क्रोध-के सर्वनाशी आवेग से बचे!

June 1979

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क्रोध का कारण बताते हुए गीता में कहाँ गया है- “कामात् क्रोधोऽभिजायते।” कामनाओं में विक्षेप उपस्थिति होने पर उस विक्षेप के कारण के प्रति क्रोध उत्पन्न होता है। तीन-चार महीने के बच्चे को यदि कोई थप्पड़ मार दे तो उस थप्पड़ की पीड़ा से वह रो तो उठेगा, किन्तु उठे हुए हाथ और स्वयं को पीड़ा का अन्तर सम्बन्ध उसे ज्ञात नहीं रहता, इस हाथ से थप्पड़ मारे जाने के कारण मुझे पीड़ा हो रही है यह जानकारी उसे नहीं रहती, इसलिए उसके रुदन में क्रोध का आवेग नहीं रहता। इस प्रकार क्रोध दुःख-कष्ट के कारण के बोध से उत्पन्न होने पर क्रोध का आवेग पैदा हो जाता हैं। अपने मनोरथों का विफल कर सकने वाले, अभीष्ट-प्राप्ति के मार्ग में बाधक का स्पष्ट परिचय पाकर क्रोध उदित होता है। यह क्रोध का सामान्य स्वरूप हुआ है।

किन्तु मनुष्य की कोई भी प्रतिक्रिया सरल यन्त्रवत् नहीं होता। इसीलिए क्रोध के स्वरूप और उसकी अभिव्यक्ति के ढंग, दोनों में बहुतेरी भिन्नताएँ होता है।

क्रोध मस्तिष्क में उभर पड़ने वाला एक आवेग विशेष है। मस्तिष्कीय संरचना कुछ ऐसी है कि जिस भी आवेग का उसमें बार-बार उदय हो, उसके संस्कार गहरे होते जाते हैं और फिर वह आवेग स्वभाव का अंग बनता जाता है। एक ही बाधक विषय-वस्तु के प्रति दो लोगों की प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न होती है- एक क्रोध से लाल-पीला होकर मरने-मारने पर उतारू हो जायगा दूसरा उस बाधा के निवारण का गम्भीर प्रयास प्रारम्भ कर देगा। यह भिन्नता मस्तिष्क में पड़ गये संस्कारों की ही है। असफलता प्राप्त होने पर जब क्रुद्ध होने की ही प्रवृत्ति दृढ़ हो जाती है, तो फिर यह क्रोध उस बाधकतत्व के प्रति ही सीमाबद्ध नहीं रहता, अपितु संपर्क में आने वाले लोगों से अकारण क्रुद्ध व्यवहार का प्रेरक बन बैठता है।

मन की जटिलताएँ भी मनुष्य के क्रोधी स्वभाव का कारण होती है। मनुष्य अपनी मानसिक जटिलताओं में उलझा उद्विग्न रहा आता है। और यह जटिलताओं में उलझा उद्विग्न रहा आता है और यह उद्वेग जिस तिस पर क्रोध बनकर बरस पड़ता है।

इस प्रकार मोटे तौर पर क्रोध के तीन वर्ग गिनाए जा सकते है (1) कामना पूर्ति में अवरोधक-बाधक विषय के प्रति क्रोध, जो बाधक को हानि पहुँचाने की भावना से जुड़ा रहता है।

(2) असफलता से क्रुद्ध मनःस्थिति में संपर्क में आए अन्य व्यक्तियों पर कारणवश या अकारण ही व्यक्त होने वाला क्रोध।

(3) लम्बे अभ्यास से व्यसन सा बन चुका क्रोध, जो स्वभाव का स्थायी अंग बन जाता है।

पहले प्रकार का क्रोध लोक-व्यवहार में सर्वाधिक स्वाभाविक माना जाता है। किन्तु क्रोध एक विचार मात्र नहीं है; वह एक भावावेग है। उसका सम्पूर्ण शरीर संस्थान और मनः संस्थान पर प्रभाव पड़ता है। प्रथम तो बाधक को हानि पहुँचाने की जो भावना है वह भी परिणाम में अपने पक्ष में कभी-कभार ही & पाती है। सम्भव है, जिसे हानि पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है, वहीं कल भिन्न अवसर पर अपने लिए उपयोगी सिद्ध हो। हमारी कामना पूर्ति में वह बाधक बनता दीख रहा है, किन्तु कल को वही कामना हमें महत्वहीन लग सकती है और किसी अधिक महत्वपूर्ण कामना में आज का बाधक सहायक के रूप में सामने आ सकता है।

इससे भी बड़ी बात यह है कि क्रोध में दुःख या हानि के कारण को नष्ट कर देने की या क्षतिग्रस्त कर देने की भावना इतनी तेजी से उमड़ती है कि अपनी भूमि या दोष की ओर तो ध्यान नहीं ही जाता, जो करने जा रहे है, उसके परिणाम का भी विचार नहीं आ पाता। ऐसी स्थिति में कई बार पूर्व में हो गई हानि के साथ ही क्रोध में किए गये कामों से और बड़ी हानि हो जाती है। जैसे कोई व्यक्ति सुने कि उसका शत्रु 10-12 लठैतों के साथ उसे मारने आ रहा है और वह चट क्रुद्ध होकर उस शत्रु को मारने अकेला दौड़ पड़े, बिना शत्रु की शक्ति का विचार एवं अपनी सुरक्षा की व्यवस्था किए; तो परिणाम में उसे ही प्राणा गंवाने पड़ सकते है। बाधक को हानि पहुँचाने की इस भावना में जब अपनी मर्यादाओं को भुलाकर व्यक्ति कुछ कर गुजरने को तैयार हो जाता है, तो प्रायः अपनी हानि ही उसे सहनी-उठानी पड़ती है।

क्रोध मन को उत्तेजित और खिंची हुई अवस्था में रख देता है; इससे शरीर में भी तनाव आ जाता है। रक्त-संचालन तीव्र हो उठता है और अनावश्यक गर्मी शरीर में आ जाती है। विचार-शक्ति शिथिल हो जाती है। तीव्र रक्त-शक्ति शिथिल हो जाती है। तीव्र रक्त-संचालन से चेहरा तमतमा उठता है, ओठ फड़कने लगते हैं, आंखें लाल हो उठती हैं। भीतरी अवयवों पर भी ऐसा ही अनिष्ट और दूषित प्रभाव पड़ता है। हृदय-स्पन्दन तेज हो जाता है, आँतों का पानी गर्मी से सूखने लगता है। पाचन-क्रिया शिथिल पड़ जाती है; रक्त में एक प्रकार का विष उत्पन्न होता है जो जीवनी शक्ति को क्षीण कर देता है। एड्रीनल ग्रन्थियों से क्रोध की स्थिति में जो हारमोन्स स्रवित होते हैं; वे रक्त के साथ मिलकर जिगर में पहुँचते है और वहाँ जमे ग्लाइकोजन को शर्करा में बदल देते हैं। यह अतिरिक्त शक्कर शरीर पर विघातक प्रभाव डालती है। इस प्रकार क्रोध से बाधक-तत्व की हानि हो या नहीं अपनी हानि अवश्य होती है। क्रोध के कारण की तो कोई क्षति कभी-कभार ही होती है, क्रोधी व्यक्ति की स्वयं की क्षति हर बार होती है।

फिर कामनाएँ भी बहुरंगी होती हैं। किसी की प्रत्येक कामना की पूर्ति असम्भव तो है ही, अनुचित भी है, क्योंकि उनमें से कई दूसरों की कामनाओं के विरुद्ध होती हैं। किसी एक की सब कामनाएँ पूरी हो जाने का वरदान यदि मिल जाए, तो उसमें अनेकों की अनेक कामनाएँ विफल होने का शाप भी सम्मिलित समझना चाहिए। इसलिए अपनी प्रत्येक कामना की पूर्ति को आवश्यक मानने और उस में बाधा उत्पन्न होते ही क्रोध से भड़क उठने की मनःस्थिति को अपरिपक्व और क्षुद्र ही कहा जाएगा। फिर उस क्रोध की प्रतिक्रिया में औरों का भी क्रोध भड़क उठने की सम्भावना और उस सम्भावना के परिणामों का सामना करने को भी तैयार रहना चाहिए।

क्रोध अधिकाँश कारण तो अत्यन्त सामान्य व छोटे होते है। कई बार तो वे सर्वथा आधारहीन ही दिखाई पड़ते हैं। ऐसे भी समाचार सुनने में आते रहते हैं कि किसी छोटे फल वाले से उधार फल माँगे या रिक्शे वाले से मुफ्त में बैठाकर घुमाने को कहा और पहले के पैसे बाकी होने से फल वाले ने अथवा आजीविका में व्यस्त रिक्शे वाले ने नाहीं करदी तो क्रोध में उनकी ऐसी पिटाई की गई कि वे मर ही गये। यह अविवेकी क्रोध और उन्मत्त अहंकार के स्वाभाविक किन्तु भयंकर परिणाम हैं। अपने इस क्षुद्र अहं और क्षणिक क्रोधोन्माद पर फाँसी या आजीवन कारावास की सजा भुगतते हुए पछताने-रोने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रहता।

