अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने एक परीक्षण के लिए किसी व्यक्ति को आपरेशन टेबल पर लिटाया और उसे कुछ मिनटों के लिए सम्मोहित कर सुला दिया जब वह सम्मोहन अवस्था में सो रहा था। तो उसके गले पर एक छुरी चुभाई गयी। उससे खून की एक बूँद छलक पड़ी। इसके बाद ही वैज्ञानिकों ने उसकी सम्मोहन निद्रा तोड़ दी और जगा दिया। यह सारा प्रयोग कुछ ही मिनटों में हो गया था और जितने समय तक वह व्यक्ति सोया वह तो कुछ ही सेकेंड थे। उन कुछ ही सेकेंड में उस व्यक्ति ने एक लम्बा सपना देख लिया था।
डा. रोशे ने उस स्वप्न का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इन कुछ ही सेकेंडों में उस व्यक्ति ने एक आदमी की हत्या कर दी थी। वह महीनों तक लुकता छुपता रहा था। अंततः पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया उस पर हत्या का मुकदमा चला-मुकदमे का फैसला होने में दो ढाई साल लगे- जज ने उसे मृत्यु दण्ड की सजा सुनाई और उसे जब फाँसी के तख्ते पर चढ़ाया गया तभी उसी क्षण नींद खुल गयी।
वैज्ञानिकों का कहना था कि इस प्रयोग में वह व्यक्ति पाँच सात सेकेंड ही सोया था और इस अवधि में उसके लिए वर्षों का घटना क्रम गुजर गया। यह प्रयोग आइन्स्टीन के समय सिद्धाँत की सत्यता जाँचने के लिए किया जा रहा था। जिसके अनुसार समय का कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं है। वह दो घटनाओं के बीच की दूरी मात्र है- जो कुछ भी हो सकती है, परन्तु मनुष्य को अपने ज्ञान व अनुभूति के आधार पर ही लम्बी अथवा छोटी लगती है।
तो क्या सचमुच समय कुछ भी नहीं है? सुबह से शाम तक और शाम से सुबह तक 24 घण्टे होते है। इन चौबीस घण्टों में हम कितने ही काम करते है। घड़ी अपनी चाल से चलती है, सूर्य अपनी गति से क्षितिज के इस पार से उस पर तक पहुँचता है। सब कुछ तो स्पष्टतः प्रतीत होती है परन्तु आइन्स्टीन के अनुसार यह सब एक भ्रम मात्र है। फिर तो सारा संसार ही भ्रम मात्र हो जायगा।
वस्तुतः सारा संसार ही एक भ्रम है। वेदान्त दर्शन के अनुसार सारा जगत ही मायामय है। माया अर्थात् जो नहीं होने पर भी होता दिखाई दे। जिसका अस्तित्व नहीं है परन्तु भासित होता है। शंकराचार्य ने इस माया की परिभाषा करते हुए कहा है-”माया यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयतो” अर्थात्--वही माया है जिससे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है।
आइन्स्टीन से पहले इन्द्रिय बुद्धि, द्वारा होने वाले अनुभवों और प्रत्यक्ष जगत् को ही सत्य समझा जाता था। इससे पूर्व के वैज्ञानिकों की मान्यता थी कि आप दौड़ रहे हो अथवा बैठे हो, जाग रहे हो या सोये हुए हो, समय अपनी सीधी बँधी रफ्तार से बराबर आगे बढ़ता है। परन्तु आइन्स्टीन के सापेक्षता सिद्धाँत ने इस मान्यता को छिन्न भिन्न कर दिया है और यह सिद्ध हो गया है कि समय कुछ घटनाओं का जोड़ भर है। यदि घटनायें न हों तो समय का कोई अस्तित्व नहीं होता और घटनायें भी दृष्टा की अनुपस्थिति में अस्तित्व हीन होती है।
इस बात को कतिपय उदाहरणों द्वारा आसानी से समझा जा सकता है। समय को मापने का सबसे बड़ा माप दण्ड घड़ी है। घड़ी मैं सेकेंड का काँटा 12 से चल कर 12 तक पहुँचने पर, एक मिनट होता है, मिनट का काँटा इतनी दूरी तय कर लेता है तो मान लिया जाता है कि एक घण्टा हो गया और घंटे का काँटा इतनी दूरी तय कर लेने पर आधा दिन तथा तथा आधी रात बता देता है। अर्थात् 12 से 12 तक दूसरी बार पहुँचने पर 24 घण्टे या एक दिन पूरा हुआ मान लिया जाता है। आइन्स्टीन का कहना था कि घड़ी के काँटे की गति बढ़ा दी जाये तो यही 24 घण्टे 36 घण्टे में भी बदल सकते हैं और कम कर दी जाये ता तो 20 या उससे भी कम, चाहे जितने हो सकते है। अर्थात् यह बात बेमानी है कि दिन 24 घण्टे का होता है अथवा उससे कम ज्यादा है।
