प्रकृति के बन्धनों से मुक्त मानवी चेतना

June 1979

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सामान्य दृष्टि से मनुष्य एक सोचने, बोलने वाला पशु भर है जो अपना जीवन अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक सुविधापूर्वक चला सकता है - भविष्य के लिए सुख साधन जमा कर सकता है तथा परिस्थितियों से अधिक सक्षमता के साथ जूझ सकता है। यह सामर्थ्य अन्य प्राणियों को भी किसी न किसी रूप में प्राप्त है और वे उसके अनुसार अपना जीवन क्रम चलाते भी हैं, मनुष्य इस क्षेत्र में अन्य प्राणियों से थोड़ा कुछ आगे बढ़ा हुआ है। बुद्धि की दृष्टि से वह अन्य प्राणियों से और भी ज्यादा आगे है परन्तु फिर भी मनुष्य की क्षमतायें सीमित हैं और प्रकृति पर उनका कुछ वश नहीं है। भौतिक दृष्टि से तो मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में कईयों से बहुत पिछड़ा हुआ भी है। लेकिन चेतना के क्षेत्र में मनुष्य की बराबरी अन्य कोई दूसरा प्राणी कर ही नहीं सकता।

उदाहरण के लिए अन्य प्राणी प्रकृति के नियमों में रहते हुए ही अपना जीवन क्रम चलाते हैं। लेकिन मनुष्य प्रकृति के अनुशासन में रहने के लिए विवश नहीं है। वह प्रकृति के अनुशासन में रहे तो उससे लाभ भी उठा सकता है और उल्लंघन करता है तो उसे हानि भी उठानी पड़ती है। वह लाभ उठाये अथवा दण्ड सहे, यह उसकी अपनी इच्छा की बात है। यह छूट उसे अपनी चेतना का स्वतन्त्र विकास करने के लिए मिली है। यदि मनुष्य इस दिशा में कुछ सफल कदम बढ़ता है तो वह अपने प्रभाव से प्रकृति को अपने नियम बदलने के लिए भी बाध्य कर सकता है।

इस सम्भावना को मनुष्य के लिए वरदान कहा जा सकता है कि वह अपनी चेतना की शक्ति को किसी दिशा विशेष में प्रयुक्त करने के लिए स्वतंत्र है। मनः शास्त्री विक्टर ई. क्रोमर का कथन है कि - यदि व्यक्ति अपनी मनःशक्ति को केन्द्रित या घनीभूत करने की कला में प्रवीण हो जाय, उसे किसी दिशा विशेष में प्रयुक्त किया जा सके तो न केवल मानवी व्यक्तित्व का कोई भी पक्ष उस प्रयोग में प्रबल और प्रमुख बनाया जा सकता है वरन् प्रकृति के नियमों को भी बदला जा सकता है।

इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए विक्टर ई.क्रोमर ने दक्षिण जापान के बौद्धमंदिरों में किये जाने वाले एक विशिष्ट धर्मानुष्ठान का उदाहरण दिया है। जापानी में बौद्ध धर्म की एक शाखा है, जिसके अनुयायी ध्यान योग पर बहुत आस्था रखते हैं और उनकी आस्था इस हद तक दृढ़ रहती कि उन्हें कठिन तितीक्षाओं से होने वाले कष्टों का भी अनुभव नहीं होता। इतना ही नहीं उनके शरीर पर इन कष्टों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

यह तो हो सकता है कि मनुष्य ध्यान किसी और दिशा में केन्द्रित हो तो उसे अपने शरीर पर होने वाले आघातों का पता नहीं चलता लेकिन शरीर पर उनका प्रभाव तो पड़ता है। जैसे कोई खिलाड़ी बड़े उत्साह के साथ कोई खेल खेल रहा है। खेलते-खेलते उसे पैर में चोट आ गयी यह तो आम तौर पर होता है कि खेलते समय उत्साह और खेल की तन्मयता के कारण उसे चोट की पीड़ा का पता न चले। लेकिन चोट लगने पर खून तो बहता ही है, जख्म तो होता ही है। रात को सोते समय जब हारे थके आदमी का मस्तिष्क भी सो जाता है तो कई व्यक्तियों को मच्छर, खटमल काटने का पता ही नहीं चलता लेकिन उनके काटने से फुन्सियाँ, सूजन तो हो ही जाती है। अर्थात् ध्यान कहीं और रहने पर भी शरीर के अपने नियम काम करते रहते है।

