तथ्यों और मान्यताओं का अन्तर समझा जाय

June 1979

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वैज्ञानिक विषयों और मानवी (ह्यूमेनिटीज) विद्या के विषयों, दोनों के उच्चतर शिक्षण-क्रम में एक हिस्सा सैद्धाँतिक और मान्यताओं सम्बन्धी रहता है, दूसरा प्रायोगिक। सिद्धान्तों और प्रयोगों के व्यवहार सिद्ध रूप को व्यावहारिक या ‘एप्लायड’ कहा जाता है। ‘एप्लायड फिजिक्स’ ‘एप्लायड इकॉनोमिक्स’, आदि के नाम से इनका शिक्षण होता है। प्रत्येक विद्या के इन रूपों को समझना चाहिए।’एप्लायड’ रूप वह होता है, जो तथ्यों, प्रयोगों और व्यवहार की कसौटी पर खरा उतरे। दूसरा मान्यताओं वाला क्षेत्र इससे भिन्न होता है। वह मनुष्य के अनुभवों भर से निःसृत नहीं होता। अपितु उसमें उसकी स्वयं की कल्पनाएँ, रुचियाँ दिमागी उड़ाने, निजी आस्थाएँ घुलीमिली होती है। इस प्रकार वैज्ञानिक प्रयोग एक बात है, वैज्ञानिक परिकल्पनाएँ और मान्यताएँ भिन्न बात है। मान्यताएँ बदल जाने पर भी प्रयोगों की प्रक्रिया यदि शुद्ध हो, तो वही परिणाम प्राप्त होते रहते हैं। परमाणुओं का स्वरूप अब भी वही है, पारमाण्विक संयोग-वियोग की प्रक्रियाएँ और परिणाम अब भी वही है, किन्तु अब परमाणुओं को पदार्थ की प्राथमिक इकाई मानने की मान्यता समाप्त हो चुकी है।

पिछली शताब्दी के अन्त में भौतिकी में यह मान्यता थी कि पदार्थ अविनाशी है। इस पदार्थ का सबसे छोटा कण परमाणु है। वे ही पदार्थ के मूल कण हैं। पदार्थ का उससे आगे विभाजन सम्भव नहीं है। यों, उससे भी पहले अणु को ही ‘एटम कहा गया था। लूक्रेटस ने यह दर्शन प्रतिपादित किया था कि सभी पदार्थ अविनाशी और अपरिवर्तनीय अणुओं से बने है। बाद में पता चला कि अणु टूट सकते हैं। कई पदार्थों के अणु तो सरलता से टूट सकते हैं। जैसे लोहे पर जंग लगने से उसके अणु टूट कर नया रूप धारण कर लेते हैं। किसी धातु पर अम्ल डालने से या उसे जलाने, गरम करने अथवा प्रकाश के आपात से भी अणुओं को तोड़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए हाइड्रोजन पराक्साइड की बोतल यदि किसी प्रकाशमय स्थान पर रखी जाय, तो उस तरल पदार्थ के अन्दर से प्रकाश गुजरने भर से उसका हर एक अणु टूट कर एक जल अणु और एक आक्सीजन अणु में बदल जायेगा। उस बोतल को प्रकाश में कुछ देर रहने देने के बाद यदि उसकी कार्क हटाई जाय, तो तत्काल एक आवाज होगी। यह उसमें बन गयी आक्सीजन की आवाज होगी। इसके बाद हाइड्रोजन पराक्साइड के स्थान पर उस बोतल में मिलेगा सिर्फ पानी। अणुओं की टूटन की यह जानकारी मिलने पर परमाणुओं को ‘एटम’ कहा जाने लगा। परमाणु का अर्थ था वे छोटे कण जो अणु के टूटने पर प्राप्त होते थे।

