मनुष्य के शरीर में 70 प्रतिशत पानी है। यदि किसी का वजन 67 किलोग्राम है, तो उसके शरीर में 45 किलोग्राम से भी ज्यादा पानी होगा। दाँत के बाहरी आवरण जो सख्त लगते हैं तक में 2.1 प्रतिशत पानी होता है। लार में तो 1/10 प्रतिशत ही दूसरे पदार्थ होते हैं। शेष सब पानी ही रहता है। रक्त में 80 प्रतिशत और माँस पेशियों में 74 प्रतिशत पानी होता है।
शरीर में इतना पानी रहना आवश्यक है। पानी की सहायता से ही शरीर भोजन को पचाता तथा भोजन से प्राप्त प्रोटीन और लवणों को आगे बढ़ाता है। शरीर की क्रियाशीलता के परिणाम स्वरूप जो टूट फूट होती है वह पसीने और पेशाब के रूप में पानी द्वारा ही निकलती है। इस प्रकार मनुष्य शरीर के निर्माण में पानी का महत्वपूर्ण भाग रहता है। यही नहीं उसके पोषण, सुरक्षा और व्यय हुई शक्ति के पुनरार्जन में भी पानी की मुख्य भूमिका रहती है।
सामान्य समझा जाता है कि शरीर का पोषण और रक्षण भोजन, वायु और विश्राम द्वारा ही होता है। इन तत्वों और क्रियाओं द्वारा थके शरीर को शक्ति संपादन करने तथा टूट फूट की मरम्मत करने में सहायता मिलती है। एक सीमा तक इन्हें ग्रहण करने की क्रिया शरीर को बनाये रखने और शक्ति अर्जित करते रहने में मुख्य महत्व भी रखती है। परन्तु पानी की आवश्यकता उन सब वस्तुओं से अधिक महत्वपूर्ण है। कहा जाय कि सारा शरीर ही जलमय है, जल से बना हुआ है तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इस तथ्य को प्रतिदिन पीये जाने वाले पानी की मात्रा से भी समझा जा सकता है। भोजन के रूप में जितना ठोस आहार नहीं खाया जाता उससे अधिक पानी पीना पड़ता है। हालाँकि भोजन का अधिकाँश भाग भी पानी में ही बना होता है तो भी पीये जाने वाले पानी की मात्रा उससे अधिक होती है। हम जो भोजन करते है उसके पचाने की प्रक्रिया का अध्ययन करने पर भी पानी का महत्व समझा जा सकता है। प्रमुखतः आहार का पाचन उदर एवं छोटी आँत में होता है। उदर में पहुँचने पर आहार कई रासायनिक प्रतिक्रियाओं से गुजरता है, यह प्रतिक्रिया उन रसों से होती है जो आँत और आमाशय की ग्रन्थियों से निसृत होते हैं। इस प्रतिक्रिया का रूप यह होता है कि खस तत्व ऐसे तत्व में बदल जाते हैं जो छोटे-छोटे व्यूहाणुओं से निर्मित होते हैं।
आहार को इस प्रकार कई पाचक सोपानों से होकर गुजरना पड़ता है। माँस एमोनो एसिड में बदलते हैं तोल स्नेहिल एसिड में बदलते हैं। व्यूहाणु इतने छोटे होते हैं कि वे छोटी आँत के 50 लाख स्पीतियों में से तैरकर निकल जाते है। रक्त का 60 प्रतिशत भाग जलीय होता है और प्लाज्मा में मिल जाता है तथा शेष बची हुई सामग्री के छोटे छोटे व्यूहाणु के शवल सूक्ष्म शिराओं के ‘जाल से होते हुए प्रतिहारिणी शिरा तक पहुँचते हैं जहाँ से रक्त प्रवाह उन्हें यकृत तक ले जाते हैं।
यकृत प्रत्येक प्रकार के भोजन को आवश्यकतानुसार हीं रक्त प्रणाली में पहुँचने देता है। शेष या तो यकृत में संचित हो जाता है अथवा नष्ट हो जाता है जब कभी किसी प्रकार के भोजन की न्यूनता होती है तो यकृत उसकी पूर्ति अपने इसी संचित कोष में से करता है।
प्लाज्मा को यकृत से पानी को छोड़कर अन्य सभी तत्व मिलते हैं क्योंकि प्लाज्मा स्वयं ही अपने मूलरूप में पानी होता है, जो आहार ग्रहण किया जाता है। उसमें केवल पानी ही ऐसा होता है जो बिना किसी रासायनिक परिवर्तन के पाचन संस्थान द्वारा सोख लिया जाता है। और प्लाज्मा का अंग बन जाता है यदि पानी की मात्रा बढ़ जाती है तो वह गुर्दा द्वारा छन जाता है। गुर्दे पानी का उपयोग रक्त स्वच्छ करने में करते हैं।
शरीर को स्वस्थ और शक्तिशाली बनाये रखने के लिए आहारविदों ने इसीलिए पानी का उपयोग प्रचुरता से करने का परामर्श दिया है। बहुत से व्यक्ति पानी का कम से कम उपयोग करने की सिफारिश करते हैं। कई लोग प्यास लगते रहने पर भी पानी नहीं पीते और प्यास को मारते रहते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह हानि-कारक ही है। क्योंकि पानी के अभाव में शरीर पेशाब, पसीने तथा अन्य विसर्जन क्रियाओं द्वारा शरीर में उत्पन्न हुए विकारों को हटाने में अक्षम हो जाता है। इसलिए जाड़ा या गर्मी बीमारी हो अथवा स्वस्थ स्थिति, पानी का यथेष्ट उपयोग करना चाहिए।