श्रेयात् सिद्धिः

June 1979

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“जननी भिक्षामि देहि”- नगर सेठ प्रसेनजित के द्वार पर अभिराम कपिल ने गुहार लगाई। जीवन का बहुत ही मार्मिक क्षण था जब कि नगरसेठ की अद्वितीय सुन्दरी परिचारिका गौरवर्ण मधूलिका भिक्षा लेकर द्वार पर उपस्थित हुई। आचार्य इन्द्रदत्त के स्नातकों में कपिल भी मनोज के समान सुंदर थे। सुदीर्घ वक्ष, प्रलम्ब बाहु, उन्नत, ललाट, गौरवर्ण। भिक्षा देर तक अंचल में ही पड़ी रही मधूलिका और कपिल देर तक एक दूसरे को निर्निमेष देखते रहे। सौंदर्य के इस आकर्षण में कपिल मुग्ध हो गये। कितने क्षण इस तरह बीत गये कुछ पता ही नहीं चला।

इसके बाद-कपिल को जब भी अवसर मिलता वही द्वार -वही भिक्षा सब कुछ वही-और तब प्रारम्भ हुई पतन की करुण कथा। कपिल ने रमणी के सौंदर्य में न केवल विद्या खोई वरन् अपना ओजस, आरोग्य और वर्चस्व सब कुछ खो दिया फिर भी वासना की आग शान्त न हुई। ऐसा होता तो वासना और तृष्णा ने सैकड़ों बार इतिहास के मस्तक को कलंकित नहीं किया होता। इस शाश्वत सत्य से कपिल कहाँ बचने वाले थे। अभी तो अधोगति का आरम्भ था- अन्त नहीं।

बसन्त पर्व समीप था। सुकुमारियाँ ऋतुराज का स्वागत करने के लिए नाना परिधान; अंगराग, कुँचकि केसर, वेणि; किन्तु धन उसके पास कहाँ? निदान युवक प्रेमी कपिल को ही उसने अपनी आकाँक्षाओं का आखेट बनाया। उसने कपिल से ही एक शत स्वर्ण मुद्राओं की याचना की, वह जानती थी कपिल भिक्षु हैं, स्नातक हैं, दूरवर्ती कौशांबी का रहने वाला है यहाँ उसके पास स्वर्ण मुद्रायें कहाँ - सो उसी, ने युक्ति भी बताई, आप श्रावस्ती नरेश के पास चले जाये। वे अप्रतिम दानी हैं एक सौ मुद्रायें उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं।

कामार्त्त कपिल द्वार पर पहुँचे। वे विवेक खो चुके थे। रात्रि में ही राजप्रासाद में प्रवेश करना चाहा फलतः न केवल प्रहरी की प्रताड़ना मिली अपितु दस्यु की आशंका से उन्हें रात बन्दीगृह में बितानी पड़ी। विद्यमान वर्चस्व खोने के बाद उन्हें आत्म सम्मान से भी विच्युत होना पड़ा। वासना जो न कराये सो थोड़ा।

प्रातःकाल वे बन्दी वेष में नृपति के सम्मुख प्रस्तुत हुए। कपिल ने शील खोया था, पर उन्हें उबारने वाला सत्य अभी तक उनके पास था। उन्होंने महाराज को सब कुछ स्पष्ट बता दिया परिचारिका मधूलिका के सम्मोहन से यहाँ तक की सारी गाथा कपिल ने कह सुनाई।

सम्राट कपिल की निश्छलता पर बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने पूछा-युवक। बोलो अब तुम क्या चाहते हो- जो माँगोगे मिलेगा। एक शत स्वर्ण मुद्रा। कपिल ने मन ही मन कहा-फिर विचार आया जब कुबेर का भण्डार ही खुला है तो एक शत क्यों-एक सहस्र-नहीं नहीं एक लक्ष-जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई”-क्यों न ऐसा कुछ माँगा जाये जिससे मधूलिका के साथ आजीवन सुखोपभोग का जीवन जिया जाये।

“आपका सम्पूर्ण राज्य चाहिए राजन्-याचक के मुँह से यह निकलते ही समस्त सभासद-परिचारक, अंगरक्षक अवाक् स्तब्ध रह गये किन्तु श्रावस्ती नरेश किंचित मात्र विचलित नहीं हुए।

तथावस्तु कपिल! वे बोले-मैं निःसन्तान हूँ। राज्यभोग ने मेरी आत्मिक शक्तियों को जर्जर कर दिया है चाहता ही था कोई सुयोग्य पात्र मिले तो इस जंजाल से मुक्त होकर आत्म-कल्याण का मार्ग खोजूं - तुमने आज मेरा भार उतार दिया आज से श्रावस्ती तुम्हारी हुई।

नृप के इस औदार्य पर कपिल आश्चर्यचकित रह गये। आत्म-कल्याण-आत्म- शान्ति क्या इतनी महान है जिस पर राज्य यों न्यौछावर किया जा सकता है। तब तो मैंने महा अनर्थ किया। कपिल सम्भले और बोले नहीं-नहीं-क्षमा करें राजन। मैं अपने उसी श्रेय की ओर प्रस्थान करूंगा। जिसका निर्देश मेरे गुरुदेव ने किया था-क्षणभर में कपिल राज प्रासाद से बाहर हो गये, लोगों ने देखा वे जा रहे हैं दूर-बहुत दूर-बहुत दूर बहुत दूर।


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