बीसवीं सदी के प्रारम्भ में लार्ड रदरफोर्ड इस कथित अखण्डनीय परमाणु को भी तोड़ने में सफल हो गये। तब पता चला कि परमाणु ऋण आवेशित ‘इलेक्ट्रान’ कणों और धन आविष्ट प्रोटान कणों से मिलकर बना है। इस प्रकार परमाणु मूल कण नहीं रहे। अब हर पदार्थ को विद्युत-आवेशित कणों का समूह मात्र माना जाने लगा। देखा गया कि परमाणु से विकिरण निकलते हैं। अब परमाणु मूल रूप में विकिरणशील विद्युदणु माने जाने लगे। परन्तु हाइड्रोजन के दो और आक्सीजन के एक अणुओं के संयोग से पानी बनने का जो प्रयोग उन्नीसवीं शती में सही था, वह अब भी सही है। ठोस द्रव और गैसीय पदार्थों के अणुओं के संयोगों का परिणाम अब भी वही होता है जो उस समय होता, जब अणु को अविभाज्य माना जाता था। इसी प्रकार परमाणु के सम्बन्ध की नवीनतम जानकारियों के कारण परमाणु बम के निर्माण की विधि गलत नहीं हुई है। सिर्फ परमाणु के सम्बन्ध में मान्यता सुधरी है।

यही बात न्यूटन के गति और गुरुत्वाकर्षण सम्बन्धी सिद्धान्त के बारे में है। गति और गुरुत्वाकर्षण के जो सिद्धान्त न्यूटन ने प्रतिपादित किये थे, वे आइन्स्टाइन के सापेक्षता-सिद्धान्त से अधूरे सिद्ध हो गये। न्यूटन ने माना था कि हर वस्तु या पदार्थ से एक नियत राशि सम्बद्ध रहती है, जो उसका द्रव्यमान है। उस समय माना जाता था कि द्रव्यमान स्थिर और अपरिवर्तनीय है। यदि किसी वस्तु का द्रव्यमान 1 किलोग्राम है, तो वह सदा उतना ही रहेगा। वहाँ, उसका भार पृथ्वी तल पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने पर तथा ऊपर या नीचे जाने पर बदल जाता है। किन्तु जे.जे. टामसन ने सिद्ध किया कि द्रव्यमान भी बदलता है। विद्युत आवेशित कण वाला पदार्थ जितने अधिक वेग से चलेगा, उतना ही उसका द्रव्यमान अधिक हो जायेगा। न्यूटन के समय पदार्थ और ऊर्जा भिन्न-भिन्न समझे जाते थे। आइन्स्टाइन ने स्पष्ट किया कि गति बदलने पर पदार्थ का जो द्रव्यमान का परिणाम होता है। अर्थात् यदि कोई जहाज 25 मील के वेग से चल रहा है, तो उसका द्रव्यमान उस समय से तनिक सा अधिक होगा, जब वह जहाज स्थिर था। यह बढ़ा हुआ द्रव्यमान उस जहाज की गति से पैदा ऊर्जा का द्रव्यमान है। यह सब कहने का तात्पर्य सिर्फ यही कि गति द्रव्यमान आदि के बारे में न्यूटन के द्वारा स्थापित धारणाएँ आइन्स्टाइन के सापेक्षतावाद के प्रतिपादन से बदल गईं, परन्तु इस सैद्धाँतिक प्रतिपादन के बदलने से जहाज की गति, वायुयानों की उड़ान आदि में कोई अन्तर नहीं आया। उनमें कुछ सुधार अवश्य हुए, पर पूर्वस्थापित नियम और समीकरण पूरी तरह गलत नहीं हुए। राइट बन्धुओं को सापेक्षवाद ज्ञात नहीं था, तो भी उन्होंने वायुयान उड़ाने का सूत्र गढ़ डाला था और व्यावहारिक प्रयोग में सफल रहे थे।

ढ़ाई हजार साल पहले यूनानी दार्शनिक थेल्स ने घर्षण द्वारा विद्युत-आवेश पैदा होते देखकर बिजली के बारे में यह धारणा गढ़ी कि यह रबड़ से पैदा होने वाला आवेश है। बाद में विद्युत को धन और ऋण आवेश के बीच दौड़ने वाली धारा के रूप में जाना गया। बिजली के बल्ब, पंखे, बैटरी आदि की खोज इतने ही सिद्धान्त से हो गई। जबकि अब पता यह लगा है कि विद्युतधारा के किसी भी संवाहक में वस्तुतः झुण्ड के झुण्ड इलेक्ट्रान समूह ऋण सिरे से धन सिरे तक बहते रहते हैं। यह मान्यता-भेद सामने आने पर भी बिजली के प्रकाश की व्यवस्था में कोई फेरबदल नहीं करना पड़ा।

