राजा अश्वपति ने अपनी पुत्री सावित्री को अपने से भी अधिक विवेकशील समझ कर उसे स्वयं वर ढूंढ़ने की आज्ञा दे दी। राजकुमारी ने उपयुक्त वर की तलाश में देश-विदेश की यात्रा आरम्भ कर दी।
बहुत भ्रमण के बाद उसे वनवासी सत्यवान उपयुक्त जंचा। बेचारा लकड़ी काटता और अन्धे माता-पिता की सेवा करता था वहाँ। सावित्री वापिस लौट आई और पिता को अपने चुनाव की सूचना दे दी।
ज्योतिषी और चिकित्सकों ने सत्यवान के सम्बन्ध की परख की तो उसे केवल एक वर्ष जीवित रह सकने योग्य घोषित किया। ऐसे व्यक्ति के साथ जो एक वर्ष जीवित रहे विवाह करने से क्या लाभ? अश्वपति ने पुत्री को समझाया।
सावित्री ने कहा- ‘‘पिताजी! चिरकाल तक धुँआ करने वाली अग्नि की अपेक्षा थोड़ी ही देर प्रकाशवान रहने वाली लपटें अधिक प्रशंसनीय होती है। श्रेष्ठ आत्माओं के साथ स्वल्प काल का सुहाग भी बुरा नहीं।” शरीर को नहीं आत्मा को मैंने परखा है। मेरे चुनाव में देह का नहीं आत्मा का सुख ही प्रधान है।”
आजीवन वैधव्य की तुलना में अल्पकालीन श्रेष्ठ संगति को महत्व देने वाली सावित्री अश्वपति को विवेकशील ही दिखाई पड़ी, उसने उसे आज्ञा दे दी।
सावित्री ने सत्यवान को वरण किया। वनवास करती हुई राजकुमारी भी लकड़ी काटती हुई आदर्श जीवन बिताने लगी। समय आने पर उसने यम को भी परास्त किया और निकटवर्ती वैधव्य चिरस्थायी सुहाग में बदल गया।