अवाँछनीय अभिवृद्धि के दुष्परिणाम

June 1979

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अभिवृद्धि की कामना सभी करते हैं और विस्तार को प्रगति एवं सफलता का चिह्न माना जाता है। इतने पर भी यह ध्यान रखने योग्य है कि अभिवर्धन स्वस्थ और सन्तुलित होना चाहिए। अन्यथा अनावश्यक फैलाव कई बार उलटी समस्या बन जाता है।

शरीर में चर्बी बढ़ जाने से जो स्थूलता आती है। वह आंखों को भले ही यह सम्पन्नता का चिह्न लगे और मोटा व्यक्ति भले ही अपनी समृद्धि की शेखी बघारे पर वस्तुतः यह बढ़ा हुआ भार हर दृष्टि से असुविधा ही उत्पन्न करता है। सूजन आने से किसी अंग की स्थूलता बढ़ सकती है, पर उससे किसी को कोई सुविधा या प्रसन्नता नहीं हो सकती।

सुविधा साधनों की बढ़ोतरी के लिए मची हुई आतुर भगदड़ के फलस्वरूप सम्पन्नता बढ़ी है, पर इससे यह नहीं कहा जा सकता कि इससे स्वस्थ विकास का कोई उपयोग आधार खड़ा हो रहा है। प्रगति एवं समृद्धि की प्रशंसा तभी की जा सकती है, जब वह सही साधनों से उपलब्ध हुई हो और उसका उपयोग किन्हीं श्रेष्ठ प्रयोजनों के लिए किया जाता हो। इसके विपरीत यदि अवांछनीय तरीकों से वृद्धि हुई है और बढ़ोतरी का उपयोग अनुपयुक्त प्रयोजनों के लिए किया जाता है तो निश्चय ही इस उन्नति की तुलना में यह सामान्य स्थिति ही अच्छी थी जिसमें असन्तुलन उत्पन्न होने की आशंका तो नहीं थी।

उदाहरणार्थ अपने समय में औसत मनुष्य के बढ़ते हुए मस्तिष्कीय भार को लिया जा सकता है। मस्तिष्क पर चिन्ताओं का भार बढ़ने की बात यहाँ नहीं कही जा रही है वरन् उस तथ्य का उल्लेख किया जा रहा है जिसके अनुसार खोपड़ी के भीतर भरे हुए पदार्थ के भार और विस्तार दोनों में ही बढ़ोतरी हो रही है और उस अभिवृद्धि के कारण लाभ नहीं हो रहा वरन् उल्टा घाटा सहना पड़ रहा है। यह वृद्धि वैसी ही है जैसी कुसंस्कारों की, उसकी बढ़ी हुई सम्पदा दुष्ट दुर्गुणों को बढ़ाने का निमित्त बनती है। हाल ही में ब्रिटिश चिकित्सकों ने परीक्षण कर यह निष्कर्ष निकाला है कि मानव मस्तिष्क का भार निरन्तर बढ़ रहा है। लन्दन इन्स्टीट्यूट ऑफ सायकिल्ट्री के प्रोफेसर कोर्सेलिस एवं डा. एच.मिलर ने अपनी प्रामाणित शोध द्वारा यह सिद्ध किया है कि मानवी मस्तिष्क की क्षमता का निरन्तर ह्रास हो रहा है व उसी अनुपात में उसका वजन भी बढ़ता जा रहा है।

लन्दन के अस्पतालों में मरने वाले 20 वर्ष से 60 वर्ष तक की आयु के 397 स्त्री पुरुषों के शवों की परीक्षा करके उनने पाया कि सन् 1940 से 60 के मध्य एक पुरुष के मस्तिष्क का औसत भार 1372 ग्राम से बढ़कर 1424 ग्राम हो गया। इसी अवधि में एक महिला के मस्तिष्क का भार 1242 ग्राम से बढ़कर 1264 ग्राम हो गया। इसी अनुपात में स्नायु रोगों की संख्या एवं आत्महत्या करने वालों की तादाद भी बढ़ी है। अमेरिका में प्रति वर्ष 50000 व्यक्ति आत्महत्या कर लेते हैं। भारत में भी आत्महत्या हेतु प्रेरित लोगों की संख्या कम नहीं है।

