जिस प्रकार चेतना प्राणियों के शरीर के रूप में व्यस्त होती है और जीवधारियों का विकास करती है उसी प्रकार वृक्ष लताओं के रस में चेतनाओं के रस में चेतना होती है और वह अपना आनन्द फूलों तथा फलों के रूप में व्यक्त करती है। जड़ या चेतना दोनों में ही चेतना बीज रूप से विद्यमान रहती है। एक अपनी जड़ता के कारण जड़ रूप में आ जाती है दूसरी सक्रियता के कारण चेतन रूप में।
इस सिद्धांत के आधार पर ही भारतीय तत्वदर्शियों ने “सर्वखल्विदं ब्रह्म”, ‘ईशावास्यामिदं सर्वम्” के रूप में सर्वव्यापी चेतन सत्ता का अनुभव कर सब कुछ चेतन है, जड़ कुछ भी नहीं का वेदान्त दर्शन विकसित किया और कहा कि मनुष्य को अपनी चेतना का परिष्कार इस हद तक करना चाहिए कि वह शरीर के तुच्छ भोगों तक ही सीमित न रहकर विश्व व्यापी विराट चेतना तक पहुँच जाये। यदि वह ऐसा नहीं करता इन्द्रिय भोगों की ओर आकृष्ट होकर अपनी चेतना को शिथिल और निष्क्रिय बनाये रहता है तो उसे जड़ योनियों में जन्म लेना पड़ता है।
जीवन जड़ योनियों में भी है परन्तु वहाँ इतनी स्वतन्त्रता नहीं है जितनी की मनुष्य योनि में। अभी कुछ दशक पूर्व तक यह माना जाता रहा था कि वृक्ष वनस्पतियाँ निर्जीव, निष्प्राण हैं। यह मान्यता भारतीय तत्व दर्शन का खण्डन करती थी। विज्ञान के अन्धभक्त वृक्ष वनस्पतियों में जीवन चेतना प्रमाणित न होने तक इस सिद्धांत की खिल्ली भी उड़ाते रहते और भारतीय दर्शन को वायवीय कह कर उसकी उपेक्षा करते रहते थे। लेकिन जब वृक्ष वनस्पतियों की जीवन चेतना भी विज्ञान सिद्ध हो गयी तो ऋषि महर्षियों के तत्व चिन्तन और अध्यात्म के माध्यम से सृष्टि रहस्यों को सुलझाने की उनकी क्षमता पर दंग रह जाना पड़ा। शास्त्रों में कितने ही ऐसे पेड़ पौधों का उल्लेख है जो वनस्पतियों के सामान्य स्वभाव से अलग विशिष्ट हलचलें करते हैं। ऐसे पेड़ पौधे आज भी दुनिया में यत्र तत्र पाये जाते है।
इन पेड़ पौधों में से कईयों के व्यवहार और क्रियायें तो अद्भुत वैचित्र्य लिये होती है। डेसिगोडियम ट्राइक्वेट्रम नामक एक पौधे में लगातार ऐसी हलचल, होती रहती है, जैसे तार करने वाली मशीन में होती है। 3 से 8 फुट तक की ऊँचाई वाले इस पौधे के पत्ते संयुक्त पत्तों के आकार के होते हैं। प्रत्येक संयुक्त पत्ते में तीन छोटी पत्तियाँ निकलती हैं- एक बड़ी पत्ती और बाजू में दो छोटी छोटी पत्तियाँ। बड़ी पत्ती में तो कोई प्रतिक्रिया नहीं होती पर बाजू में रहने वाली छोटी पत्तियों में प्रायः हलचल होती रहती है। जब दिन का तापमान 72 डिग्री का हो जाता है तो पत्तियाँ तार करते समय होने वाले संकेतों के समान हलचल करने लगती है। इस समय पौधे इस प्रकार लगने लगते हैं जैसे सभी संयुक्त पत्तियाँ तार करने वाली मशीन में रूपांतरित हो गयी हों।
इस प्रक्रिया में एक और विशेषता दिखाई देती है कि ये पत्तियाँ अक्सर वृत्ताकार घूमती हैं और साथ ही अपनी धूरी पर, भी घूमती हैं। हवा चलने या बन्द रहने पर भी इन पत्तियों के घूमने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और सुबह तक ये पत्तियाँ इसी प्रकार घूमती रहती हैं।
