यदि जीवन में ईश्वर घुल जाय

January 1979

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जीवन के किसी भी क्षेत्र में किसी ने एकाकी, अपने ही बलबूते पर सफलता अर्जित कर ली हो ऐसा बहुत कम ही देखने में आता है। आहार मनुष्य जीवन की नितान्त सामान्य बात है, पर उसे जुटाने में ही कितने लोगों का सहयोग और साझेदारी अभीष्ट है इसे सभी जानते है।

कोई भी व्यक्ति अकेले गृहस्थ नहीं बसा सकता, पति-पत्नी मिलकर ही उस अभाव की पूर्ति करते है। एक पहिये की गाड़ी नहीं चल सकती, अकेले धन या ऋण आवेश से विद्युत धारा प्रवाहित नहीं हो सकती। जीवन के लिए जल ही आवश्यकता सभी समझते है। किन्तु काम आग के बिना भी नहीं चल सकता, एक डॉड से नाव एक किनारे खड़ी की जा सकती है, पर नदी पार नहीं कर सकती। जीवन हर व्यापार साझेदारी की नीति पर बना हुआ है, जिसमें पग-पग पर औरों के सहयोग की हर किसी को आवश्यकता पड़ती है।

बड़े कार्य और महान उपलब्धियों में तो सहयोग की अपेक्षायें और भी सघन होती है। धर्मचक्र प्रवर्तन का महान कार्य पूर्ण गौतम बुद्ध ने किया; किन्तु वह कार्य अधूरा पड़ा रहता यदि हर्षवर्धन ने आगे बढ़कर साझेदारी न निभाई होती। मान्धाता और शंकराचार्य, महाराणा प्रताप और भामाशाह, समर्थ रामदास और शिवाजी, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द की साझेदारी के पावन स्मारक और कृतियाँ अभी हजारों वर्षों तक भुलाये न भूलेंगी। अवतारों तक को भी यह नीति अपनानी पड़ी, राम के साथ लक्ष्मण, श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन, का योगदान सभी जानते हैं। अन्धे और पंगे के पूरक सिद्धान्त की तरह साझेदारी का नियम उन सभी अपूर्णताओं को दूर करता है जिसका सामना प्रायः संसार में हर किसी को करना पड़ता है।

जीवन की छोटी-छोटी बातों में ही जब सहयोग और साझेदारी का इतना महत्व है तो मनुष्य जीवन जैसे अलभ्य अवसर को सार्थक बनाने, उसे दीन-हीन तथा दरिद्र स्थिति में पड़ा न रहने देने के लिए, चौरासी लाख योनियों के पश्चात् मिले सुरदुर्लभ जीवन को सफल बनाने में उसका कितना महत्व हो सकता है यह सहज ही समझा जा सकता है।

यह साझेदारी किसकी हो? मनुष्य को मिली विभूतियाँ, और ईश्वर प्रदत्त क्षमताएँ इतनी गरिमामय है जिन्हें देखकर उसे सृष्टि का राजकुमार ही कह सकते है। शिक्षा, दीक्षा, वाणी और विचारों के आदान-प्रदान, संस्कृति और सामाजिकता के सुन्दर उपहार किसी अन्य प्राणी को वैसे ही नहीं मिले जैसे कि मनुष्य को। इतने उच्चकोटि की प्रतिभा और क्षमताओं से सम्पन्न मनुष्य की साझेदारी किसी पशु-पक्षी, जीव-जन्तु से नहीं, अपने से श्रेष्ठ से ही हो सकती है। जीवन की गहराई और उस तात्विक दृष्टि के कारण भी यह यह साझेदारी परमात्मा की ही हो सकती है। आज का मनुष्य दीन हीन स्थिति में यदि है तो उसका एकमात्र कारण ईश्वरिय साझेदारी से वंचित रहना है। यदि परमात्मा हमारे जीवन व्यापार में घुल जाय तो लोहे का सा काला कुरूप जीवन पारस स्पर्श से बने स्वर्ण की तरह और साकार कल्प वृक्ष हो सकता है। मनुष्य जीवन की अपूर्णताएँ केवल मात्र परमात्मा के संस्पर्श और साझेदारी से ही पूर्ण हो सकती है।

