वासाँसि जीर्णानि यथा विहाय

June 1979

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मृत्यु जीवन की एक अनिवार्य घटना है। किसी भी मनुष्य के जीवन में और कुछ निश्चित हो अथवा नहीं हो परन्तु इतना तो निश्चित ही है कि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु अवश्य और अनिवार्य रूप से होगी ही। इतनी निश्चित और अनिवार्य घटना कोई भी नहीं है जितना कि मरना। यह जानते हुए भी अधिकाँश व्यक्ति मृत्यु से भयभीत रहते हैं और मरने के नाम से भी डरते हैं। मरना जितना निश्चित है उतना ही यह भी सत्य है कि मरने अधिकाँश लोग डरते है। जीवन की इतनी निश्चित और स्वाभाविक घटना से भयभीत होना व्यर्थ है फिर भी लोग मृत्यु से भयभीत क्यों रहते है? विचार करने पर एक ही कारण समझ में आता है कि अधिकाँश लोगों को मृत्यु के संबंध में अज्ञान ही रहता है।

यह स्वाभाविक ही है कि प्रत्येक व्यक्ति को सबसे अधिक अपना अस्तित्व प्रिय होता है और सब कुछ नष्ट हो जाय पर कोई भी व्यक्ति अपने अस्तित्व को नष्ट नहीं होने देना चाहता। किसी भी मूल्य पर उसे बनाये रखने में हरे किसी की रुचि और लगाव रहता है। जिन प्राणियों को अपने अस्तित्व का भान नहीं होता या जिनमें समझ बूझ नहीं होती, वह मृत्यु से नहीं घबराते हैं। बकरा कसाई की छुरी के नीचे जाने से पहले तक खूब खाता पीता है और हरी पत्तियाँ देख कर ललचाता है। बिल्ली के पंजों में दबने से पहले चूहा भी मौज-मस्ती से उछल कूद मचाता है। कारण कि उन्हें मृत्यु की संभावना का जरा भी पता नहीं रहता। मरणासन्न स्थिति में उनके शरीर पर छुरे की पैनी धार अथवा पंजों के नुकीले नाखून चुभते हैं तभी उसके कारण होने वाले दर्द से वे मिमियाते, चिचियाते हैं। लेकिन कोई रोगी व्यक्ति भी मृत्यु, की सम्भावना बता दिये जाने पर खाने पीने से विरक्त, उदास और म्लान मुख हो जाता है। कारण कि उस समय लगता है अब अपने जीवन का अन्त हुआ और अब अपना अस्तित्व समाप्त हुआ।

यह अपने अस्तित्व के प्रति आसक्ति ही है, जो किसी व्यक्ति को मौत के नाम से भी कँपकँपा देती है। वही यह भी तथ्य है कि मृत्यु के वास्तविक स्वरूप का पता लगा लिया जाय, किसी प्रकार मृत्यु के बारे में जान लिया जाय तो मौत के प्रति वह भय कम हो सकता है और मृत्यु को उल्लासपूर्वक गले लगाया जा सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भारतीय मनीषियों ने मृत्यु के विषय में गम्भीरता पूर्वक विचार किया है और उसका विस्तार से विश्लेषण विवेचन करते हुए कहा है कि मृत्यु का अर्थ जीवन का अस्तित्व का अंत नहीं है। जीवन तो एक शाश्वत सत्य है और अस्तित्व का न आदि है न अंत। गीताकार ने कहा है - न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि हम सब लोग इससे आगे नहीं रहेंगे। (2/12)