अविज्ञात प्रकृति का जितना अंश समझ में आ जाता है, उसे अपनी कल्पना के अनुसार नाम दे दिया जाता है। उस समझ में आ गये अंश के भी सभी गुण ज्ञात नहीं होते। पहले वाले कारण को यों समझा जा सकता है कि रसायनशास्त्रियों को जब इतनी बात समझ में आ गई कि विभिन्न तत्वों का संयोग निश्चित मात्रा मूलक अनुपातों में होता है और तब नये-नये यौगिक बनते हैं, रासायनिक प्रक्रियाएँ होती हैं, तब उन्होंने परमाणुओं की सत्ता मान ली। यानी छोटी से छोटी पदार्थ-मात्रा को परमाणु नाम दिया ताकि उनका आनुपातिक सम्मिश्रण सरल हो, उन्हें मापा जा सके और मिलाया जा सके। यह परमाणु नाम कल्पित था। आगे एक-एक परमाणु के भीतर नाच रहे प्रोट्रान और इलेक्ट्रान दिखे, उनसे उत्सर्जित होने वाले विकिरण का पता चला तो परमाणु की जगह विद्युदणु की कल्पना की गई। इस प्रकार वस्तुओं का नाम और स्वरूप जैसा समझ में आता गया कल्पना के सम्मिश्रण से उसके बारे में मान्यता बनाई जाती रही है।

दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन प्रकल्पित पदार्थों में भी भौतिकशास्त्री मात्र गणितात्मक गुणों का आरोप करते हैं। इसी प्रकार रसायनशास्त्री कुछ रासायनिक गुणों का आरोप करते हैं। इस प्रकार विज्ञान यथार्थ के स्वरूप का सम्पूर्ण विवरण नहीं दे पाता। क्योंकि आइन्स्टाइन के शब्दों में “विज्ञान में जिन्हें ‘आधारभूत सैद्धान्तिक नियम’ (वेसिक थ्योरिटिकल लाँज) कहा जाता है। वे वस्तुतः वैज्ञानिक कल्पना की स्वच्छन्द सृष्टियाँ होते है।”

भौतिक विज्ञानी ने पदार्थों के परमाणु या विद्युदणु का माप देखा-समझा। वे किस मात्रा में संयोग-वियोग से क्या बनते हैं, यह परखा। परन्तु इससे परे की विशेषताएँ वह नहीं जान सकता। अमुक वस्तु के परमाणुओं या विद्युदणुओं की ये-ये विशेषताएँ हैं, इतना ही वह बता सकता है। इससे भिन्न और कोई विशेषता नहीं है; यह वह कभी भी दावा नहीं करता। अमुक वस्तु में ये-ये रासायनिक गुण हैं, इतना एक रसायनशास्त्री बता सकता है। उनके अतिरिक्त और किसी प्रकार के गुण नहीं हैं, यह वह नहीं कहता। चेतन वस्तुओं में सिर्फ भौतिक, रासायनिक या अन्य विज्ञान द्वारा सेप विशेषताएँ ही रहें, यह अनिवार्य नहीं। इसलिये विज्ञान के सूत्रों को सही मानते हुए भी यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे अधूरे हैं। और उनसे विश्व या चेतना सम्बन्धी कोई अन्तिम सिद्धान्त नहीं जाना जा सकता। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, पहले जो सैद्धान्तिक -निष्कर्ष सही माने जाते थे, आज उनमें से अनेक गलत माने जाते हैं।

वैज्ञानिकों की कल्पना के क्षेत्र की भी अपनी सीमाएँ हैं, इसीलिए उनके द्वारा प्रतिपादित मान्यताओं का सही होना आवश्यक नहीं। विशेषकर सृष्टि-सम्बन्धी व्याख्याएँ, विश्व-व्यवस्था के नियम और प्राचीन सभ्यताओं के बारे में धारणाएँ आधुनिक वैज्ञानिक सूत्रों से नहीं समझी जा सकतीं। कोई रसायन-शास्त्री या भौतिकविद् यदि किसी व्यक्ति के शव का रासायनिक - भौतिक विश्लेषण परीक्षण करे, तो उससे प्राप्त नतीजों द्वारा वह उस व्यक्ति के जीवित अवस्था के स्वभाव-व्यवहार को ठीक-ठीक नहीं जान सकता।