साझेदारी का अर्थ है मिल-जुलकर काम करना और साधनों को एकत्रित करके पारस्परिक सहमति से गति विधियों का निर्धारण करना। रीति-नीति को अपनाना। जीवन एक व्यवसाय है। एक समूचा उद्योग है। इसमें ईश्वर के साथ साझेदारी को जीवन्त कर लिया जाय तो फिर घाटे की असफलता कीविपन्नता आने की कोई सम्भावना नहीं है। आज का हमारा ईश्वर विमुख जीवन ही दुःख से घिरा और दारिद्रय से भरा रहता है। यदि उसमें ईश्वर की साझेदारी जुड़ सके तो फिर अज्ञान, अशक्ति और अभाव के तीनों ही संकटों से सदा सर्वदा के लिए निवृत्ति मिल सकती है।

यह बात सृष्टि का हर प्राणी जानता है कि जिसने जीवन लिया वह मरेगा अवश्य, किन्तु कितने लोग है जो जानते हुए भी उसके लिए तैयारी कर पाते है। महासागर की ओर प्रस्थान सभी कर रहे हैं, पर उस पार क्या है यह कोई नहीं जानता। फलतः काले पानी की सजा पाये हुए अपराधी के समान जीवन यात्रा घिसट-घिसट कर चलती है। लोग भय, अवसाद और अभाव की स्थिति में पड़े रहते है; किन्तु जिस दिन हमारे जीवन व्यापार में परमात्मा की साझेदारी जुड़ जाती है उस दिन से मनुष्य शरीर की सीमा से उठकर आत्मा के समीप चल पड़ता है। शरीर की नश्वरता के साथ ही आत्मा के अस्तित्व का बोध होता है। यह अनुभूति क्षणिक भी हो तो भी इतनी समर्थ है कि एक न एक दिन वह आत्मा साक्षात्कार की स्थिति में आवश्यक पहुँचा देती है। यही अमृतत्व की स्थिति है।

अमर आत्मा का विश्वास सचमुच भूलोक का अमृत है। इसे पान करने के उपरान्त मनुष्य की दिव्य दृष्टि खुलती है। वह कल्पना करता है कि मैं अतीत काल से सृष्टि के आरम्भ से एक अविचल जीवन जीता चला आया हूँ। अब तक लाखों करोड़ों शरीर बदल चुका हूँ। पशु-पक्षी, कीड़े, मकोड़े, जलचर, नभचरों के लाखों मृत शरीरों की कल्पना करता है और अंतर्दृष्टि से देखता है कि यह इतने शरीर समूह मेरे द्वारा पिछले जन्मों में काम में लाये एवं त्यागे जा चुके है। उसकी कल्पना भविष्य की ओर भी दौड़ती है, अनेक नवीन सुन्दर ताजे शक्ति सम्पन्न शरीर सुसज्जित रूप से सुरक्षित रखे हुए उसे दिखाई पड़ते है। जो निकट भविष्य में उसे पहनने है। यह कल्पना-यह धारणा-ब्रह्म विद्या के विद्यार्थी के मानस लोक में सदैव उठती, फैलती और पुष्ट होती रहती है। यह विचार धारा धीरे धीरे निष्ठा और श्रद्धा का रूप धारण करती जाती है जब पूर्ण रूप से, समस्त श्रद्धा के साथ साधक यह विश्वास करता है कि यह वर्तमान जीव-मेरे महान अनन्त जीवन का एक छोटा-सा परमाणु मात्र है तो उसके समस्त मृत्यु जन्य शोकों की समाप्ति हो जाती है। उसे बिलकुल ठीक वही आनन्द उपलब्ध होता है जो किसी अमृत का घट पीने वाले को होना चाहिए।

