मनः स्थिति सन्तुलित रखिये

January 1979

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जीवन में प्रायः रोज ही इस तरह की घटनायें घटित होती है। जिनमें से कुछ के कारण प्रफुल्लता और आह्लाद फूट पड़ने लगता है तथा कुछ को देखकर क्षोभ होने लगता है जो घटनायें स्वयं स सम्बन्ध रखती है, उनमें से कई घटनाओं के कारण खेद, क्षोभ, क्रोध, उत्तेजना, दुःख, विषाद और रोष जैसे भाव उत्पन्न होने लगते है। इन भावनाओं को-जिनके कारण शरीर तन्त्र उत्तेजित हो उठता है-संवेग कहते हैं और इनकी प्रतिक्रिया का केन्द्र, मस्तिष्क होता है।

मस्तिष्क चूँकि सारे शरीर का नियन्त्रणकर्ता और संचालक है अतः वहाँ होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव भी निश्चित रूप शरीर पर पड़ता है। इन मानसिक संवेगों का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है? मनोवैज्ञानिकों के लिए यह सदा से ही अनुसंधान का विषय रहा है और इस दिशा में जो खोजें की गयी उनसे विभिन्न शारीरिक समस्याओं को सुलझाने में भी सहायता मिली।

सम्वेदना और भावनाओं में आने वाली उत्तेजना के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाले तनाव में पिट्यूटरी तथा ऐड्रनेल ग्रन्थियों द्वारा सोमोटोट्राफिक हार्मोन तथा डेसोक्साइकोटि कोस्टेरोन नामक हार्मोन उत्साहित होते है। फलतः तनाव के कारण सरदर्द, उच्च रक्तचाप, रूमेटिक अर्थराइट्स, गैस्ट्रिअल्सर, हृदयरोग तथा अन्य कितने ही विकार रोग उत्पन्न होते हैं।

क्रोध, घृणा, कुण्ठा अथवा निराशा के रूप में मानसिक तनाव या दबाव के कारण न केवल भोजन देर में पचता है, वरन् उससे पेट की अन्य गड़बड़ियाँ भी उत्पन्न हो सकती है यहाँ तक कि अल्सर भी और आदमी में वृद्धावस्था के लक्षण प्रकट होने लगते है।

शरीर संस्थान पर मनोविकारों के ऐसे कितने ही दुष्प्रभाव पड़ते है और उन सभी मनोविकारों के क्रोध सर्वाधिक विषैला तथा तुरन्त प्रभाव डालने वाला मनोविकार है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डा. केनन ने संवेगों के मनुष्य शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करने के लिए अनेकों प्रयोग किये और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पाचन रस और अंत्रस्राव पर संवेगों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। जब संवेग तीव्र होता है तो अन्तः स्राव कम होने लगता है और पाचन क्रिया में गड़बड़ी होने लगती है। जब संवेग ठीक रहते है तो पाचन क्रिया भी ठीक−ठाक चलने लगती है। अन्तः स्राव किस परिमाण में होता है यह संवेगों के स्वभाव पर ही निर्भर करता है। भय का संवेग तीव्र होने पर इसका प्रवाह कम परिमाण में होता है और क्रोध का संवेग तीव्र होने पर अधिक।

क्रोध चूँकि एक उत्तेजनात्मक आवेग है अतः इसका कुछ प्रभाव तो तुरन्त ही देखा जा सकता है, जैसे आँखों में लाल डोरे तन जाते है, शरीर काँपने लगता है, हृदय की धड़कनें बढ़ जाती है आदि। क्रोध के कारण होने वाली शारीरिक शक्ति ह्रास को जानने के लिए डॉक्टर अरोल और डा. केनन ने अनेक परीक्षण किये और इस परिणाम पर पहुँचे कि क्रोध के कारण उत्पन्न होने वाली विषाक्त शर्करा पाचन शक्ति के लिए सबसे खतरनाक है। यह रक्त को विकृत कर शरीर में पीलापन, नसों में तनाव, कटिशूल आदि पैदा कर देती है। क्रोधाभिभूत माँ का दूध पिलाने पर बच्चे के पेट में मरोड़ होने लगती है और हमेशा चिड़चिड़ी रहने वाली माँ का दूध कभी-कभी तो इतना विषाक्त हो जाता है कि बच्चे को जीर्णरोग तक हो जाते है।

न्यूयार्क के कुछ वैज्ञानिकों ने चूहे के शरीर में क्रोध से उत्पन्न विषाक्तता का “परीक्षण किया था। उन्होंने देखा कि ‘बाईस मिनट बाद चूहा मनुष्य को काटने दौड़ा, पैंतीसवें मिनट पर उसने अपने को ही काटना शुरू कर दिया और एक घण्ट के भीतर पैर पटक-पटक कर मर गया।