यहाँ मनुष्य के शव का उदाहरण समझाने के लिए ही दिया गया है। अमुक व्यक्ति के शव में कार्बन, लोहा, शीशा, ताँबा या विभिन्न अम्ल आदि के अवशेष किस मात्रा में हैं या शरीर, संरचना कैसी है, अंतःस्रावी ग्रन्थियों की आकृति कैसी है, खोपड़ी कैसी है; देह के अवयव सुगठित हैं या नहीं, आँतें और पाचन प्रणाली स्वस्थ है या नहीं, आदि जानने के बाद भी उस व्यक्ति की चेतना का स्तर क्या था, संस्कार क्या थे, यह जानना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य समाज का अतीत में स्वरूप क्या था, विकास की किन स्थितियों से वह गुजर चुका है, इसके बारे में निश्चित रूप से जानना तभी सम्भव है, जब परीक्षण-विश्लेषण करने वालों को मानव-जीवन और सृष्टि-विकास के सभी रूपों की निश्चित जानकारी हो। जिसकी परिकल्पना ही सम्भव नहीं, उसका परीक्षण प्रयोगशाला में ठीक से नहीं हो पाता। यों तीर-तुक्का भिड़ाते-भिड़ाते कभी कोई आकस्मिक जानकारी मिल भी सकती है - किन्तु उतने भर से सुनिश्चित सिद्धाँत नहीं गढ़े जा सकते।

जो लोग आध्यात्मिक प्रतिपादनों की पुष्टि या ईश्वरीय सत्ता की उपस्थिति की जाँच के लिए वर्तमान वैज्ञानिक आधारों और नियम-सूत्रों का सहारा ढूंढ़ते हैं, या वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में ही ईश्वरीय सत्ता को पकड़कर दिखाने का आग्रह करते हैं, उन्हें ये तथ्य भली−भांति समझ लेने चाहिए। अभी तक विज्ञान द्वारा पदार्थ की सत्ता ही नहीं पकड़ी जा सकी है। उसके बारे में ही मान्यताएँ आये दिन बदल रही हैं। इसलिए आत्मा को पकड़ कर दिखाने की माँग एक ऐसी माँग है, जो विज्ञान से उसकी शक्ति सीमा के बाहर का कार्य करने की माँग कही जा सकती है। उदाहरण देना हो, तो यह कह सकते है कि ऐसी माँग किसी पहलवान से दर्शन-शास्त्रीय गुत्थियाँ सुलझाने या किसी सहजता से परमाणु-भट्टी का संचालन करने की माँग जैसा है। यों, प्रयास-परिश्रम से पहलवान दार्शनिक भी हो सकता है और संगीतज्ञ परमाणुविद् बन सकता है। परन्तु उसके लिए कार्य-क्षेत्र, अभ्यास-विधि और जीवन-क्रम की दिशा बदलनी होगी। एक वैज्ञानिक अध्यात्मवेत्ता भी हो सकता है, आइन्स्टाइन जैसे वैज्ञानिकों ने आध्यात्मिक अनुभूतियाँ की भी हैं। किन्तु वे वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की परिधि के बाहर ही सम्भव हो सकी है।