“मैं पवित्र अविनाशी और निर्लिप्त आत्मा हूँ” इस महान सत्य को स्वीकार करते ही मनुष्य अमरत्व के समीप पहुँच जाता है। उसका दृष्टि कोण अमर, सिद्ध महात्मा और देवताओं जैसा हो जाता है। इस परिस्थिति के भव-बन्धन में बँधा हुआ इधर-उधर नाचता नहीं फिरता, वरन् अपने लिए वैसे ही संसार का जान-बूझकर निर्माण करता है, जैसा आत्म-विश्वास और आत्मपरायणता का मार्ग है। यदि आप अपना सम्मान करते हैं अपने को आदरणीय मानते हैं, अपनी श्रेष्ठता और पवित्रता पर विश्वास करते हैं तो सचमुच वैसी ही बन जाते हैं। जीवन की अन्तः चेतना उसी ढाँचे में ढल जाती है और रक्त के साथ दौड़ने वाली विद्युत शक्ति में ऐसा प्रवाह उत्पन्न हो जाता है, जिसके द्वारा हमारे सारे काम काज ऐसे होने लगते हैं, जिनमें उपरोक्त भावना का प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देने लगता है आत्म तिरस्कार करने वालों के कामों को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह नीच वृत्ति का अकर्मण्य, आलसी, दास, दीन और अपाहिज है। अपने आपे का तिरस्कार करने वाले आत्म हत्यारे अपना लोक भी बिगाड़ते है और परलोक भी! उनकी उन्नति के स्रोत रुक जाते है और दीनता की सड़ी हुई कीचड़ में कीड़ों की तरह बुज-बुजाते रहते है उनका उद्धार दूसरे किसी से भी न हो सकेगा क्योंकि कृपा करके उन्हें कीचड़ से बाहर कोई निकाल भी दे तो वे फिर अपने पूर्व संस्कारों से नाली मे फिसल पड़ेंगे।

आत्मा की अमरता पर विश्वास करना ही अमृत है। “मैं अविनाशी हूँ पग पग पर दिखाई देने वाले भय को मार भगाकर निर्भयता प्रदान करने वाला यह मृत्युंजय बीज मन्त्र है अपने अन्दर पवित्रता अनुभव करने में आत्म-सम्मान है और अपने को अविनाशी समझने से आत्म-विश्वास का प्रादुर्भाव होता है। निराशा और भय के झूले में झूलने वाले लोगों को में “अविनाशी हूँ” यह मन्त्र जीवन सन्देश देता है वह कहता है-उठो। कर्तव्य पर प्रवृत्त होओ तुम्हारा जीवन अखण्ड है, कपड़े बदल जायेंगे, पर तुम नहीं बदलोगे शरीर बदल जायेंगे, पर जीवन नहीं बदलेगा। अपने ऊपर विश्वास करो। आत्मा और परमात्मा पर विश्वास करो तुम्हें कोई नष्ट नहीं कर सकता। इस विश्वास के सहारे उसका जीवन तेजस्विता से परिपूर्ण श्रद्धामय आनन्दमय हो जाता है।

परमात्मा को साझेदार बनाने का अर्थ है वह प्रतिक्षण हमारे जीवन के हर क्रिया कलाप में घुला हुआ आच्छादित रहे हम कभी उससे रिक्त न रहें। यह वह अमृत है जो समस्त चिन्ता और तृष्णाओं को समाप्त कर देता है। मृत्यु और जीवन को वह एक ही जुए में जोत देता है, दोनों का यह जोड़ा कितना भला मालूम देता है। जो मृत्यु और जीवन को सम्मान की दृष्टि से देखता है वह धन्य है। शोक, मोह, चिन्ता, क्लेश, पश्चाताप, तृष्णा, पाप आदि की छाया भी ऐसे मनुष्यों तक नहीं पहुँच पाती।

जीवन में अभय की प्राप्ति, आत्मा के दर्शन, मुक्ति निर्वाण को सर्वोपरि पुरुषार्थ कहा जाता है। उसे पाकर मनुष्य समर्थ हो जाता है, पर यह, सम्भव तभी है जब परमात्मा हमारे साथ घुला रहे। जिसके अन्तः करण में यह परमार्थ जाग गया उसका जीवन धन्य हुआ ही माना जाता है।

संसार के एक व्यक्ति की इच्छायें प्रायः (1) आरोग्य और दीर्घ जीवन (2) आर्थिक सम्पन्नता (3) तथा सफलता और सम्मान की प्राप्ति के इर्द गिर्द ही घूमती रहती है। हर व्यक्ति किसी ऐसे पारस पत्थर की तलाश में रहता है जो लोहे जैसी उसकी मनोकामनाओं का स्पर्श करके ही उन्हें स्वर्ण में परिवर्तित कर दे। ऐसा कोई पत्थर संसार में किसी को मिल गया हो-ऐसा अभी तक सुनने में नहीं आया; किन्तु परमात्मा की साझेदारी एक ऐसा पारस प्रदान करती है जो जीवन को सोने जैसा सुन्दर बना देती है उस समय यह सांसारिक इच्छाऐं भी तुच्छ प्रतीत होने लगती है।