इन वैज्ञानिकों के अनुसार भार एवं आयतन का सीधा सम्बन्ध है। मस्तिष्क के भार के अनुपात में आयतन भी बढ़ा है, एवं इसी वजह से स्नायुरोगों का आधिक्य हुआ है।

ऐसा लगता है, भौतिक सुखों की तलाश में मनुष्य के मस्तिष्क पर अधिक बोझ आ गया है। बीसवीं शताब्दी के इस अभिशाप को हम मानसिक अशान्ति एवं रोगियों की बढ़ती संख्या के रूप में प्रत्यक्ष देखते हैं।

यह देखकर बड़ा आश्चर्य होता है कि अमेरिका जो विश्व का सर्वाधिक उन्नत, आधुनिक व सुखसम्पन्न राष्ट्र है, में इतनी अधिक आत्म-हत्याओं का कारण क्या है? आज से सौ वर्ष पूर्व का मानव अपनी सीमाओं में सुरक्षित था, शान्तिपूर्ण जीवन जीता था व उनमें पारस्परिक प्रतिद्वन्दिता नहीं थी। आज का मानव प्रतिद्वन्द्वी है व मनोविकारग्रस्त है। संप्रेक्षण की वर्तमान प्रगति मानव मस्तिष्क के लिए बोझ बन गई है। विज्ञान की अतुलनीय उन्नति ने पिछली अनेक शताब्दियों के ज्ञान को समेटकर मानव मस्तिष्क पर लाद दिया है।

शरीर के कार्य करने की अपनी प्रक्रिया है। विभिन्न क्रियायें अपनी निर्धारित गति से कार्य करती हैं। इस निर्धारित गति, लय तथा ताल में आया अन्तर सम्पूर्ण क्रियाओं को गड़बड़ा देता है और क्रियाओं की यह असामान्य अवस्था उसे रोगी बना देती है।

प्रतिद्वन्द्विता, उत्तेजना तथा उलझावों के कारण मानव मस्तिष्क भावनात्मक धरातल पर कमजोर पड़ गया है। कमजोर मस्तिष्क उसकी निर्णय शक्ति का साथ नहीं दे पाता तो वह मानसिक सुप्तता के लिए दवाओं का सहारा लेता है और ये ही दवायें उसे मृत्यु के नजदीक पहुँचा देती है। विक्षिप्त व्यक्ति समाज के लिए घातक एवं बोझ तथा मृत व्यक्ति के समान होता है।

मस्तिष्क की उत्कृष्टता पर मानवी प्रगति का सारा ढाँचा खड़ा हुआ है। उससे अनेकानेक उपयोगी प्रयोजन सध सकते हैं, पर यह सम्भव तभी है जब उसका मूलभूत ढाँचा अपनी स्वाभाविक एवं सन्तुलित स्थिति में बना रहे। इस सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि मनुष्य से बहुत वजन डालने वाला काम अत्यधिक मात्रा में न लिया जाय। दिनचर्या में यह गुंजाइश रहनी चाहिए कि हँसने-खेलने, विनोद-उपार्जन एवं शारीरिक श्रम के लिए समुचित समय सुरक्षित रखा जाय। अत्यधिक श्रम लेने से मस्तिष्क की वैसी ही दुर्गति होती है जैसी एक सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी के सारे अंडे एक साथ निकाल लेने के लोभी मालिक की हुई थी इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखा ही जाना चाहिए कि मनोविकारों की उत्तेजना मनःसंस्थान को बुरी तरह जलाती झुलसाती और विषाक्त बनाती है। चिन्त, भय, निराशा, द्वेष, लिप्सा, लालसा जैसे मनोविकारों का जो अनावश्यक दबाव इन दिनों पड़ रहा है वही इस मस्तिष्कीय भार वृद्धि का प्रधान कारण है। मोटे तौर पर बढ़ोतरी सौभाग्य का चिह्न मानी जाती है, पर मस्तिष्क भार का बढ़ना प्रत्यक्षतः अतीव हानिकारक दुष्परिणाम उत्पन्न कर रहा है। ठीक यही बात इस समृद्धि एवं प्रगति के सम्बन्ध में कहीं जा सकती है जो सुविधा साधनों के रूप में बढ़ती रही है पर उसके उपार्जन एवं उपयोग में नीतिमत्ता का समावेश नहीं हो रहा है। विस्तार का उपयोग तभी है जब उसके स्तर में न्यूनता न आने पाये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles