विज्ञान की कसौटी पर ध्यान

January 1979

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आत्मा शान्ति और ‘ईश्वर’ प्राप्ति के लिए की जाने वाली समस्त साधनाओं में ध्यान का प्रमुख स्थान है। प्रायः सभी धर्मो ने अपनी उपासना पद्धतियों में ध्यान को किसी न किसी रूप में अपनाया है। भारतीय धर्म में ‘ध्यान’ ईसाई धर्म में ‘होर्सचाज्म’ यहूदी धर्म में ‘कब्बालह’ इस्लाम मत में ‘तसब्बुफ’ जापान के जैन धर्म में, जो भारतीय धर्म की ही एक प्रशाखा है ‘जानने’ आदि उपासना विधानों का एक ही अर्थ है। ध्यान की परिभाषा करते हुए गीताकार ने कहा है -’योगी को चाहिए कि वह एकान्त स्थान पर बैठकर, सब इच्छाओं, आकाँक्षाओं को त्याग कर किसी भी परिग्रह की कामना न करते हुए अपने मन को परमात्मा में एकाग्र करें।’

इस तरह किये जाने वाले योगाभ्यास के परिणाम बताते हुए कहा गया है -’जिसने अपने मन को इस प्रकार वश में कर लेने वाला आत्म तत्व को प्राप्त कर परमशान्ति और जीवन में समस्वरता को प्राप्त करता है। सर्वविदित है कि याँत्रिक सभ्यता के आधुनिक युग में मनुष्य का जीवन इतना तनावपूर्ण हो गया है कि दिन में मनोयोग से कार्य करना और रात्रि में पूर्ण विश्राम में जाना दूभर हो गया है। जिन देशों में यान्त्रिक सभ्यता अपने शिखर पर है वहाँ के निवासियों का सामान्य जीवन असामान्य रूप से अशान्त और तनाव पूर्ण ही पश्चिम के एक मनःचिकित्सक डा. बेनसन ने आधुनिक समाज में मनुष्य मन पर पड़ने वाले दवाओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि- ‘आश्चर्य यह नहीं है कि लोग इतनी अधिक संख्या में मनःरोगों से ग्रस्त क्यों है? बल्कि आश्चर्य तो इस बात का है कि सामान्य आदमी अपने आस-पास के दबावों और तनावों को झेल किस प्रकार रहा है। इन दबावों के रहते तो मानसिक विक्षिप्तता स्वाभाविक ही है।’

आगे चल कर डा. बेनसन का कहना है कि मनुष्य अपना संतुलन बनाये रखने के लिए प्रकृति से आवश्यक ऊर्जा प्राप्त करता रहना है। अन्यथा उसका टूट जाना नितान्त सहज है। फिर भी यह सन्तुलन कब तक बना रहेगा, मनुष्य अपनी उदार माता से कब तक अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त करता रहेगा-कहना कठिन है?

डा. बेनसन अपने सहयोगियों के साथ सामान्य जीवन पर ध्यान के प्रभावों का अध्ययन कर रहे हैं। इस विषय पर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है “रिलैर्क्सरान रिस्पोंस’ (विश्राम के परिणाम) डा. हर्बर्ट-बेनसन एक मनःचिकित्सक होने के साथ हृदय रोगों पर शोध कार्य भी कर रहे हैं। वे हार्वर्ड फेकल्टी में हृदय रोग विशेषज्ञ हैं। हृदय तन्त्र की कार्यविधि और संवेगों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन करते हुए वे ध्यान की ओर आकर्षित हुए। शरीर पर ध्यान के पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करते हुए उन्होंने जो निष्कर्ष प्राप्त किये उन्हीं का विवेचन उपरोक्त पुस्तक में किया गया है।

इस पुस्तक के अनुसार नियमित रूप से बीस मिनट ध्यान करने के परिणाम व्यक्ति को पूरे दिन तरोताजा हल्का-फुल्का और शान्त चित्त बनाये रखने के लिए पर्याप्त है। यह परिणाम तो गाड़ी नींद में भी प्राप्त किये जा सकते है? परन्तु ध्यान के प्रभाव निद्रा से मिलने जुलते होने के उपरान्त भी इतने भिन्न हैं कि उसकी तुलना नींद से नहीं की जा सकती है। डा. बेनसन और डा. बैलेस ने 1962 व्यक्तियों का परीक्षण कर, जो नियमित रूप से ध्यान करने का अभ्यास करते थे यह प्रतिपादित किया कि- ‘ध्यान लगाने के कुछ मिनट बाद ही सारे शरीर की जैविक प्रक्रिया मन्द पड़ जाती है और वह भी इस सीमा तक जो कई घण्टों की गहरी नींद के बाद प्राप्त होती है। ध्यान में तीन मिनट के भीतर ही ऑक्सीजन की खपत दर में 16 प्रतिशत कमी आ जाती है, जब कि पाँच घण्टे की नींद में केवल 9 प्रतिशत ही कमी आती है।

डा. बेनसन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ध्यान के कारण व्यक्ति की त्वचा में अवरोध क्षमता की अभिवृद्धि भी होती है। यद्यपि यह अभिवृद्धि सोते समय भी बढ़ती है किन्तु -ध्यान में यह जिस गति और मात्रा में बढ़ती है उतनी गाढ़ी से गाढ़ी नींद में कभी नहीं बढ़ती। अब रोग क्षमता का अर्थ है शरीर को बाहरी विद्युत प्रभावों से मुक्त रखने की सामर्थ्य। जिन व्यक्तियों में यह सामर्थ्य जितनी कम होती है वे उतनी ही जल्दी उन्माद और इसी प्रकार के अन्य मानसिक रोगों से आक्रान्त होते हैं। व्यक्ति जब जितना अधिक चिन्तित, व्यथित और व्यग्र होता है तब उतना ही ज्यादा पसीना आता है। इसके साथ ही शरीर से कुछ ऐसे तत्व भी निकलने लगते हैं जो अवरोध क्षमता बनाये रखने में सहायक होते है। ऐसी स्थिति में त्वचा द्वारा शरीर के भीतर विद्युत तरंगें प्रविष्ट हो जाती हैं। फलतः मनुष्य कई मनोरोगों का शिकार हो जाता है।

ध्यान के द्वारा शरीर को जो ताजगी और विश्राँति मिलती है, उससे वह बाहरी चिंताओं, भयों तथा परेशानियों को सहने योग्य पर्याप्त सामर्थ्य जुटा लेता है। फलतः वह इन प्रभावों से मुक्त रहता है और विद्युत तरंगें त्वचा के माध्यम से शरीर के अन्दर नहीं घुस पातीं।

लन्दन के माडस्लो अस्पताल तथा ‘इंस्टीट्यूट ऑफ साइकिएट्री’ से सम्बन्धित डा. पीटर फेन्विक ने अपनी पुस्तक ‘मेडीटेशन एण्ड साइन्स’ में लिखा है- “मैंने और मेरे सहयोगियों ने सन् 1869 में लन्दन के अस्पताल में कुछ व्यक्तियों के मस्तिष्क की विद्युत क्रिया की जाँच की। ये लोग एक वर्ष से भी ज्यादा समय से ध्यान कर रहे थे। मस्तिष्क तरंगों की रिकाडिंग में ध्यान के समय स्पष्ट परिवर्तन नोट किए गये। वे ‘पैटर्न’ केवल उसी समय रिकार्ड होते जबकि वह व्यक्ति ध्यान में बैठा हो।

“सहज विश्राम की स्थिति में जब परीक्षणाधीन व्यक्ति नेत्र मूंदे शान्त बैठा हो तो उसके मस्तिष्क के पिछले भाग में एक स्पष्ट लय पायी जाती हैं जिसे ‘अल्फालय’ कहते हैं। यह लय सूचित करती है कि व्यक्ति जागा हुआ और सतर्क है। उनींदापन शुरू होते ही “अल्फालय”गायब होने लगती है और ‘थेटा लय’ प्रकट होने लगती है। पूर्ण प्रगाढ़ निद्रा में ही यह लय प्रकट होती है। ध्यानावस्था में दिलचस्प और असामान्य बात यह है कि उसमें ये दोनों पैटर्न साथ-साथ पाये गये। अर्थात् व्यक्ति चेतना के स्तर पर सजग और सतर्क है तथा शरीर के स्तर पर पूर्ण विश्राँति की अवस्था में है।”

डा. फेन्विक के प्रयोग और अनुसन्धानों से ध्यान तथा निद्रा में अन्तर स्पष्ट होता है। ध्यान एकदम अलग स्थिति है जबकि निद्रा एकदम विपरीत। निद्रा में व्यक्ति का शरीर, और चेतना दोनों ही सुप्त हो जाते हैं जबकि ध्यान में चेतना तो वही रहती है परन्तु शरीर, अपने तल पर पूर्ण विश्राम कर रहा होता है। कुछ लोग जो कहते हैं कि आध्यात्मिक प्रतीकों पर ध्यान केन्द्रित करने से व्यक्ति आत्म सम्मोहित-सा हो जाता है जिसे बाहरी घटनाओं का कोई बोध नहीं रहता। डा. फेन्विक के उपरोक्त निष्कर्ष, इस मान्यता को थोथी सिद्ध करते हैं। नींद का प्रभाव सोये रहने तक ही दिखाई पड़ता है। जागते ही वह प्रभाव क्षीण होने लगता है परन्तु ध्यान का प्रभाव ध्यान के बाद भी एक निश्चित अवधि तक यथावत् बना रहता है।

टेक्सास विश्वविद्यालय (अमरीका) के डा. डेविड ओर्म जौन्सन ने साइको गैल्वेनिक जाँच करके यह दिखाया कि ध्यान करने वालों में त्वचा की विद्युत रोधकता दूसरों की अपेक्षा ज्यादा विद्यमान रहती है। यही नहीं उनकी तरंगों की आकृतियाँ भी दूसरे लोगों की अपेक्षा बहुत सरल रहती है। निष्कर्षतः ध्यान से स्वायत्त स्नायु तन्त्र में स्थिरता आती है।

कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के डा. राबर्ट कीथ बैलेस ने ध्यान साधना के शरीर पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन करते हुए निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले- ‘‘जब कोई व्यक्ति ध्यान करता है तो उसकी हृदयगति, रक्तचाप, नाड़ी की चाल और श्वसन गति में एक स्वस्थ संतुलन बनता है। जैसे हृदयगति सामान्य हो जाती है, रक्त चाप भी सन्तुलन बिन्दु पर आ जाता है। श्वाँस धीमी और गहरी चलने लगती है।” उन्होंने ध्यान के कारण शरीर में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों की भी जाँच की ओर एक पूरा शोध निबंध तैयार किया। यह निबन्ध ‘साइण्टिफिक अमेरिकन’ जैसी विख्यात विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इस पत्रिका में प्रकाशित कोई भी निबन्ध की प्रामाणिकता असंदिग्ध कही जाती हैं क्योंकि पत्रिका के पास अपनी प्रयोगशाला है और पत्रिका में कोई भी सामग्री तभी प्रकाशित हो जाती है जब कि सम्पादकीय विभाग तत्सम्बन्धी प्रयोगों को अपनी प्रयोगशाला में दुहरा कर पुष्ट कर लेता है।

“इन्स्टीट्यूट ऑफ लिविंग, हार्ट फोर्ड” के डाइटैक्टर डा. बर्नार्ड सी.ग्लू एक ने भी ध्यान के प्रभावों का वैज्ञानिक परीक्षण किया। उन्होंने शरीर और मन में उत्पन्न होने वाले सभी तरह के तनावों को शान्त करने वाले सारे उपायों का परीक्षण कर देखा और दूसरे रोगियों के ध्यान का अभ्यास कराया। इन दोनों प्रकार के प्रयोगों में उन्होंने तनाव मुक्ति और निरापद शान्ति के लिए ध्यान का ही सबसे अधिक कारगर तरीका पाया।