यह पारस क्या है? यह है प्रेम। एक काला-कलूटा आदमी जिसे आए पूर्णतया कुरूप, गँवार या असभ्य कह सकते है, अपनी स्त्री के लिए कामदेव-सा रूपवान और इन्द्र के समान सामर्थ्यवान लगता है। जैसे शची अपने इन्द्र को पाकर प्रसन्न है, उसकी सेवा करती है और अपने को सौभाग्यशालिनी मानती है, वैसे ही एक भीलनी अपने अर्धनग्न और धनहीन भील को पाकर प्रसन्न है। विचार कीजिए की इसका कारण क्या है? जो आदमी सबके कुरूप और गन्दा लगता है वह एक स्त्री को इतना प्रिय क्यों लगता है? इसका कारण है-प्रेम। प्रेम एक प्रकार का प्रकाश है, अँधियारी रात में आप अपनी बैटरी की बत्ती से किसी वस्तु पर रोशनी फेंके तो वह वस्तु स्पष्ट रूप से चमकने लगेगी; जब कि पास में पड़ी दूसरी अच्छी-अच्छी चीजें अँधियारी के कारण काली-कलूटी और श्री हीन-सी मालूम पड़ेगी, तब वह वस्तु जो चाहे सस्ती या भद्दी क्यों न हो बैटरी का प्रकाश पड़ने के कारण स्पष्टतया चमक रही होगी अपने रंग रूप का भला प्रदर्शन कर रही होगी, आँखों में जँच रही होगी। प्रेम में ऐसा ही प्रकाश है। जिस किसी से भी प्रेम किया जाता है वही सुन्दर, गुणकारी, लाभदायक, भला, बहुमूल्य, मनभावन मालूम पड़ने लगता है। माता का दिल जानता है कि उसका बालक कितना सुन्दर है। अमीर अपने हीरे-जवाहरात और महल की जैसी कीमत अनुभव करते है गरीबों को अपनी टूटी-फूटी झोंपड़ी फटे-पुराने कपड़े और मैले-कुचैले सामान से भी वैसी ही ममता होती है।

प्रेम एक सजीव बिजली है; वह जिसके ऊपर पड़ती है उसे गतिशील बना देती है। निराश, उदास, रूखे, गिरे हुए और झुँझलाये- झल्लाये हुए लोगों को एक दम परिवर्तित कर देती है। वे आशा, उत्साह, उमंग, प्रसन्नता और प्रफुल्लता से भर जाते है देखा गया है कि उपेक्षा और तिरस्कार ने जिन लोगों को दुर्जन बना दिया था वे ही प्रेम की डली चखकर बड़े उदार, सद्गुणी और सज्जन बन गये। दीपक स्नेह की चिकनाई को पीकर जलता है, मनुष्य का जीवन भी कुछ ऐसा ही है। जिसे स्नेह से खींचा गया है, उसका दिल हरा और फला फुला रहेगा। जो स्नेह से वंचित है वह सूखा, झुंझलाया दुखी, निराश और अनुदार बन जायगा। इसलिए दूसरों को यदि अपना इच्छानुवर्ती, मधुर-भाषी, प्रिय-व्यवहारी बनाना है तो इस निर्माण कार्य के लिए प्रेम चाहिए। अन्धकार को प्रकाश में, निर्जीवता को जीवन में, मरकट को उद्यान में बदल देने की शक्ति का नाम प्रेम है। इतनी चमत्कार पूर्ण, सजीव परिवर्तन कर सकने वाली शक्ति को यदि पारस कहा जाता है तो कुछ अत्युक्ति की बात नहीं है।

ऐसा पारस वास्तव में बनाया गया होता तो सृष्टि क्रम असंतुलित और बाधित होने में कोई आशंका न थी, पर इस पारस में जो परमात्मा के रूप में मिलता, जीवन के हर क्षण, हर स्वाँस को स्वर्णमय बना देता है। प्रेम का अन्त वहीं होता है जहाँ स्वार्थ और मोह भरा हो। जिसे ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास होगा, जो संसार के वास्तविक स्वरूप को पहचानता होगा वह आत्मा से प्यार करेगा, शरीर से नहीं। ऐसे व्यक्ति के लिए न तो कोई अपना न पराया वरन् सभी में एक ही प्रेमास्पद सत्ता उसे ओत-प्रोत दिखाई देगी। यह दिव्य दृष्टि, यह निर्मलता जीवन को आनन्द से परिपूर्ण बना देती है। जिसने उसका रसास्वादन किया, मीरा, कबीर, सूर, तुलसी, नानक बन गया है।