क्रोध से शारीरिक शक्ति का ह्रास होता है तो मानसिक शक्ति भी क्षरित होती है। अमेरिका के प्रसिद्ध मनःचिकित्सक डा. जे. एस्टर नामक वैज्ञानिक ने क्रोध के कारण होने वाली मानसिक शक्ति के ह्रास के संबंध में कहा है- “ पन्द्रह मिनट क्रोध के रहने से मनुष्य की जितनी शक्ति नष्ट होती है उससे वह साधारण अवस्था में नौ घन्टे कड़ी मेहनत कर सकता है। शक्ति का नाश करने के साथ क्रोध शरीर और चेहरे पर अपना प्रभाव छोड़कर उसके स्वास्थ्य व सौंदर्य को भी नष्ट कर देता है। शरीर में जहाँ-तहाँ नीली नसें उभर आती है, जवानी में ही बुढ़ापे के चिन्ह प्रकट हो जाते है, आँख की कटोरी के नीचे काली धारी और गोलक में लाल डोरे पैदा हो जाते है।

कईबार लगता है कि क्रोध उत्पन्न होने के लिए हम उतने जिम्मेदार नहीं है जितनी कि परिस्थितियाँ। वैसी स्थिति में क्रोध पर नियन्त्रण करने और उसके कारण उत्पन्न होने वाले तनाव से अपने आपको बचाये रखने के लिए क्या करना चाहिए? इस तरह की समस्याओं के मनोवैज्ञानिक समाधान सुझाते हुए अमेरिका के प्रसिद्ध मानस चिकित्सक डा. जार्ज स्टीवन्सन और डा. विन्सेण्ट पील ने स्नायविक तनाव दूर करने के उपायों पर एक पुस्तक लिखी है ‘लाइफ, टेन्शन एण्ड रिलेक्स।’ इस पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर सिद्धान्त रूप में तीन वाक्य लिखे है- “क्रोध आये तो किसी भी प्रकार के शारीरिक श्रम में लग जाओ। किसी काम का विपरीत परिणाम निकले तो स्वाध्याय या मनोरंजन में लग जाओ तथा शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए व्यायाम को अनिवार्य समझो।”

क्रोध के समान ही चिन्ता, दुःख व्यथा और अन्यान्य संवेगों को नियन्त्रित करना भी सीखना चाहिए। जीवन के प्रति सन्तुलित दृष्टिकोण अपनाने वाले व्यक्ति ही मानसिक संवेगों को तटस्थ या सन्तुलित भाव से ग्रहण कर सकते है। फिर भी किन्हीं अवसरों पर जब अनियन्त्रित संवेग उत्पन्न होने लगें तो वैसी स्थिति में शरीर पर होने वाली प्रतिक्रियाओं को जबरदस्ती दबाना नहीं चाहिए। इन प्रभावों को भी संवेगों के भार से मुक्त करने का एक अचूक उपाय बताया गया है। न्यूयार्क के एक विश्वविख्यात मनोरोग चिकित्सक डा. विलियम ब्रियान ने यह मत व्यक्त किया है कि- ‘आँसू, दुःख, चिन्ता, क्लेश व मानसिक आघातों से मुक्ति दिलाने तथा मन को हल्का-फुल्का बनाकर आकस्मिक हुई मनःव्यथाओं को सहने में सहायता पहुँचाते हैं।’ अमेरिकी औरतों का उदाहरण देते हुए डा. ब्रियान ने कहा है कि- मर्दों की अपेक्षा औरतों की लम्बी आयु का रहस्य यह है कि वे खूब रोती है। वे ऐसी फिल्में देखने की शौकीन है कि जिनमें बार-बार रोना आता है। इस तरह आँसू लाने से जीवन लम्बा हो जाता है। क्योंकि रोने के कारण व्यक्ति की दबी हुई भावनाओं को बड़ी राहत मिलती है। रोने के कारण दमित भावनाओं के निष्कासन से ब्रण तथा हृदय के रोगों में भी लाभ पहुँचता है।

भारतीय धर्मदर्शन ने जीवन जीने की ऐसी पद्धति को विकसित किया है कि उसमें भावनाओं के अनियन्त्रित उभार, असन्तुलन तथा मानसिक तनाव जैसी परिस्थितियों का शिकार होने से अपने आप बचाव हो जाता है। जैसे कहा गया है कि जीवन और जगत् की प्रत्येक घटना को प्रभु की लीला, अनुकम्पा मानकर चलना चाहिए। सुख-दुःख में सन्तुलित, मान अपमान में लाभ हानि में सन्तुलित व्यक्ति सुखी रहता है। गीता में कहा भी गया है ---

सुख दुखे समेकृत्वा लाभा लाभौ जया जयौ। निरार्शीयत चित्तात्मा ज्ञेयः स नित्य सुखी॥

तथा दूसरा वह व्यक्ति इन घटनाओं के प्रति सन्तुलित रह सकता हैं जो किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता। जिस ढंग से भी हो जीवन में संतुलन को साधना चाहिए। सुख और शान्ति और आशाप्रद भविष्य की सम्भावनायें इसी सन्तुलन में निहित है।


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