दक्षिण अफ्रीका के एक क्षेत्र में ऐसा पौधा पाया जाता है जो कि किसी मनुष्य की उपस्थिति से उल्लास प्रकट करता है और किसी की उपस्थिति से घबड़ाने या अपने आपको दबने या छुपाने लगता है। इस पौधे का नाम “ऐसिटिव प्लाँट” है। इसी तरह का व्यवहार वह अन्य प्राणियों से भी करता है। जिस किसी की उपस्थिति से वह प्रसन्न होता है तब उसकी पत्तियाँ गहरे गुलाबी रंग की हो जाती हैं, तथा फूलकी पंखुड़ियाँ फैलकर चौड़ी हो जाती हैं जैसे वह खिलकर, प्रसन्नता व्यक्त कर रहा हो। जिस किसी की उपस्थिति से वह रुष्ट या असंतुष्ट होता है तो उसका गुलाबी पन हल्का पड़ जाता है तथा फूल की पत्तियाँ अपेक्षा कृत सिकुड़ जाती हैं।
इसे ऐसिटिव प्लाण्ट का शर्मीलापन भी कह सकते हैं। परन्तु कई पौधे ऐसे होते है जो वास्तव में शर्मीले होते हैं। नये और अजनबी व्यक्ति के साथ कोई व्यक्ति जिस प्रकार संकोच पूर्वक व्यवहार करता है ठीक उसी तरह ये भी व्यवहार करते हैं। यहाँ तक कि पौधे तो परम्परा निष्ठ परिवार की कुलवधू के समान दूसरों को देख कर अपने व्यवहार को तुरन्त बदल देते हैं और उसी तरह शर्माने लजाने लगते हैं। भारत में पाये जाने वाले एक विशेष प्रकार के पौधे का नाम तो इसी कारण लाजवन्ती पड़ गया है। यह पौधा और दूसरे प्राणियों से तो नहीं शर्माता परन्तु मनुष्य के पास पहुँचते ही अपनी पत्तियों को इस प्रकार सिकोड़ने लगता है जैसे कोई नव वधू अपनी ससुराल वालों को या बड़े व्यक्तियों को देखकर अपने कपड़े सम्हालने लगती है कि कहीं कोई अंग उघड़ा हुआ तो नहीं है।
छुईमुई के पौधे में इमली की पत्तियों के समान बारीक बारीक पत्तियाँ होती है। इस पौधे के पास कोई पहुँचता है और हाथ से छूता है तो पत्तियाँ तुरन्त सिकुड़ कर इकट्ठी हो जाती है। जिन क्षेत्रों में यह पौधा पाया जाता है, वहाँ इसकी कितनी ही विचित्रताओं के चर्चे सुनने को मिलते हैं।
अफ्रीकन वायलेट भायक पौधा छुईमुई के पौधे की तरह ही शर्मीला है परन्तु कुछ भिन्न ढंग का। छुई मुई की पत्तियाँ जहाँ छूने से सिकुड़ जाती हैं वहीं इस पौधे की पत्तियों पर पानी की एक बूँद भी पड़ जाती है तो तत्क्षण उस स्थान पर एक दाग पड़ जाता हैं। यह दाग पत्ती के सूखने तक नहीं मिटता।
सूर्यमुखी का फूल उधर ही झुका रहता है जिधर कि सूर्य स्थित रहता है। रात के समय भी यह उसी क्रम में घूमता रहता है। पृथ्वी तो अपनी कीली पर घूमती रहती हैं। पृथ्वी के उसी क्षेत्र में रात होती है, जो क्षेत्र दूसरे गोलार्द्ध में आ जाता है लेकिन सूर्य के सामने तो पृथ्वी का घूमना जारी ही रहता है। लाख बादल हों और कितने ही व्यवधान पर सूर्यमुखी का पौधा सूर्य की ओर उन्मुख रहने का व्रत नियम पूर्वक निभाता है।
बहुत से पौधे ऐसे भी होते हैं जिनके फूल दिन या रात में समय विशेष पर ही खिलते हैं। इस प्रकार की विशेषताओं से सम्पन्न पुष्पपादपों में एक पुष्प पादप जो भारत में पाया जाता है- रात की रानी के पौधे से तो प्रायः सभी परिचित हैं जिसके फूल रात के समय ही महकते हैं। परन्तु ‘सरियस ग्रेण्टी फ्लोर’ नामक पौधे के फूल, तो खिलते भी रात के समय ही है। रात में प्रायः नौ बजे के बाद पौधे के फूल खिलना आरम्भ होते हैं और इसके साथ ही फैलने लगती है, उनकी महक। आधी रात तक फूल पूरी तरह खिल जाते हैं और उनकी महक चारों ओर फैल जाती है। फिर इसके बाद रात ढलने के साथ साथ फूल मुरझाने लगता है और सुबह होने तक पौधा पुनः सामान्य अवस्था में आ जाता हैं।