अमेरिका की एक दूसरी विज्ञान पत्रिका ‘साइन्स’ के 18 जून 1876 के अंक में तीन वैज्ञानिकों का तैयार किया हुआ एक ध्यान सम्बन्धी लेख प्रकाशित हुआ है। ये तीनों वैज्ञानिक डा. माइकेल्स, डा. ह्यूवर और डा. मैक्नान मिशिगन यूनीवर्सिटी से सम्बन्धित हैं। इन्होंने डेट्रियर की ‘स्टूडेण्टस् इन्टर नेशनल मेडीटेशन सोसायटी’ के छह पुरुष और ‘छह’ स्त्री सदस्यों की जाँच की, जो नियमित रूप से ध्यान का अभ्यास करते थे। इस जाँच की कसौटी यह थी कि तनावग्रस्त व्यक्ति के रक्त में कैटई कोलेमीन नामक यौगिक की मात्रा बढ़ जाती है। प्रयोग के लिए चुने गये व्यक्तियों के रक्त की ध्यान से पहले जाँच की गयी। इसके बाद प्रत्येक व्यक्ति को अलग अलग एकान्त कक्ष में रखा गया। वहीं उनके लिए अलग-अलग जाँच उपकरण भी लगाये गये। इसके बाद सभी व्यक्तियों से ध्यान करने के लिए कहा गया। ध्यान का समय 3 मिनट रखा गया था। इसके साथ बारह सामान्य व्यक्ति भी चुने गये जिन्हें उतनी ही देर आँख मूंद कर बैठने को कहा गया। उनके रक्त की जाँच की भी गयी। तीनों वैज्ञानिक चौबीसों व्यक्तियों के रक्त की जाँच करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि खून में तनाव व्यक्त करने वाले ‘केटई कोलोमिन’ नामक यौगिक की मात्रा ध्यान के बाद कम हो गयी है।

वैज्ञानिक उपकरणों और प्रयोगों द्वारा ध्यान के प्रभावों का अभी इतना ही अध्ययन किया जा सका है, जबकि स्वयं इन्हीं वैज्ञानिकों का कहना है कि ध्यान के प्रभावों को विज्ञान के माध्यम से भली भाँति नहीं समझा जा सकता। इन प्रयोगों में प्रयुक्त पात्रों ने सुखासन पर बैठ कर की जाने वाली उसी ध्यान साधना का अभ्यास किया था जिसमें उन विशिष्ट शब्दों पर, जिन पर उनकी आस्था थी ध्यान को केन्द्रित किया जाता है। इन शब्दों को भारतीय दर्शन की भाषा में मंत्र भी कहा जा सकता है। अपने चित्त को पूर्णतया एकाग्र कर, चिन्तन को एक दिशा में मोड़कर की जाने वाली ध्यान साधना के चमत्कारी परिणाम सामने आ रहे है।

डा. बेन्सन और डा. बैलेस ने ध्यान आरम्भ करने के बाद व्यक्तिगत जीवन में आये परिवर्तनों को जाँचने के लिए एक प्रश्नावली तैयार की। लगभग दो हजार व्यक्तियों से उन प्रश्नों के उत्तर पूछे और पाया कि ध्यान साधना आरम्भ करने के बाद कई व्यक्ति मादक द्रव्यों, मद्यपान और धूम्रपान के दुर्व्यसनों से छुटकारा पाने में से मिलने वाली सफलता की तुलना में अधिक थी। कई व्यक्ति जो चिन्ता और तनाव के कारण बिना ‘ट्रैक्वलाइजर’ सोने के अभ्यस्त नहीं थे, नींद की गोली लिए बिना चैन की गाड़ी नींद सोने लगे। डा. पीटर फेन्विक का कहना है कि -’अभी तक ध्यान के प्रभावों के जो विपुल प्रमाण मिले हैं उनसे सिद्ध होता है। कि मनः चिकित्सा में ध्यान साधना बहुत सहायक और कारगर सिद्ध होती है।

यह तो वैज्ञानिकों के अनुभव हैं जो अपने निष्कर्षों को अभी सम्पूर्ण नहीं जानते। ध्यान के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन की यह मान्यता अपने स्थान पर पूर्ण सटीक है कि ध्यानयोग के अभ्यास द्वारा व्यक्ति जीव से ब्रह्म, आत्मा से परमात्मा और क्षुद्र से महान बन जाता है?


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