इस अनुसार घड़ी का यह विभाजन पृथ्वी द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा पूरी कर लेने वाली घटना को आँकने के लिये किया गया। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि पृथ्वी एक बार सूर्य की परिक्रमा कर लेती है तो 24 घण्टे हो जाते है। लेकिन चन्द्रमा सूर्य की परिक्रमा करने में इससे भी अधिक समय लगाता है, मंगल उससे भी अधिक और शुक्र उससे भी अधिक। तो पृथ्वी के 24 घण्टों में चन्द्रमा, मंगल या शुक्र का एक दिन नहीं होता है। वहाँ इससे अधिक समय में दिन रात होता है। अर्थात् वहाँ के लिए दूसरे समय-मापदण्ड निर्धारित करने पड़ेंगे।
आइन्स्टीन के अनुसार समय इसी प्रकार घटनाओं पर निर्भर करता है। सोये हुए व्यक्ति के लिए बाहरी जगत् में भले ही पाँच मिनट का समय व्यतीत हुआ हो परन्तु वह जो स्वप्न देख रहा होता है; उसमें उन पाँच मिनटों के भीतर वर्षों की घटनायें घटित हो जाती है। तो उसके लिए पाँच मिनट बीत गये यह कहना सही होगा अथवा यह कहना सही होगा कि वर्षों बीत गये।
यह व्यक्ति के अपने बोध (परएकशन) पर निर्भर करता है कि समय कितनी तेजी से अथवा धीमी गति से बीत रहा है। घटनाओं के अतिरिक्त समय का अस्तित्व दृष्टा के बोध पर भी आधारित है। कई बार लगता है कि समय बिताये नहीं बीतता। दूर स्थान से अपने किसी अति आत्मीय स्वजन का दुखद समाचार आया हो और वहाँ पहुँचता हो तो गाड़ी आने में दस मिनट की देरी भी घण्टों सी लगती है। क्योंकि व्यक्ति उस समय तनाव ग्रस्त उद्विग्न मनःस्थिति में रहता है लेकिन किसी सुखद समारोह में भाग लेते समय, विवाह शादी के अक्सर पर यह पता भी नहीं चलता कि समय कब बीत गया। उस समय व्यक्ति की बोध शक्ति, चेतना पूरी तरह तन्मय हो जाती और समय भागता सा प्रतीत होता है।
इसके अनुसार एक मच्छर का कुछ घण्टों का जीवन भी उसके अपने लिए मनुष्य की पूरी आयु 70-80 वर्षों के बराबर होता है। इतनी अवधि में ही वह बच्चा, जवान, बूढ़ा सब कुछ हो जाता है और हमारे अनुसार थोड़े से घण्टों तथा उसके अपने अनुसार सत्तर-अस्सी वर्ष की आयु पूरी कर मर भी जाता है। इसका कारण प्रत्येक जीव जन्तु की अलग अलग बोध शक्ति है और उसी के अनुसार समय सिमटता या फैलता है।
घटनाओं और बोधशक्ति के अतिरिक्त सापेक्षतावाद के अनुसार समय की चाल गति पर भी निर्भर करती है। आइन्स्टीन ने सन् 1904-5 में सापेक्षता का यह सिद्धाँत प्रतिपादित किया कि गति का न केवल समय पर वरन् जगह पर भी प्रभाव पड़ता है। उसके अनुसार गति जितनी बढ़ेगी समय की चाल भी उतनी ही घटती जायेगी। उदाहरण के लिए एक अन्तरिक्ष यान प्रकाश की गति से अर्थात् एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड की गति से चलता हो तो उसमें बैठे कर कोई व्यक्ति नौ प्रकाश वर्ष (नौ वर्ष में प्रकाश एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड के हिसाब से जितनी दूरी तय कर सकता है) उतनी, दूर स्थित किसी तारे पर जायें और वहाँ से तुरन्त लौट पड़े तो इस यात्रा में अठारह वर्ष लगेंगे। लेकिन उस यान में बैठे व्यक्ति के लिए यह समय अठारह वर्ष का सत्तर हजारवाँ भाग अर्थात् सवा दो घण्टे ही होगा।
ऐसा भी नहीं है कि पृथ्वी पर भी सवा दो घण्टे ही बीतेंगे। पृथ्वी पर ता वही अठारह वर्ष ही व्यतीत होंगे। उस व्यक्ति के सगे सम्बन्धी भी अठारह वर्ष बूढ़े हो चुकेंगे। जिन बच्चों को वह 12, 13 वर्ष का छोड़ गया होगा वे 30, 31 वर्ष के हो चुकेंगे। उसकी पत्नी जो उससे 2 वर्ष छोटी 34 वर्ष की रही होगी वह बूढ़ी हो चुकेगी। किंतु वह व्यक्ति जिस .... जिस स्थिति में गया होगा उसी आयु तथा उसी स्वास्थ्य का रहेगा। यानी उसकी आयु सवा दो घण्टे ही बीती होगी। यह भी कहा जा सकता है कि वह अपनी पत्नी से आयु में सोलह वर्ष छोटा हो जायेगा।
