हम क्या कर सकते हैं। बल्कि अपनी पूरी सामर्थ्य को दाव पर लगा कर आसन्न चुनौतियों का प्रस्तुत संकटों का उत्पन्न मानवीय समस्याओं का समाधान करने के लिए उठ खड़े हों तो जीवन अभी और यहीं उपलब्ध है।