घरों में स्त्रियों को मारने-धमकाने, बच्चों को पीट देने की अधिकाँश घटनाएँ बहुधा नगण्य से कारणों की अशोभनीय प्रतिक्रियाएँ हुआ करती हैं। क्रोधावेग बढ़ जाने पर -ऐसी मार-पीट से पत्नी-बच्चों के बुरी तरह आहत हो जाने और मर जाने तक की स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है। इससे आन्तरिक पीड़ा और तीव्र मनस्ताप के साथ ही कानूनन दण्ड भी भोगना पड़ता है और हर तरह से अपयश ही अपयश-घाटा ही घाटा उठाना पड़ता है। छोटी-छोटी भूलों से उत्तेजित होकर थाली फेंकने, कपड़े फाड़ने आदि की गतिविधियाँ भी नित्य ही घरों में देखने को मिलती हैं, जिससे स्वयं की हृी क्षति होती है, त्रुटि का परिमार्जन तो इससे कभी होता ही नहीं।

ऐसे घातक परिणामों को लक्ष्य कर ही यह कहा गया है कि क्रोधी ‘अन्धा’ होता है। वह केवल उस ओर देखता है, जिसे वह दुःख का कारण या अपनी कामनाओं को बाधक समझता है। उसका नाश हो, उसे हानि, दुःख, कष्ट पहुँचे, यही क्रोधी का लक्ष्य होता है। वह लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पाता, क्योंकि क्रोध एक अति वेगवान मनोविकार है। सोचने-विचारने का समय वह मस्तिष्क को देता ही कब है। वह तो आँधी-तूफान की तरह पूरे मनोजगत पर सहसा छा जाता है और अनर्थकारी कार्य सम्पन्न कराने के बाद ही हटता है। इसीलिए तो ऋषि ने कहा है -

“संचितस्यापि महतो स क्लेशेन मानवै।” यशसस्तपसश्चैव क्रोधी नाशकरः परः॥

अर्थात्- मनुष्य द्वारा बहुत प्रयत्नों से अर्जित यश और तप को भी क्रोध नष्ट कर डालता है। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में कहा-

“क्रोध प्राणहरः शत्रु क्रोधोऽपकर्षति॥ तपते यतते चैव यच्च दानं प्रयच्छति। क्रोधेन सर्वं हरति तस्मात् क्रोध विवर्जयेत्॥” (उत्तरकाण्ढ 71)

अर्थात्- ‘‘क्रोध प्राणहारी शत्रु है, अमित्र-मुखधारी बैरी है, एक तीक्ष्ण तलवार है, यह क्रोध सब प्रकार से गिराता ही है। मनुष्य जो, तप, संयम, दान आदि करता है, उस सबका क्रोध हरण कर लेता है, इसलिए क्रोध का परित्याग कर देना चाहिए।”

यह तो बाधक तत्व को हानि पहुँचाने की उत्तेजना उत्पन्न करने वाले क्रोध के दुष्परिणाम हैं। जब क्रुद्ध मनःस्थिति में संपर्क में आए अन्य व्यक्तियों के प्रति रोषपूर्ण व्यवहार किया जाता है, तब वह तो सर्वथा अनुचित एवं अन्यायपूर्ण होता है। उसका परिणाम भी अधिक हानिकारक होता है। जिसे यों अकारण अपमानित किया गया है, उसके मन में अपमान का यह शूल निरन्तर चुभता रहता है और उसका परिणाम हर प्रकार से अशुभ ही होता है। दफ्तर से बिगड़कर आया बाबू पत्नी को पीटकर दाम्पत्य-सुख में आग लगाता है; बाहर का क्रोध घर के नौकर पर उतारने वाले क्षुब्ध नौकर द्वारा छिपकर की जाने वाले चोरी, लापरवाही व क्षति को भोगते हैं। क्रुद्ध मनःस्थिति में मित्रों-परिचितों से दुर्व्यवहार करने वालों को मैत्री-सुख और परिचितों की सहानुभूति से वंचित रहना पड़ता है। साथ ही निन्दा व तिरस्कार भी सहना पड़ता है।

क्रोधी मनुष्य दूसरे के समर्थ-शक्तिशाली होने पर जब अपने मन्तव्य में सफल नहीं हो पाता, तो वह स्वयं अपने ऊपर वैसी ही क्रिया करने लगता है, जो वह दूसरों को हानि पहुँचाने के लिए करने की सोच रहा था। अपना सिर फोड़ने लगना, बाल नोंचने लगना, अंग-भंग और आत्महत्या तक कर बैठना ऐसी ही मनःस्थिति के परिणाम होते है।

इस प्रकार क्रोध सदैव हानिकारक ही सिद्ध होता है। यदि क्रोध आवेग रूप में न हो, तब तो उससे कुछ प्रयोजन भी सिद्ध हो सकता है; किन्तु प्रचण्ड भावावेग के रूप में वह सर्वनाशी ही सिद्ध होता है।