परन्तु दक्षिण जापान के बौद्ध मन्दिरों में होने वाले जिस धर्मानुष्ठान की चर्चा यहाँ की जा रही है। उसमें ऐसी कोई बात नहीं होती और प्रकृति के नियम अपवाद बन जाते हैं। उन मन्दिरों में जब साधक छह फुट लम्बी दहकते हुए कोयलों से सजायी गये, बेदी पर नंगे पैरों नाचते रहते हैं तथा नाचते हुए ही उस वेदी को पार करते हैं। पुरोहित आगे चलता है और अनुयायी पीछे-पीछे। इस अग्नि नृत्य में भाग लेने वाले जैन साधकों को आग से जलने का अनुभव तो दूर रहा उनके पैरों में झुलसन तक नहीं लगती। दहकता हुआ अग्निकुण्ड जिसकी आँच आस पास खड़े लोगों को भी लगती है, उन जैन साधकों के लिए ठण्डी राख के समान हो जाती है और उसी पर चलने के समान किसी के भी पैरों में उसका कोई असर नहीं होता।

मलेशिया के कई क्षेत्रों में भी इस प्रकार के धर्मानुष्ठान प्रचलित हैं। आग का स्वभाव है जलना और जलाना- फिर क्या कारण है कि वह इन धर्मानुष्ठानों में अपना नियम बदल देती है। और वह भी केवल उन व्यक्तियों के लिए जो चेतना के क्षेत्र में अन्य मनुष्यो से उन्नत समझे जाते हैं।

भारतीय तत्वदर्शियों का कथन है कि जड़ प्रकृति ही गुणमयी है और इस कारण नियम विशेष के अंतर्गत अपना काम करती है। चेतना का जो अंश जहाँ जितना विकसित होगा वह इन जड़ नियमों के अपवाद देखे जा सकते हैं। पत्थर जड़ है- अपने स्थान से बिना हटाये नहीं हटेगा परन्तु प्राणी स्वेच्छा से कहीं भी आ जा सकते हैं। बर्फ शीतल है और तप्त बालू गर्मी से अपनी इच्छा से गर्म या ठण्डी नहीं हो सकती पर मनुष्य के संपर्क में आते ही मनुष्य उन्हें इच्छानुसार पिघला सकता है या ठण्डा कर सकता है।

मनुष्येत्तर जीव जन्तु भी अपनी सीमा में रहते हुए स्थान परिवर्तन, परिस्थितियों के अनुरूप अपना परिवर्तन आदि सम्पन्न कर लेते हैं। परन्तु उनकी चेतना मनुष्य की अपेक्षा कम विकसित है इसलिए उन्हें भी कुछ मर्यादाओं का पालन करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। यह छूट केवल मनुष्य को ही मिली है कि वह इच्छित दिशा में विकास करने के लिए इन नियमों का चाहे तो अतिक्रमण कर दे।

इसे प्रकृति की अव्यवस्था नहीं कहा जाना चाहिए। वरन् यह तो और अधिक उन्नत तथा अच्छी संभावनाओं के लिए मनुष्य को दिये गये विशेष अधिकार हैं। सामान्यतः किसी मुर्दे की चीर फाड़ करना भी कानून की दृष्टि में अपराध है। श्मशान घाट अथवा कब्रिस्तान से कोई शव चुरा लाता है तो उसे दण्ड मिलता है। परन्तु डॉक्टरों और मेडिकल छात्रों को मृत व्यक्तियों का शव अध्ययन के लिए मिल जाता है तथा वे उसकी चीर फाड़ कर सकते हैं। क्योंकि इस प्रकार चिकित्सा के क्षेत्र में और अधिक प्रगति होने की सम्भावना बनती है। प्रकृति द्वारा मनुष्य को दी गयी विशेष छूट भी इसी तरह की सम्भावना को दृष्टिगत रखते हुए मिला विशेष अधिकार समझना चाहिए।

