॥वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दे॥

January 1979

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एक स्त्री थी, उसने सुन्दर रूमाल निकाला, उसमें उसने एक बूँद इत्र डाला। इत्र सूख गया। रूमाल को तौला गया तो इत्र डालने से पूर्व उसका जितना वजन था उससे अब .0000001 (दशमलव शून्य शून्य शून्य शून्य शून्य एक) ग्राम अधिक निकला। वह इस रूमाल को लेकर यात्रा पर निकल पड़ी। प्रतिदिन 10 मील चली। तीन दिन तक चली। 30 मील की दूरी तक गई। उसका पति उसे ढूंढ़ने निकला। प्रति एक गज की दूरी पर उसने एक क्यूविक सेंटीमीटर हवा की गन्ध ली। उसमें उसे इत्र (सेंट) की खुशबू मिलती चली गई। इस तरह गन्ध के सहारे उसने अपनी रूठी हुई प्रियतमा का ठिकाना पा लिया। उसे मना कर अपने घर ले आया।

इस एक घटना में तीन चमत्कार जुड़े हैं। दो कोई भी जाना सकता है, तीसरे को गोपनीय रखा गया है, जो उसे जान लेगा वही चतुर, सुजान, ज्ञानी और पंडित कहा जायेगा।

पहला चमत्कार तो उसे आविष्कार का है जिसमें वस्तु को इतना सूक्ष्म कर देना है जिसमें सारा दृव्य गुण इस तरह समा जाये कि वह लघुता विराट बन जाये। .0000001 ग्राम भार की वस्तु को न्यूनतम 1760 X 3 X 2 (पथ के 1+1 गज दोनों ओर ) अर्थात् 10560 वर्ग गज दूरी में व्यापक बना देना सचमुच चमत्कार ही है। और यह भी चमत्कार ही है कि 1 एक वर्ग इंच की नाक मनुष्य को उसका भान करती हुई चली जाती है। मानवीय बुद्धि की इस क्षमता को वंदनीय कहा जाये तो इस में कुछ बुरा नहीं है।

किन्तु सच पूछा जाये तो इसमें मनुष्य का कोई कमाल नहीं है। उसने आविष्कार स्वयं नहीं किया, नकल की, नकलची विद्यार्थी बुद्धू कहलाते है। योग्यता तो उनकी सराही जाती है, जिनके हल सही होते है। मनुष्य ने यह योग्यता प्रकृति के उन कलाकारों से चुराई है जिन्हें वह निर्बल असहाय व तुच्छ श्रेणी का जीव मानता है। पतिंगा नितान्त उपेक्षणीय जीव है किन्तु यदि मनुष्य का असाधारण इंद्रिय बोध ही उसकी श्रेष्ठता का मापदण्ड हो तो पतिंगे को उससे निम्न स्तर का नहीं उच्च ही माना जायेगा, जिसके पास यह क्षमता है कि अपनी दो मील दूर बैठी हुई मादा को मात्र उसकी गन्ध से ही पहचान लेता है। यह नहीं कि यह गन्ध उसी जाति की मादा की हो वरन् उसमें केवल मात्र अपनी दुल्हन की गन्ध पहचान लेने की क्षमता है, जबकि उसी तरह की सैकड़ों लाखों पतिंगिनियाँ दो मील के घेरे में चक्कर काट रही होगी। मनुष्य में तो वैसी क्षमता किसी -किसी में होती है।

अनेक लोग दूषित स्थानों में, गन्दी नालियों के किनारे रहते-रहते उस गंध के अभ्यस्त हो जाते है। उन्हें उससे अरुचि तक नहीं होती वह यह तक विचार नहीं कर पाते कि यह गन्दगी उनके लिए कितनी हानि कारक है। उनकी बौद्धिक क्षमताएँ इतनी स्वच्छ और निर्मल नहीं होतीं। आहार, बिहार की अनियमितता और अप्राकृतिकता के कारण घ्राण ही क्यों दूसरी इन्द्रियों की सूक्ष्म संवेदनशीलता तक को बैठते हैं पर मनुष्येत्तर जीव अपनी यह क्षमतायें आजीवन बनाये रखते है। इसलिए गन्ध (सेंट) का आविष्कार करके भी मनुष्य अपूर्ण रहा। इन जीवों ने तो ही इतना तो उपकार कि मनुष्य को गंध की इस असाधारण शक्ति की जानकारी दे दी। पुलिस का बहुत बड़ा कार्य गंध की असाधारण क्षमता का उपयोग कर प्रशिक्षित कुत्ते ही निबटाते है। इनके तो भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पूर्वाभास तक हो जाता है। बिल्लियाँ, दीमक, चींटियों में यह क्षमता पाई जाती है। मनुष्य तो अपनी साधारण देखने, चबाने, सुनने और विचार करने तक की क्षमतायें खो और देता है फिर उसकी समझदारी कहाँ रही?