अनौचित्य को देखकर उत्पन्न होने वाले विवेक नियन्त्रित क्रोध की बात भिन्न है। भारतीय मनीषियों ने उसे “मन्यु” की संज्ञा दी है तथा दिव्यता का अंश बताया है। सामाजिक जीवन में वैसे क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है। दुष्टता जिनमें गहराई तक पैठ गई है, उनमें दया, विवेक आदि उत्पन्न करने में बहुत समय लगता है और तब तक वे अत्यधिक अनर्थ कर चुकते हैं। एक व्यक्ति के इस हृदय-परिवर्तन की चिरप्रतीक्षा में अनेकों के हृदय को पीड़ा पहुँचाने का क्रम सहा नहीं जा सकता। अतः उस पर क्रोध आवश्यक हो जाता है। वैसे लोक-कल्याणकारी क्रोध की-मन्यु की -बात भिन्न हे। उस क्रोध का जन्म उद्वेग-उत्तेजना से नहीं, विवेक-विचार से होता है। जन-सामान्य के क्रोध में प्रतिकार और परपीड़न की ही उग्रता होती है। यह क्रोध उत्तेजना और आवेश के रूप में ही उत्पन्न होता है। इससे सत्य-असत्य की विवेक-शक्ति दब जाती है और लड़ाई-झगड़ा कुटता, मार-पीट के रूप में ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। क्रोध का मन के दूसरे विकारों से घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। अस्थिरता, क्षणिकता, कुँठा, उद्वेग, अहंकार, असहिष्णुता आदि उसके सहचर हैं। चिड़चिड़ापन कमजोर व्यक्तियों में उत्पन्न होने वाला क्रोध-आवेश ही है।

क्रोध के कारणों पर विचार किया जाय तो गलत जीवन दृष्टि मन का विकृत अभ्यास तथा असात्विक आहार। मुख्य कारण सिद्ध होते हैं। अतः क्रोधी प्रवृत्ति से मुक्ति के इच्छुक व्यक्तियों को आहार की सात्विकता पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। साथ ही मन को यदि ऐसा अभ्यास पड़ गया है, तो उसके दुष्परिणामों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और सही जीवन दृष्टि अपनाने का यत्न एवं उद्योग करना चाहिए।

जब कभी क्रोध उमड़े तो एक प्रयोग कर देखना चाहिए। क्रोध का उभार होते ही चुपचाप कमरे में चले जाएँ और दर्पण में अपना चेहरा देखें। आप स्वयं देखेंगे कि चेहरे पर आयी तमतमाहट ने सौंदर्य को तनिक भी बढ़ाया नहीं कम ही किया है। मुँह फीका पड़ गया है, जैसे तेज ज्वर चढ़ा हो। थोड़ी देर टहलने के बाद या तत्काल ही पानी से मुँह धोएं और तौलिए से उसे पोंछ कर फिर शीशे के सामने खड़े हो। पहले के चेहरे और अबके चेहरे में अन्तर स्पष्ट दिख जाएगा। क्रोध की तमतमाहट से व्यर्थ ही तन गए चेहरे का स्मरण करें और प्रसन्नता से मुस्कराएँ। आगे जब भी क्रोध उभरे, इस घटना को याद करें और अपने चेहरे में व्यर्थ तनाव लाने से बचने की उपयोगिता समझें। क्रोध को दूर से ही नमस्कार कर लें।

क्रोध की बाह्य अभिव्यक्ति दबाकर मन ही मन लम्बे समय तक सुलगते रहना ही ‘बैर’ है। यह बैर क्रोध से भी भयंकर हानियाँ उत्पन्न करता है।

क्रोध सदैव जल्दबाजी का परिणाम होता है। जब कोई गलत कार्य होता दिखे या कोई हानि हो जाए, तो उसके कारण का निश्चय करने में जल्दबाजी न करें। स्मरण करे कि पहले विचार-क्रम में बहुधा कारण खोजने में चूक हो जाती है। अतः अनुचित या हानिप्रद कार्य के घटना-स्थल से इधर-उधर हट जाएँ, किसी सुरम्य उद्यान में टहलें या किसी प्रियजन के पास पहुँच जाएँ। उससे स्नेहपूर्ण बात करें। कुछ न हो सके, तो एक गिलास ठण्डा पानी पीएँ और क्रोध को शान्त करें। इस आवेग को भड़कने देने में घाटा ही घाटा है। शमित करने में लाभ ही लाभ है। इसीलिए विश्व के समस्त धर्मशास्त्रों और नीतिग्रन्थों में क्रोध को विनाशकारी अतः त्याज्य ही ठहराया गया है।


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