जन्म वस्तुतः न तो जीवन का आदि है और नहीं मृत्यु उसका अन्तः भारतीय मनीषियों ने अपनी अंतर्दृष्टि से हजारों वर्ष पूर्व इस तथ्य को जान लिया था और उपनिषदों, पुराणों स्मृति और शास्त्रों में प्रतिपादित कर दिया था। आधुनिक युग में जब बुद्धिवाद का प्रभाव बढ़ने लगा और हर बात व सिद्धान्त को तथ्य, तर्क व प्रमाणों की कसौटी पर कसा जाने लगा तो एक बारगी यह प्रतीत हुआ कि शाश्वत जीवन का यह सिद्धान्त हवा में उड़ जायेगा। कुछ लोगों ने तो यह कहना भी आरम्भ कर दिया कि जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि से परे जीवन का कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं है। मरणोत्तर जीवन और जन्म से पूर्व प्राण चेतना की सत्ता काल्पनिक उड़ानें हैं। लेकिन बुद्धिवाद को भी अपनी मान्यता उन ढेरों ढेर घटनाओं को देखकर बदलनी पड़ी जो जीवन की शाश्वतता को सिद्ध करती थी।

अब तो इस विषय विज्ञान की भी रुचि हुई है। और उस शाखा के वैज्ञानिक मरणासन्न व्यक्तियों का अध्ययन कर यह जानने की चेष्टा करते हैं कि मृत्यु से पूर्व उन्हें कैसा अनुभव होता है। विज्ञान की इस शाखा को थेनार्टालाँजी, कहते हैं। पश्चिमी जर्मनी की एक वैज्ञानिक डॉक्टर लोथर विद्जल ने ऐसे कई व्यक्तियों से बातचीत की जो मृत्युशैया पर पढ़े थे और उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे मृत्यु निकट आती जाती है मरणासन्न व्यक्ति का मृत्यु भय मिटता जा रहा है। बीमारी की वृद्धि के साथ-साथ ऐसे व्यक्तियों की धार्मिक आस्था भी दृढ़ होती पायी गयी और यह भी देखा गया कि उनकी चिंतायें कम होती जा रही हैं।

डा. लोथर विद्जल ने अपनी पुस्तक में एक मरणासन्न मरीज का विवरण देते हुए लिखा है, मैं शायद उसका हाथ कुछ अधिक मजबूती के साथ पकड़े हुए था क्योंकि उस मरीज ने अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा मुझे वापस मत खींचो। वहाँ आगे बहुत ही सुन्दर दृश्य है। इसी प्रकार एक चिकित्सक का विवरण लिखते हुए डॉक्टर विद्जल ने कहा है, “ यदि मुझमें कलम उठाने की शक्ति होती तो मैं लिखता कि मृत्यु भी कितनी सरल और सुखद है।

इन विवरणों को संकलित और सम्पादित करते हुए डॉ विद्जल ने कहा है कि मरने से पूर्व मनुष्य की अंतश्चेतना इतनी संवेदनशील हो जाती है कि वह तरह तरह के चित्र विचित्र दृश्य देखने लगती है। यह दृश्य उसकी धार्मिक आस्थाओं के अनुरूप ही होते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दू को यमदूत अथवा देवदूत दिखाई देते हैं मुसलमानों को अपने धर्मशास्त्रों में उल्लेखित प्रकार की झांकियां दीख पड़ती हैं और ईसाइयों को भी उसी प्रकार पवित्र आत्माओं, ईसा अथवा बाइबिल में वर्णित पवित्र आत्माओं और दिव्यलोकों के दर्शन या अनुभव होते हैं।

विज्ञान की थेनेटालाँजी शाखा के अंतर्गत मृत्यु का विश्लेषण करने के लिए अमेरिका के डॉ. रेमंड ए. मूडी ने भी गहन शोध की है। डा. विद्जल ने तो केवल मरणासन्न व्यक्तियों का ही अध्ययन किया पर डा.मूडी ने अपनी शोध म तीन प्रकार के व्यक्तियों का सम्मिलित किया। इनमें एक तो वह थे जो किसी रोग या दुर्घटना के कारण मृत्यु के एकदम समीप पहुँच गये और फिर बच गये। उनके लिए कहा जा सकता है कि उन्हें नयी जिन्दगी मिली। दूसरे वे व्यक्ति थे जो मरणासन्न स्थिति में थे और अपने अनुभव बता सकते थे तीस प्रकार के व्यक्ति डॉक्टरों द्वारा मृत घोषित कर दिये जाने के बाद पुनः जी उठे थे।

