ब्रह्मवादिनी पत्नी का सान्निध्य प्राप्त कर राजा शिखिध्वज की प्राप्ति और आत्म साक्षात्कार करने की प्रेरणा हुई। शिखिध्वज को लम्बा समय हो गया था, राज्यसुख और ऐश्वर्य का उपभोग करते हुए परन्तु इससे उन्हें किसी भी प्रकार तृप्ति नहीं मिली थी। जबकि उनकी पत्नी सामान्य स्तर की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए भी विलक्षण शान्ति और अद्भुत तृप्ति का आस्वादन करती थी। ब्रह्मवादिनी राजमहिषी के मुखमण्डल पर इस शान्ति और अक्षय तृप्ति के कारण अलौकिक तेज छाया रहता था। नेत्रों में अद्भुत आभा चमकती थी और शरीर अनुपम काँति से दमकता था।
इसका कारण पूछा तो रानी ने बताया कि त्याग से ही यह शक्ति प्राप्त हुई है। इस उत्तर को प्राप्त कर और ब्रह्मविद्या की प्राप्ति का उपाय जानकर शिखिध्वज ने भी उसे प्राप्त करने का निश्चय किया। उन्होंने देखा कि साँसारिक सुखों के भोग से वासनायें तृप्त होने के स्थान पर और बढ़ती ही जाती है कोई प्रतिकूलता न होने पर भी चित्त अशाँत ही रहता है। यह सब विचार कर वे राज्यभोग से खिन्न हो गये। उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत-सा धन दान दिया, अनेकानेक तप-अनुष्ठान किये, चित्त को फिर भी शान्ति नहीं मिली।
विचार उठा कि राजपाट छोड़कर अरण्य में जा बैठा जाय और वहीं जप-ध्यान-तप उपवास द्वारा आत्मोपलब्धि की जाय। शिखिध्वज ने अपना यह विचार राजमहिषी को बताया और कहा-”भद्र’! तुम प्रजा का पालन करो और मुझे तपश्चर्या के मार्ग पर जाने दो।
रानी ने समझाया-’प्रत्येक कार्य का समय होता है। यदि आत्मोपलब्धि ही ध्येय है तो उसे कही भी रहते हुए सिद्ध किया जा सकता है। अभी आप अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए यहीं रहें। यथासमय हम दोनों ही वानप्रस्थ लेंगे और अरण्यवास कर लोक मंगल के लिए तप करेंगे।
शिखिध्वज को यह परामर्श गले नहीं उतर। वे वन को चले गये। किन्तु वर्षों तक कठोर साधनायें करने के बाद भी जब चित्त को सच्ची शान्ति नहीं मिली तो शिखिध्वज निराश से रहने लगे। परन्तु जिस मार्ग का उन्होंने अपनाया था उससे वे वापस लौट भी नहीं सकते थे। लौटने का कोई अर्थ भी नहीं था, क्योंकि जिस जीवन को छोड़कर उन्होंने यह मार्ग अपनाया था, वह जीवन भी तो क्लान्ति, अतृप्ति और अशान्ति के सन्ताप से भरा हुआ था।
महाराज शिखिध्वज की व्यथा आकुलता बढ़ती ही जा रही थी। वे यह निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि क्या करें और क्या न करें? तभी उन्होंने एक ऋषि कुमार को सरिता तट से अपनी कुटिया की ओर आते हुए देखा। उन्होंने ऋषिकुमार का दौड़कर स्वागत किया। प्रणाम कर अर्घ्य आदि दिया तथा परिचय आदि के लिए वार्तालाप आरम्भ करते हुए ऋषिकुमार ने पूछा-”आप कौन है?”
‘संसार’ रूपी भय से भीत होकर मैं इस वन में रहता हूँ’-राजा ने अपना परिचय देकर कहा-’जन्म मरण के बन्धन से मैं डर गया हूँ। कठोर तप करते हुए भी मुझे शान्ति नहीं मिल रही है। मेरा प्रयत्न कुण्ठित हो गया है। मैं असहाय हूँ आप मुझ पर कृपा करें,”
‘जन्म-मरण से मुक्ति और कर्मों से निवृत्ति तो एकमात्र ज्ञान के द्वारा ही प्राप्त होता है’- ऋषिकुमार ने कहा- ज्ञानी कर्म करते हुए भी अकर्ता ही रहता है। कर्मबन्धन उसे लिप्त नहीं करते क्योंकि वह कर्म और कर्मफल के प्रति अनासक्त रहता है। यह आसक्ति ही है जो मनुष्य को इस मायामय संसार बन्धनों से बाँधती है। आप ज्ञान को शस्त्र बना कर कर्म बन्धनों को काटिये।’
‘उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए ही तो मैं यह तप अनुष्ठान कर रहा हूँ। उसी के लिए मैंने दण्ड और कमण्डलु धारण किये हैं। फिर भी अभी तक कोई सफलता नहीं मिली’ शिखिध्वज ने कहा।