इन विशेषताओं को देखते हुए यह मानने का कोई कारण नहीं है कि पेड़ पौधों का व्यवहार भी स्वभाव गत विशेषताओं से संचालित होता है। जीव विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि कई पौधे ऐसे हैं जिनके सम्बन्ध में अभी तक यह निश्चित नहीं किया जा सका है कि उन्हें वनस्पति माना जाये अथवा जीव जन्तु। इस तरह के पौधे या जन्तु में ‘डायटम’ को प्रस्तुत किया जा सकता है। इसके सम्बन्ध में वैज्ञानिक अभी तक यह तय नहीं कर पाये हैं कि उसे पौधा माना जाय अथवा जन्तु क्योंकि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के अनुसार तो वह पौधे के गुण रखता है जबकि उसके दूसरे गुण एक कोशीय जीवाणुओं के समान है।
डायटम से भी स्पष्ट उदाहरण कैटर पिलर का है जो प्रत्यक्ष रूप से एक योनि से दूसरी योनि में परिवर्तित होता है। कैटट पिलट प्रारम्भ में किसी कीड़े की तरह इधर उधर घूमता रहता है। न उसमें प्रकाश संश्लेषण होता है और न ही वह कार्बन डाई ऑक्साइड ग्रहण करता है। पौधे का विकास निषेचित (फर्टिलाइज्ड) और परिपक्व बीजाण्ड से होता है। मूलांकुर जड़ की ओर चल पड़ता है और प्राँकुर तने की ओर। धीरे धीरे यही बीजाण्ड पूरा वृक्ष बन जाता है किन्तु कैटर पिलट नामक कीड़े में नर-मादा के संयोग का कोई चक्कर नहीं, उसकी देह के किसी भी हिस्से से एक नन्हीं सी टहनी फूट पड़ती है और बस तभी उसमें कीड़े वाले गुण समाप्त हो जाते हैं।
वह टहनी प्रकाश संश्लेषण द्वारा बढ़ने लगती हैं प्रकाश संश्लेषण एक ऐसी क्रिया है जिसमें क्लोरोफिल नामक तत्व की उपस्थिति में पौधे सूर्य के प्रकाश से अपना आहार ग्रहण करते हैं। प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना आहार ग्रहण और पोषण प्राप्त करते हुए यही कीड़ा एक दिन बड़ा सा वृक्ष बन जाता है। अर्थात् टहनी न फूटने तक तो वह एक कीड़ा रहता है और टहनी फूटते ही पौधा बनकर वृक्ष बनने लगता है।
वनस्पति जगत में वृक्ष संसार पादप-परिवार के कितने ही सदस्य ऐसे हैं। जो कितनी ही विशेषतायें लिए रहते हैं और इस बात का प्रमाण भी है कि उनमें तथा जीव तन्तुओं में कोई अन्तर नहीं हैं। भारतीय महर्षियों ने जीवन चेतना और उसके स्थूल स्वरूपों का विवेचन करते हुए 84 लाख योनियाँ बतायी हैं। जिनमें मनुष्य भी एक है। मनुष्य के अतिरिक्त जलचर, नभ चर देव, पितर, गंधर्व, यक्ष, प्रेत योनियों के अलावा स्थावर योनियाँ भी है। स्थावर अर्थात् जो स्थिर रहें, चल फिर न सकें, वृक्ष वनस्पति इन स्थावर योनियों में ही आते है। विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करने लगा है कि जीवन चेतना केवल चलाय मान ही नहीं है वरन् वह स्थिर रहने वाली वस्तुओं में भी विद्यमान रहती है। जीवन के इसी स्वरूप को वैज्ञानिकों “इम्मूवेवल लाइफ” कहा है।
इससे आगे भारतीय तत्वविदों का कहना है कि परिष्कृत व्यक्तित्व जहाँ अपने रो ऊँची योनियों में जाते हैं वहीं विकृत और अपरिष्कृत व्यक्ति पतित होकर निम्न योनियों में जा पड़ते हैं यह ठीक है कि मनुष्य को अन्य योनियों की अपेक्षा ईश्वरीय अनुदान अधिक मिले हैं। किन्तु उनका उपयोग केवल वासना, लालसा और इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही किया जाय तो यह अवसर हाथ से निकल कर पुनः निम्न योनियों में भेज दिया जाना निश्चित है। यह योनि पशु पक्षियों की योनि होंगी अथवा वृक्ष वनस्पतियों की स्थावर योनि-यह अपने कर्मों पर निर्भर है। परन्तु ईश्वर की ओर से मनुष्य जीवन में एक चुनाव का अवसर है वह या तो उन्नत स्थिति में जाये अथवा पीछे वापस लौटे। बीच में ठहरने की कोई छूट नहीं है। अतः यही श्रेयस्कर है कि अपनी चेतना को परिष्कृत कर ऊर्ध्वगामी बनाया जाय इसे यथावत् अथवा पतित कर जड़ नहीं बनने दिया जाय।