इस तरह के सैकड़ों व्यक्तियों से बातचीत करके उनके द्वारा दिये गये विवरणों का अध्ययन कर और अन्य व्यक्तियों के अनुभवों से संगति बिठाते हुए डा. रेमंड ए मूडी लाइफ आफ्टर लाइफ’ पुस्तक लिखी इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि मृत्यु के समय भले ही यह लगता रहा हो कि सब कुछ समाप्त हो जायगा अथवा हम कुछ भी देखने, सुनने या समझने में असमर्थ हो जायेंगे अथवा अब हम समाप्त ही हो जायेंगे परन्तु ऐसा कुछ नहीं होता। परिवर्तन इतना भरा होता है कि अपने अस्तित्व का अनुभव शरीर से पृथक अस्तित्व के रूप में होने लगता है।

अमेरिका की ही एक महिला मिसेज मार्टिन, जिसे डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था और वह पुनः जी उठी थीं, उन ने अपने अनुभव सुनाते हुए डा. मूडी को बताया में अस्पताल में थी, पर डॉक्टरों को मेरे रोग के बारे में कुछ पता ही नहीं चल रहा था। मरे चिकित्सक डा. जेम्स ने मेरी जाँच के लिए नीचे की मंजिल पर रेडियोलाजिस्ट के पा भेजा। उसने मुझे एक खास दवा दी परन्तु मैंने अनुभव किया कि मेरी साँस रुक गयी है इसके बावजूद भी मैं सब कुछ देख सुन और समझ रही थी डॉ. मुझे कृत्रिम उपायों से श्वांस दिलाने की कोशिश कर रहे थे यह मैं स्पष्ट देख रही थी। मेरे लिए कोई खास दवा लाने का आदेश दिया गया। यह सब मैं देख जान, और समझ रही थी पर वे लोग मुझे छू रहे थे मेरी बाँहों में इंजेक्शन लगा रहे थे यह सब देखते हुए भी मुझे कुछ महसूस नहीं हो रहा था।

कार दुर्घटना का शिकार हुए और मृत घोषित कर दिये गये एक युवक ने, जो पुनः जी उठा अपना अनुभव सुनाते हुए बताया- पास ही खड़ी कोई महिला पूछ रही थी कि क्या इसका दम निकल गया। इस पर दूसरे व्यक्ति ने उत्तर दिया कि हाँ यह मर गया है। उस युवक ने बताया कि ऐसा सुनते समय वह उन बातचीत करने वाले और आस-पास खड़े दूसरे व्यक्तियों को ही नहीं देख रहा था बल्कि अपने शरीर, चेहरे, सिर, में लगे घाव, उनमें से रिसा हुआ खून और टूटी हुई हड्डियों के बारीक-बारीक टुकड़े भी देख रहा था जैसे किसी दूसरे व्यक्ति का शव देख रहा हो।

एक अन्य महिला ने अपनी अनुभूति इस प्रकार व्यक्त की है, “ दिल की बीमारी के कारण मुझे अस्पताल में भरती किया गया और अगले दिन फिर मेरी छाती में असह्य दर्द उठा। मैंने पेट के बल लेटने की कोशिश की तो मेरी साँस बन्द हो गयी और दिल भी थम गया। तभी मैंने नर्स को चिल्लाते सुना कोड पिंक कोड पिंक। ठीक तभी मैं अपने शरीर से बाहर निकल गयी और इसी समय लगभग एक दर्जन नर्सें दौड़ती हुई मेरे कमरे में आई। मेरा डॉक्टर उस समय अस्पताल का दौरा कर रहा था, उसे भी बुला लिया गया डॉक्टर और नर्स नीचे पड़े मेरे शरीर को फिर से जीवित करने की कोशिश कर रहे थे और मेरा शरीर आँखों के सामने पलंग पर पसरा हुआ था दूसरी नर्स मेरे शरीर के मुँह से मुँह लगा कर मुझे कृत्रिम साँस देने की कोशिश कर रही थी। पीछे से मैं उसका सिर देख रही थी, उसके बाल छोटे कटे हुए थे। तभी कुछ लोक एक मशीन कमरे में लाये और उन्होंने मेरे शरीर की छाती पर बिजली के झटके लगाये।”