‘अपने अन्तःकरण पर चढ़े मल, विक्षेप और आवरणों को हटाने के लिए तप, अनुष्ठान आवश्यक है पर इतने मात्र से ही ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती। ज्ञान प्राप्ति के लिये आत्मतत्व का श्रवण, मनन, निदिध्यासन भी चाहिए।’
शिखिध्वज ने उन ऋषिकुमार को ही तत्वोपदेश का आग्रह किया और कहा-”मैं आपका शिष्य हूँ, आपका अनुगत हूँ; अब आप कृपा करके मुझे ज्ञान का प्रकाश दें।’
“ज्ञान को ग्रहण करने के लिए आवश्यक हैं कि साधक अपने चित्त को सब ओर से खाली कर दे। सब आश्रय और अवलम्बनों का परित्याग कर दे।
‘यह वन ही मेरा आश्रय है, मैं इसे छोड़े देता हूँ। अब मैं इस कुटिया को छोड़ कर कही नहीं जाऊँगा - शिखिध्वज ने व्रत लिया।
परन्तु यह कुटिया भी तो वन में -ऋषिकुमार ने कहा। शिखिध्वज कुटिया की सब सामग्री समेट कर उस कुटिया को भी छोड़ देने की तैयारी करने लगे। इस पर ऋषिकुमार ने कहा-”राजन् यह तो सर्वत्याग नहीं हुआ। आप इस वन और कुटिया को छोड़ रहे हैं तो अन्यत्र कहीं जाकर रहने लगेंगे। क्योंकि आपने सारी सामग्री तो अपने साथ ले जाने के लिए समेट ली।”
इस पर शिखिध्वज ने कुटिया में से एकत्र की गयी सब वस्तुओं को अग्नि में समर्पित कर दिया। उन्होंने आसन, कमण्डलु, दण्ड आदि सभी कुछ एक-एक करके अग्नि में डाल दिया। वे सोचने लगे कि अब तो ऋषिकुमार उन्हें सर्वस्व त्यागी और आकिंचन मान लेंगे। परन्तु ऋषिकुमार के इन वचनों ने उनकी आशा जैसे निर्ममता से चूर-चूर कर दी। उन्होंने कहा-राजन्! आपने अभी तो कुछ भी नहीं छोड़ा है। जो कुछ छोड़ा है वह तो सर्वत्याग का अभिनय मात्र था। आपने जो कुछ जलाया है, उसमें आपका अपना था ही क्या? वे तो सब प्रकृति विनिर्मित वस्तुएँ थीं।”
शिखिध्वज ने विचार किया कि यह शरीर तो अपना है। इसका परित्याग कर दिया जाय तो सम्भवतः सर्वस्व त्याग हो जाय। यह सोचकर शिखिध्वज बोले-आप ठीक कहते हैं महात्मन्। अभी मैंने कुछ नहीं छोड़ा है; क्योंकि इनमें मेरा कुछ नहीं था किन्तु मैं अब सर्वत्याग कर रहा हूँ।’
यह कह कर शिखिध्वज अपने शरीर की आहुति देने को उद्यत हुए ही थे कि ऋषिकुमार ने कहा-तनिक ठहरिये आप फिर गलती कर रहे है। आप क्या समझते हैं कि यह शरीर आपका है। शरीर भी आपका नहीं है। शरीर को तो प्रकृति ने बनाया है। उसे नष्ट करने से क्या होगा?
“तब मेरा क्या है?”-अब नरेश थक से गये थे और उन्हें अब ऐसी कोई वस्तु नहीं दिखाई दे रही थी जो मेरी कही जा सके।
“यह जो पूछ रहा है कि मेरा क्या है केवल वही आपका है और आपका कुछ नहीं है’-ऋषिकुमार ने कहा आप उसी का परित्याग कीजिये।’
शिखिध्वज कुछ न समझे से अवाक् देखते रह गये। ऋषिकुमार ने उनकी कठिनाई को समझा और कहा - “यह जो विचार करता है कि यह मेरा है। यही परित्याग करने योग्य है। इसी का नाम अहंकार है। इस अहंकार को कि यह मेरा है, छोड़ दीजिये क्योंकि वास्तव में आपका कुछ भी नहीं है। न वस्तुएँ अपनी हैं न सम्बन्ध अपने हैं वस्तुतः अपनी सत्ता को मैं की सीमा में बाँध लेना ही अहंकार है। अपनी सत्ता को उस विराट् चेतना का ही एक अड़ उसी का एक अंश बल्कि मूलतः वही है-इस सत्य का बोध तभी होता है जब व्यक्ति अपनी ही बनायी हुई अहं ही कारा को तोड़ देता है।”
ऋषिकुमार के इन शब्दों ने शिखिध्वज के सम्मुख ब्रह्मविद्या के समस्त रहस्यों को अनावरित कर दिया। उन्हें अपना अस्तित्व ही तिरोहित, शून्य सा होता जा रहा प्रतीत होने लगा। इसके बाद लगा कि अभूतपूर्व शान्ति उनके मन-मस्तिष्क और चेतना में छा गयी है। तभी ऋषिकुमार ने कहा-व्यक्ति अपने अहंकार का त्याग कर कर्तव्य कर्मों का भली−भांति आचरण करते हुए इसी संसार में सक्रिय जीवन व्यतीत करते हुए निर्लिप्त, अनासक्त और मुक्त रह सकता है।
इसके बाद शिखिध्वज पुनः नगर में लौट आये। उनकी ब्रह्मवादिनी और अलौकिक शान्ति की आभा चमकती हुई देखी।