पं. दीनदयाल उपाध्याय अपनी विदेश यात्रा के दौरान इंग्लैंड गये। उन्हें इंग्लैंड के पार्लियामेंट हाउस दिखाने का भार वहाँ के हाउस आफ कामन्स के तात्कालिक सदस्य श्री सोरेनसन को सौंपा गया था। सोरेनसन उस समय 30 वर्ष की आयु पार चुके थे फिर भी, चुश्ती में वे किसी नौजवान से कम न थे। अपनी व्यंग-पटुता के लिए तो वे हाउस आफ कामन्स में प्रसिद्ध थे। दीनदयाल जी को जब उन्होंने देखा तो वे बड़े आश्चर्यचकित हुए। लन्दन की इस कड़कड़ाती ठण्ड में भी वे धोती और बन्द गले का कोट भर पहने हुए थे। इनकी दुर्बल काया और कद-काठी को देखते हुए तो यह और भी आवश्यक था कि वे विलायती ढंग के कपड़े पहन कर सर्दी से बचाव करने का प्रयास करते।
प.उपाध्याय जी की ऊँची धोती को देखकर श्री सोरेनसन ने मीठी चुटकी ली”आप महात्मा गाँधी बनने की कोशिश कर रहे है।” वे समझ गये कि मेरी धोती का मजाक उड़ाया जा रहा है। वे बोले ‘कोशिश तो कर रहा हूँ पर उनसा बनना मुश्किल लग रहा है।’ “अब तक कितनी सफलता मिली?” सोरेनसन ने पूछा। उपाध्याय जी बोले “केवल आधी।” सोरेनसन का अगला प्रश्न था। “आँधी क्यों?” उपाध्याय जी ने उनकी पहली चुटकी का उत्तर देते हुए कहा-”आप देख ही रहे है, नीचे से ही तो गाँधी जी का अनुकरण कर पाया हूँ ऊपर तो नहीं चाहत हुए भी लन्दन के मौसम ने कोट पहनने पर विवश कर दिया है।” श्री सोरेनसन समझ गए कि सादगी और सज्जनता ही श्रेष्ठता की द्योतक है। ऊपरी पहनावा नहीं।