डा. लिट्जर और डा. मूडी के अतिरिक्त डा. श्मिट ने भी ऐसे व्यक्तियों से संपर्क किया जिन्हें मृत घोषित कर दिया था। उन्होंने भी लगभग इसी प्रकार के अनुभव बताये। निष्कर्षतः सब का सार यह था कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है और इस घटना से केवल आत्म चेतना ही शरीर से पृथक् होती है। इसके अलावा कोई रोमाँचकारी अथवा हृदय विदारक घटना नहीं घटती।

इसका अर्थ है कि मृत्यु जीवन अन्त नहीं है। मनुष्य या जीवन का अस्तित्व शरीर से सर्वथा भिन्न बात है। शास्त्रकारों ने इसी अस्तित्व को जीव कहा है। जीवन को शरीर से संबद्ध मान लेने को देहभ्रान्ति कहते हुए योगवाशिष्ठ के निर्वाण प्रकरण में कहाँ है- यह जीव अस्थि, माँस और रक्त से बने स्थूल हाथ पैर वाले शरीर को अपना अस्तित्व मान लेता है जो कर्म कर्म और कामना का केंद्र तथा परिणाम रूप से मरणशील है और देहभ्रान्ति में पड़ जाता है। तब वह बाल्य, युवा वृद्धावस्था, जरा रोग मरण भ्रमण व्यवहार आदि का ज्ञान भी कल्पित करता है। इसी कारण दुःख सुख, पीड़ा, व्यथा और कष्ट वेदना का अनुभव होता है।

दुर्घटना में मृत घोषित कर दिये गये परन्तु बाद में जीवित हो उठे व्यक्तियों से संपर्क कर उनके अनुभवों का अध्ययन करने के बाद डा. एम. बेनफोर्ड ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है। उन्होंने लिखा है कि दुर्घटनाओं के कारण घटित होने वाली मृत्यु की घटना बड़ी गति से घटती है और जीव को शरीर से विलग हो जने का अनुभव भी नहीं होता। ये आकस्मिक दुर्घटनायें बड़ी भीषण और, दर्द नाक होती है परन्तु जो मर जाते है, उनके लिए मृत्यु बड़ी विस्मय पूर्ण घटना होती है। दुर्घटना, के तत्क्षण बाद मर जाने वाले व्यक्तियों को किसी पीड़ा का आभास इसलिए नहीं होता कि, जीवात्मा बहुत, आगे की संभावनाओं को जान लेती है। दुर्घटना ग्रस्त होने से पहले ही उसे पता चल जाता है कि इस दुर्घटना के कारण यह शरीर अपने रहने योग्य नहीं रहा जायगा इसलिए वह दुर्घटना से पहले ही शरीर छोड़ देता है।

इस प्रकार की जितनी भी घटनाओं के विवरण देश विदेश के थेनेटालाजिस्टों ने संकलित किये हैं उनसे भारतीय दर्शन की यही मान्यता पुष्ट होती है कि मृत्यु कोई अस्वाभाविक, दुःखद और पीड़ादायी घटना नहीं है। उन विवरणों से शरीर और चेतना की भिन्नता तो सिद्ध होती ही है यह सिद्ध होता है कि शरीर इस चेतनशक्ति के कारण ही स्पर्श, ग्रहण, संवेदन, स्पंदन और क्रियाशीलता अपनाता है। अर्थात् शरीर अपनी सार्थकता के लिए आत्म तत्व पर निर्भर है जब कि आत्मचेतना शरीर की शक्ति−सामर्थ्य या स्थिति पर रत्ती भर भी निर्भर नहीं है। फटे हुए वस्त्र को व्यर्थ और निरुपयोगी जान कर जिस प्रकार उतार रख दिया जाता है उसी प्रकार जीवात्मा भी जीर्ण अशक्त शरीर को अपने रहने योग्य न समझ कर उसका परित्याग कर देता है।


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