आध्यात्मिक तथ्यों का निरूपण-विश्लेषण अध्यात्म की प्रयोगशालाओं में ही हो सकता है। आत्मसत्ता का अनुभव-क्षेत्र भौतिक-सत्ता के अनुभव-क्षेत्र से परे हैं। जो ऋषि-मनीषी, प्रज्ञा-पुरुष अध्यात्म के प्रयोग करते रहे हैं, वे ही उसके निष्कर्ष जान सकते हैं। और बता सकते हैं। यों, मान्यता बनाने के जिए सभी स्वतन्त्र हैं। अभी भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो यह मान्यता बनाये बैठे हैं कि चन्द्रलोक की यात्रा एक गल्प है। बताते हैं कि चीन की जनता को बहुत दिनों तक यही बताया जाता रहा कि अमेरिका के अन्तरिक्ष-अभियान के दावे गपबाजी हैं। अमरीका तो ‘कागजीशेर’ है और वहाँ की पूँजीवादी सभ्यता अपने ही बोझ से चरमराकर टूट रही है। अपनी जनता का ध्यान अपनी विफलताओं से हटाने के लिए ही अमरीकी शासक अन्तरिक्षीय उड़ानों के किस्से गढ़ते रहे हैं। इस प्रचार को ही चीनी जनता सत्य मानती रही और उसे वास्तविक तथ्य बहुत बाद में ज्ञात हुए।

आत्मा और परमात्मा के प्रति मनचाही मान्यता भी बनाये रखी जा सकती हैं। धर्म के नाम पर भ्राँत मान्यताएँ फली-फूली भी हैं। उनकी अवास्तविकता स्पष्ट है। किन्तु इतने से ही आध्यात्मिक तथ्य भी असत्य-अवास्तविक नहीं हो जाते। न ही उनके वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुरूप होने की बाध्यता हो सकती है। आत्म-सत्ता की अनुभूति के उपकरण, शोध की विधियाँ और प्राप्त परिणाम -से सभी वैज्ञानिक उपकरणों विधियों तथा परिणामों से भिन्न हैं। उसके रहस्यों को समझने के लिए ज्ञान-चक्षु, विवेक-दृष्टि, विकसित अन्तःकरण और आध्यात्मिक तत्व वेत्ताओं द्वारा निर्दिष्ट पथ का अनुसरण आवश्यक है। तभी चेतना के क्षेत्र में सत्य की शोध और लक्ष्य की उपलब्धि सम्भव है। यों, मानने को आस्तिकता के नाम पर भी भ्रान्तियाँ सही मानी जा सकती हैं, नास्तिकता के नाम पर भी।

मात्र पदार्थ, के स्वरूप और उपयोग की विधि−व्यवस्था को जान लेने से चेतना के स्वरूप और उससे सम्बन्धित सभी तथ्यों को जान लिया, ऐसा नहीं माना जाना चाहिए। शीर्षस्थ विज्ञान मनीषी आज एक स्वर से यह कह भी रहे हैं। “फ्राम द फिजिकल टू द सोशलः साइन्सेज” के लेखक जाक रुएफ ने स्पष्ट लिखा है -”हमारे पास यह जानने का कोई आधार नहीं हैं कि भौतिक शास्त्र के सिद्धान्त जिन कारणों का उद्घाटन करते हैं, वे वस्तुओं की असली प्रकृति हैं या नहीं।” आइजेन वर्ग ने इसीलिये कहा है कि “जैसे ही हम वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा प्रकृति का रहस्य जानने की चेष्टा करते हैं, वैसे ही प्राकृतिक स्वरूप में व्यवधान उपस्थित करते हैं। हम जो जानते हैं, वह प्रकृति के साथ हमारी क्रियाओं-प्रयोगों की प्रतिक्रिया है। उसे प्रकृति का वास्तविक स्वरूप नहीं माना जा सकता।”

जब प्रकृति के बारे में ही यह बात है तब पुरुष या चेतन तत्व का स्वरूप तो वैज्ञानिक प्रयोगों से कथयपि नहीं जाना जा सकता। जो कुछ जाना जाता है, वह पदार्थ के अमुक-अमुक स्वरूप के संपर्क एवं ज्ञान से चेतना में उत्पन्न हलचल-विशेष है। स्वयं समग्र चेतना का स्वरूप इससे नहीं ज्ञात हो पाता।

चेतन-सत्ता का वास्तविक स्वरूप ऋतम्भरा प्रज्ञा, अन्तरात्मा या अंतर्मन द्वारा ही जाना जा सकता है। योग भूमिका में प्रवेश के बिना चेतन-तत्व को जानने के प्रयास कुछ और नयी अटकलें- मान्यताएँ ही सामने ला सकते हैं, तथ्य नहीं।


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