इस अधिकार का उपयोग कर मनुष्य अपनी चेतना को निरन्तर विकसित, परिष्कृत करता हुआ प्राप्त क्षमताओं का मनुष्य समाज के हित में अधिकाधिक सदुपयोग कर सकता है। उन्नत और परिष्कृत व्यक्तित्व न केवल अपने आस-पास की प्रतिकूलताओं को निरस्त कर देते हैं। वरन् ऐसे-ऐसे कार्य भी कर दिखाते हैं जिन्हें चमत्कार कहा जा सकता है। वस्तुतः चमत्कार जैसे कोई करतब होते नहीं वरन् व्यक्ति अपनी आस्था, संकल्प और निष्ठा के बल पर प्रकृति को अपने नियंत्रण में करने की ही सफलता प्राप्त करता है।

सर्वविदित है कि सर्प महाक्रोधी और स्नेह शून्य प्राणी है। वह जरा भी छेड़ने वाले को डसने और उसका प्राण हरण करने में जरा भी विलम्ब नहीं करता परन्तु आस्था व संकल्प के बल पर सर्प जैसे विषैले प्राणी को भी अपना परम सहयोगी और विश्वस्त बनाया जा सकता है। अंग्रेज साहित्यकार डी.एच.लारेन्स ने अपनी मैक्सि को सचित्र यात्रा का विवरण प्रकाशित करते हुए उस देश के रेड इंडियनों के सर्प प्रेम की चर्चा की है और बताया है कि वहाँ के लोग किस प्रकार वर्ष में एक बार मिल कर सर्प पूजा का अनुष्ठान करते है।

यह सर्प अनुष्ठान नवाजों प्रान्त के कारिजोना से 70 मील दूर स्थित वार्स्य गाँव में होता है। निर्धारित तिथि पर एकत्रित होने के लिए होपी कबीले के पुरोहित साँपों को निमन्त्रण देने उनके बिलों पर जाते हैं और उनसे मन्त्रोच्चार पूर्व अनुरोध करते हैं। यह काम साल भर तक चलता है और आश्चर्य यह कि जिन साँपों को निमन्त्रण दिया जाता है वे निमन्त्रण स्वीकार कर उत्सव में भी आते हैं। इस कबीले के लोग साँप को सूर्य देवता का विशेष प्रतिनिधि मानते हैं और उन्हें इस पूजा समारोह में आमन्त्रित कर उनकी प्रसन्नता प्राप्ति की आशा करते हैं। लारेन्स के अनुसार सर्प पूजा का यह समारोह नियत स्थान पर नियत तिथि को आयोजित होता है।

इस समारोह में प्रधान भूमिका निभाने वाले याजक नौ दिन पहले से ही उपवास करना आरम्भ कर देते हैं। निर्धारित समय पर वे अपनी विचित्र वेशभूषा में सर्पनृत्य आरम्भ करते हैं। दर्शकों से कह दिया जाता है कि वे मौन रहें अन्यथा आगन्तुक सर्प अप्रसन्न होकर दर्शकों का अनिष्ट भी कर सकते हैं। पत्तों से ढके एक गड्ढे में न जाने कितने सर्प कब से छिपे हुए बैठे रहते हैं। अनुष्ठानकर्ता मन्त्रोच्चार करते हुए उनमें से थोड़े-थोड़े सर्प पकड़ कर लाते हैं, उन्हें अपने गले में पहनते हैं और शरीर से लपेटते हैं। उनका मुँह अपने मुँह में दबाते हैं और विभिन्न मुद्राओं में सर्पनृत्य करते हैं। इस नृत्य में नर्त्तकों के शरीर से लिपटे सर्प भी भाग लेते हैं और अपने अंगों को हिलाते-झुलाते हुए आयोजनों में भाग लेने वाले याजकों की तरह रुचि तथा प्रसन्नता व्यक्त करते हैं।