यह बात पढ़ने सुनने में अनहोनी लगती हे कि कोई व्यक्ति 18 वर्ष बाहर रहकर आये और जब लौटे तो ऐसे मानो कुछ घण्टे ही बाहर रहा हो। उसके चेहरे और शकल में भी कोई परिवर्तन नहीं आया। उसे देख कर कोई यह भी न कह पाये कि इस बीच वह 18 वर्ष और बड़ा हो चुका है। लेकिन आइन्स्टीन ने प्रमाणों और प्रयोगों द्वारा सिद्ध कर दिखाया है। सापेक्षता के इस सिद्धाँत को ‘क्लाक पैराडाक्स’ (समय का विरोधाभास) कहा गया है।
यद्यपि अभी कोई ऐसा यान बन नहीं सका है जिसके द्वारा की गयी यात्रा से इस सिद्धाँत की सचाई को अनुभूत किया जा सके। परन्तु समय विरोधाभास के जो समीकरण आइन्स्टीन ने दिये उसके अनुसार अमेरिका के भौतिक शास्त्री जोजफ हागले और खगोल शास्त्री रिचर्ड किटिंग ने 1971 में दो बार प्रयोग किये। उन्होंने अपने साथ चार परमाणु घड़ियाँ ली। स्मरणीय है परमाणु घड़ी सेकेंड के खरब वे हिस्से तक समय सही सही बता देती है। इन घड़ियों को लेकर उन्होंने उन्होंने सर्वाधिक तीव्र गति से उड़ने वाले यान द्वारा पृथ्वी की दो बार परिक्रमा लगायी। हाफले और कीटिंग ने भूल चूक से बचने के लिए हर तरह की सावधानी बरती थी। प्रयोग पूरा करने के बाद उन्होंने पाया कि तीव्र गति के कारण परमाणु घड़ियों ने अन्तर बता दिया। वैज्ञानिकों ने घोषित किया कि आइन्स्टीन का क्लॉक पैराडॉक्स सिद्धाँत सही था।
इस सिद्धाँत के अलावा घटनाओं और बोध पर निर्भर समय गति का सिद्धाँत तो पहले ही सिद्ध हो चुका है। सापेक्षता के ये समस्त सिद्धाँत वेदान्त के अनुसार यह विश्व और कुछ नहीं घटनाओं का जोड़ मात्र है तथा घटनायें व्यक्ति की बोध शक्ति, संकल्प चेतना का ही प्रतिफल है। विराट् ब्रह्म के संकल्प से, उसकी उपस्थिति मात्र से यह माया मय संसार उत्पन्न हुआ। मनुष्य यदि चाहे तो वह इस माया से मुक्त हो सकता है और सत्य का दर्शन कर सकता है; बशर्ते कि हम पहले से बनी बनायी घटनाओं को वस्तु जगत पर थोपना बन्द कर दें। तत्व दर्शियों ने इसी को ‘साक्षी भाव की सिद्धि कहा है।
अन्तिम सिद्धाँत समय ‘विरोधाभास’ के अनुसार मायावाद की और पुष्टि हो जाती है जिसमें व्यक्ति को असंग भाव से कर्म करने की प्रेरणा दी गयी है। उस स्थिति को प्राप्त हुए बिना अन्तिम सत्य का पता लगाया ही नहीं जा सकता क्योंकि समय का बोध (आब्जेक्टिव टाइम) निरन्तर भ्रमित स्थिति बनाये रखता है। जैसे पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है परन्तु दिखाई यह देता है कि सूर्य पूर्व से पश्चिम की ओर जा रहा ह। चलती हुई रेलगाड़ी में से दूर तक देखने पर पेड़, वृक्ष, टीले और पृथ्वी ही दौड़ती दिखाई देती है। उसी प्रकार सीमाबद्ध, अस्तित्व में ये सारी भ्रान्तियाँ उत्पन्न होती है।
इन सब घटनाओं का साक्षी रहने वाले मायायुक्त अस्तित्व पहचाना जा सके तो वस्तु स्थिति का ज्ञान सहज ही हो सकता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि मायामुक्त हो जाने से व्यक्ति अकर्मण्य, निष्क्रिय हो कर बैठ जायगा। सत्य की प्राप्ति कभी किसी क्षेत्र में अनर्थ नहीं करती। सत्य का ढोंग ही अनर्थ करता है। जब यह अनुभव हो पायेगा कि वस्तुतः तो यह सभी संसार एक क्रीड़ांगन है जहाँ एक ही चेतन सत्ता खेल रही है। यह जगत् अभिनय मय है जहाँ प्रत्येक जीवात्मा को अपनी योग्यता प्रमाणित करने के लिए भेजा गया है तो अधिक प्रखरता से कर्म साधना हो सकेगी। प्राचीन काल में ऋषियों ने अपनी अंतर्दृष्टि से, साधना उपासना से इस भ्रम जाल, माया मय संसार के सत्य को पहचाना था। विज्ञान भी अब उसी बिन्दु की ओर प्राप्त करने के लिए सच्ची लगन और जिज्ञासा से किसी भी क्षेत्र में प्रयास किया जाय अन्ततः पहुँचना एक ही बिन्दु पर होता है।