परमात्मा के सान्निध्य से प्राप्त होने वाली तीसरी निधि कल्पवृक्ष की है। कल्पवृक्ष तपस्वी जीवन के रूप में फलित होता है। तप का अर्थ है (1) सच्ची लगन और निरन्तर प्रयत्न-यही दो महान साधनायें है; जिनसे परमात्मा प्रसन्न होता है और इच्छित वरदान प्रदान करता है।

जो भी अपना कार्यक्रम बनाया हो, जो भी जीवनोद्देश्य बनाया हो उसे पूरा करने में जी-जान से जुट जाना चाहिए। सोते-जागते उसी के सम्बन्ध में सोच-विचार करते रहें और आगे का रास्ता तलाश करते रहें। परिश्रम! परिश्रम!! घोर परिश्रम!!! आपकी आदत में शामिल होना चाहिए। मत सोचिये कि अधिक काम करने से आप थक जायेंगे, वास्तव में परिश्रम एक स्वयं-चालक-शक्ति है, जो अपनी बढ़ती हुई गति के अनुसार कार्यक्षमता उत्पन्न कर लेती है। उदासीन, आलसी और निकम्मा व्यक्ति दो घण्टा काम करके, एक पर्वत पार कर लेने की थकान अनुभव करता है, किन्तु उत्साही, उद्यमी और अपने काम में दिलचस्पी लेने वाले व्यक्ति सोने के समय को छोड़ कर अन्य सारे समय लगे रहते हैं और जरा-भी नहीं थकते। सच्ची लगन, दिलचस्पी, रुचि और झुकाव एक प्रकार का डायनुमा है, जो काम करने के लिए क्षमता की विद्युत शक्ति हर घड़ी उत्पन्न करता रहता है।

उत्साह, स्फूर्ति, लगन, धुन, परिश्रम-प्रियता, साहस धैर्य, दृढ़ता और कठिनाई को देखकर विचलित न होता यह तप के लक्षण है। जिसने तप द्वारा इन गुणों को पैदा किया, अपने मनोवाँछित तत्व को पाने के लिए खून-पसीना बहाना सीखा, वह एक प्रकार का सिद्ध है। कल्पवृक्ष की सिद्धि उसके आगे हाथ बाँधे खड़ी रहती है। ऐसे आदमी जो चाहते है; कर गुजरते हैं। जो चाहते है प्राप्त कर लेते है। नेतृत्व, लोक-सेवा, धन उपार्जन, प्रतिष्ठा ज्ञान, भोग आदि सम्पदाएँ पाने को जिनके मन में लालसाएँ उठती हों उन्हें सबसे पहले अपने को तपस्वी बनाना चाहिए। आलस्य, प्रमाद, समय आ अपव्यय, बकवाद, ठलुआपन्थी, निराशा, निरुत्साह, अस्थिरता आदि दुर्गुणों को हटाकर तपश्चर्या के सद्गुणों को अपने अन्दर धारण करना चाहिए। तप ही कल्पवृक्ष है। जिस किसी ने इस दुनिया में कुछ पाया है, परिश्रम से पाया है। आप भी कुछ पाना चाहते है तो अदम्य उत्साह के साथ घोर परिश्रम करना अपना स्वभाव बनाइये। इस साधना के फलस्वरूप आपको कल्पवृक्ष जैसी प्रतिभा मिलेगी और उसके द्वारा आपकी सब प्रकार की इच्छा, आकाँक्षाएँ आसानी से पूरी हो जाया करेगी।

परमात्मा को अपने जीवन व्यवसाय में साझेदार बनाकर उपरोक्त तीनों अनुदान- वरदान प्राप्त किये जा सकते है। साझे में चलने वाली कई कम्पनियाँ दूसरों से पूँजी प्राप्त कर अपना काम चलाती है। इसी प्रकार कई मालिकों को अपने पिता से ही उतराधिकार मे सम्पत्ति मिल जाती है और वह उसको चतुराई से उपयोग करता हुआ अपनी सम्पन्नता श्री समृद्धि, को बढ़ाता रहता है। परमात्मा भी आपके जीवन में यह पूँजी लगाने के लिए तैयार है। आपको भी उत्तराधिकारी में यह सम्पदा प्राप्त हो रही है। आप इसका उपयुक्त नियोजन और सदुपयोग करने में जरा चतुराई बरतिये तो सही।


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