बचने की कोई उम्मीद नहीं (kahani)

January 1979

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एक महाशय भयंकर रोग से ग्रहित हो मृत्यु शैया पर शाँत व प्रसन्नचित्त ही पड़े थे। वे रोग से ग्रसित तो थे परन्तु मृत्यु के भय से नहीं।

उनका एक निकट का सम्बन्धी उनकी शैया पर बैठा-बैठा रात भर रोता रहा, उसे उन महाशय के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी तथा वह उनके संसार से चले जाने की आशंका से ग्रसित था

प्रातःकाल हुआ यह कि वे रिश्तेदार तो मृत पाए गए व वे रोगी महाशय स्वस्थ।


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