अनुष्ठान जब पूरा हो जाता है तो याजक आमन्त्रित साँपों को स्वागत सत्कार के साथ विदा कर देते है तथा अगले आयोजन में फिर आने को निमन्त्रण देते हैं। लारेन्स ने लिखा हैं- मैंने इस तरह के कई अनुष्ठान देखे। विचित्र और अविश्वसनीय होने के कारण मैं उन्हें संदिग्ध दृष्टि से भी देखता रहा तथा यह जानने का पूरा प्रयास किया कि इसका रहस्य क्या है? लेकिन कहीं कोई चालाकी या फ्राड जैसी कोई बात देखने में नहीं आयी।

इस प्रश्न का उत्तर अध्यात्मक विज्ञान के पास है कि मनुष्य चाहे तो अपनी संकल्प शक्ति, आत्मबल को इतना विकसित कर सकता है कि वह किसी भी भयंकर से भयंकर और विषैले से विषैले प्राणी के साथ सौहार्द पूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। आखिर उन प्राणियों में अपने सजातीय प्राणियों से भी तो प्रेम सद्भाव होता है। प्रेम सद्भाव न सही वे उनके साथ सहजीवन तो व्यतीत करते हैं कि नहीं।

रूप, गुण, आकृति और प्रकृति में भिन्न होते हुए भी सभी प्राणियों में एक ही चेतना विद्यमान है। इस तथ्य को समझ लिया जाय तो सुनिश्चित आध्यात्मिक अभ्यासों, साधनाओं द्वारा उस चेतना से सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं अध्यात्म विज्ञान में जड़ को गौण और चेतना को प्रमुख स्थान इसीलिए मिला है कि वह स्थूल प्रकृति की मर्यादाओं से बंधी हुई नहीं है और अपना स्वतन्त्र विकास करने में सक्षम है।

मनुष्य की शारीरिक क्षमताओं के अतिरिक्त जिन शक्तियों को पदार्थ विज्ञान द्वारा अभी तक जाना अथवा अनुभव किया जा सका है वे मस्तिष्कीय शक्तियोँ हैं जिनमें इच्छा, ज्ञान, अनुभव और बुद्धि आती है। परन्तु अध्यात्म दर्शन इन शक्तियों से भी अधिक समर्थ, संकल्प आस्था और विश्वास की शक्ति को मानता है। तत्व-दर्शियों की मान्यता है कि इन शक्तियों को अर्जित विकसित करने में किन्हीं बाहरी योग्यताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती। इनके विकास का अपना अलग ही विज्ञान है और उसके अलग ही नियम हैं जिनके अनुसार क्रमबद्ध विकास होता है। श्रद्धा और विश्वास के आधार पर परिपक्व हुआ अन्तःकरण मनुष्य में इस तरह की विशेषतायें उत्पन्न कर सकता है जिनके आधार पर वह जड़ प्रकृति को भी अपने अनुकूल ढाल लेता है। तथा विपरीत स्वभाव के प्राणियों से भी मित्रता स्थापित कर लेता है।

मनुष्य की शारीरिक मानसिक क्षमताओं की एक सीमा है। मानसिक क्षमतायें शारीरिक क्षमताओं से अधिक महत्वपूर्ण हैं। इसी प्रकार मनुष्य की आत्मिक क्षमता का तो अभी अनुमान ही लगाया जा सकता है। यंत्र-तंत्र उसके दिखाई देने वाले में उदाहरण इस दिशा में संकेत कर सकते हैं।


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