साधनों का प्रथम चरण

June 1979

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सिद्धार्थ के राज भवन में किसी महान सन्त का आगमन हुआ। बालक वर्द्धमान स्वभावतः ही सन्त महात्माओं के संपर्क सान्निध्य में बड़े आनन्दित होते थे। जब उन्हें यह पता चला कि भोजन और विश्राम के उपरान्त ही राज भवन के प्रवचन कक्ष में धर्मोपदेश की व्यवस्था की जा रही है तो पहले से ही वे वहाँ जा पहुँचे। प्रवचन कक्ष की सफाई और व्यवस्था आदि का कार्य चल रहा था। वर्द्धमान भी पीछे क्यों रहे? उन्होंने भी झाडू उठाई और लगे सफाई करने। साथ में साथी गण भी आ जुटे और यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक कि कार्यक्रम आरम्भ होने न लगा।

प्रवचन आरम्भ हुआ, वर्द्धमान भी एकाग्र चित्त हो आदि से अन्त तक सन्त के उपदेश श्रवण करते रहे। प्रवचन समाप्त होने के बाद सम्राट सिद्धार्थ ने राज परिवार के सभी सदस्यों का सन्त से परिचय कराया। जब वर्द्धमान का क्रम आया तो सन्त उन्हें अपनी गोदी में बिठाया और प्यार से सिर पर हाथ फेर कर उनकी आँखों में झाँका। अपने तपोबल से वर्द्धमान का भविष्य जानकर सन्त ने कहा -’राजन्! तुम्हारा यह लड़का भोगी नहीं, योगी ही बनेगा। और योगी भी कोई सामान्य नहीं, धर्म तीर्थ का स्थापक और तीर्थंकर। लेकिन दुःख है, मुझे इस बात का कि उस रूप में इस विभूति का दर्शन करने के लिए हम तुम जीवित न रहेंगे।’

फिर बाद में अन्यान्य चर्चायें चलने लगीं और कुछ घण्टों बाद सन्त विदा हो गये और तो सब ठीक परन्तु सन्त के भविष्य कथन से माता और पिता को बड़ा धक्का लगा। माँ को तो इतनी ठेस पहुँची कि वे सीधी अपने शयनागार में चली गयीं और शय्या पर जा गिरीं। वहाँ जोर-जोर से सिसकने लगीं। संयोग से वर्द्धमान भी उधर ही जा निकले और माँ त्रिशला को रोते हुए देखकर पूछा -’माँ तुम्हें अचानक क्या हो गया। अभी तो तुम अच्छी खासी भली थीं और अब अचानक यह रुदन क्यों?’

‘बेटा तुम अब भी पूछते हो कि मैं क्यों रो रही हूँ।’ मुझसे जीते जी यह ने देखा जायगा।’

‘क्या न देखा जायगा?’

‘क्या तुमने नहीं सुना कि अभी विदा हुए सन्तवर क्या कह रहे थे?’

‘मैंने सुना तो सब कुछ परन्तु यह नहीं जान पा रहा हूँ कि कहे हुए वचनों में से तुम्हारे रोने का क्या कारण है,?’

‘मैंने अपने मन में तेरे लिए कितनी आशायें संजों रखी हैं, पर आज उन सब आशाओं का आधार ढह गया है, जब मैंने यह सुना कि तू घर बार’ छोड़कर संन्यास ले लेगा।’

‘संन्यास’-मगर मैंने तो तुमसे ऐसा नहीं कहा।

‘आदमी को पलटने में कितना समय लगता है। आगत अतिथि सन्त ने तुम्हारी आँखों में देखकर जो भविष्यवाणी की है वह कभी झूठ नहीं हो सकती’ -त्रिशला ने अपने सन्देह को पुष्ट किया।

‘वह तो ठीक है परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं है कि मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊँगा।

‘और नहीं तो क्या? योगी कौन से घर में रहते है’-त्रिशला का अश्रु प्रवाह अविरल बह रहा था।

‘योगी घर में रहते हों या नहीं रहते हों यह तो मैं कुछ कह नहीं सकता परन्तु जब तक तुम हो और पिता श्री हैं तब तक तुम्हारी सेवा ही मेरे लिए योगाभ्यास है। जब तक आप लोग विद्यमान हैं तब तक यह त्याग मेरे लिए अभीष्ट नहीं है, यह मेरा निश्चित मत है। आपकी सेवा ही मेरा प्रथम व्रत, प्रथम धम्र और साधना का प्रारम्भिक सोपान है’ - वर्द्धमान के इन वचनों को सुनकर मातृ हृदय के सशंक सन्देह तिरोहित हो गये और वर्द्धमान ने जब तक माता-पिता रहे घर छोड़कर बन जाने एकान्त तप त्याग का अनुष्ठान करने की बात भी नहीं सोची।


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