बात केवल गंध तक सीमित नहीं दुनियाँ के हर आविष्कार के लिए मनुष्य ने प्रकृति का ही अनुसरण किया है। हवाई जहाज की कल्पना उसे उड़ते हुए नभचरों से मिली है तो पनडुब्बियों की जलचरों से। बिजली आज जीवनोपयोगी वस्तुओं की श्रेणी में आ गई है। उसके लिए आविष्कर्ताओं को इलैक्ट्रिक ईल (विद्युत मछली) का ऋणी होना चाहिये। आज के सामान्य विद्युत सरकिटों की अपेक्षा चार से छः गुना अधिक तक बिजली उत्पादन कर सकने वाली यह मछली एक हजार बोल्ट विद्युत शक्ति बिजली पैदा कर लेती है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह अपनी जिन्दगी भर सामान्यतः पचास बोल्ट क्षमता के बीस बल्ब जलाये रख कर प्रकाश देती रह सकती है। मनुष्य के लिए तो यह भी नहीं बन पड़ता कि वह अपनी बुद्धि से ही न कुछ तो अपने परिवार वालों को ही नीति, सदाचार, ईमानदारी, धर्म और अध्याय का प्रकाश देता रहे।

मनुष्य ने बड़ी बड़ी शक्ति वाली दूरबीनें बनाई है। 27 व्यास के लेन्स की पालोमोर वेधशाला की दूरबीन से चन्द्रमा की दूरी लाखों मील से सिमट कर हजारों में आ जाती है पर क्या इसका श्रेय अकेले मनुष्य को ही है। दूरबीन की प्रेरणा देने वाले गिद्धों ने मनुष्य को इस आविष्कार के लिए प्रेरित किया जो सैकड़ों मील दूर से ही यह देख लेते हैं कि किस स्थान पर जानवर की खाल उतार ली गई है। वे न केवल अपनी इस क्षमता का उपयोग अपने उदर पोषण के लिए करते हैं अपितु माननीय अस्तित्व के लिए संकट बनने की सम्भावना वाले प्रदूषण को भी मिटा डालते हैं।

द्विनाभिक ताल (बाईफोकल) चश्मों का आविष्कार पहले प्रकृति ने किया, पीछे मनुष्य ने। “मेरी-”आप्थेलमस नाम की मछली की दोनों आँखों में एक के ऊपर दो-दो पुतलियाँ उभरी रहती है। जब तक वह पानी में रहती है नीचे वाली पुतली से देखती है। इसके बाद वह हवा में आ जाती है तब वह नीचे वाली पुतली से देखना बंद कर देती है और ऊपर की पुतली से देखने लगती है। इस तरह वह जलचर जीवन जितना आनंद और सुविधा पूर्वक जीती है उतना ही थलचर जीवन। चाहे तो मनुष्य भी यह “उभय दृष्टि” रख कर लोक और परलोक दोनों को संवार ले। विचार इस दृश्य संसार को देखने और समीक्षा करने के लिए है तो भावनायें दृश्य जीवन से परे की अनुभूति के लिए। अपनी इस दूसरी पुतलों का उपयोग न करने के कारण ही वह मृत्यु जैसी आनंद दायक, उल्लास वर्धक घटना से हे भयभीत रहता है, लोक जीवन में तो चतुर बना रहता है पर लोकोत्तर के प्रति आस्थायें ही स्थिर नहीं रख पाता। उसने बाईफोकल तो बना लिया पर अन्त चक्षुओं की इतना सक्षम नहीं बनाया कि इस लेख के प्रारम्भ में चर्चित तीसरे चमत्कार को भी समझ लेता।

इन पंक्तियों में जो कुछ लिखा और कहा जा रहा है, उसका उद्देश्य मनुष्य को घटिया और जीव जन्तुओं की विशेषतायें, उपयोगितायें प्रतिपादित करना नहीं है अपितु इस तथ्य का बोध कराना है कि मनुष्य अपने में अनेक दुरूह आविष्कार कर लेने का अहंकार न करें, वरना उसे यह देखना चाहिये कि वह स्वयं ही कितना बड़ा आविष्कारक है-यह कि जिस तरह उसके अपने आविष्कारक मानव जाति के कल्याण, प्रसन्नता और ऐश्वर्य वृद्धि के लिये हैं, उसी तरह यदि उसका जीवन भी उद्देश्य पूर्ण है तो उसे भी सृष्टि में देवत्व एवं मंगल कामनायें विकसित करने, प्राणियों के आनन्द की वृद्धि करने और नियंता के ऐश्वर्य वृद्धि के उत्तरदायित्वों को भी सम्पूर्ण ईमानदारी से पालन करना आवश्यकीय है।

उद्देश्यों के प्रति ईमानदार न होने के कारण ही लगता है उसकी बुद्धि का विधेय पक्ष नष्ट हो गये है और वह प्रकृति से मात्र विध्वंसक प्रेरणायें ग्रहण करने में लग गया। आजकल किसी भी देश की सेनायें विध्वंसकों के अभाव में अपूर्ण मानी जाती हैं ऐसे बाम्वर विमान बने हैं चालक जिन्हें “डाइव” (जहाज के एक दम नीचे कूदने को डाइव कहते हैं ) करके जहाज को पृथ्वी स्पर्श जैसी समीपता तक ले जाते हैं, और बस फेंक कर सीधे 90 डिग्री पर ऊपर उड़ जाते हैं, अहं प्रदर्शन के लिए मनुष्य ने उसे गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर आश्रित कला बताया पर सच पूछा जाय तो यह “मनेर” पक्षी की कला का अनुकरण मात्र है यह अपने शिकार पर बहुत तेजी से झपटता है और उसे पकड़ कर सीधे ऊपर उड़ जाता है। जर्मनी ने रैडार नामक यन्त्र बनाया जो पदार्थ की विद्युत चुम्बकीय तरंगों को पकड़ कर ह बता देता है कि किसी स्थान पर शत्रु की क्या गति विधियाँ चल रही हैं। अब यह यन्त्र प्रत्येक देश की सैन्य सज्जा में सम्मिलित है ईमानदारी की बात यह है कि चमगादड़ को इस सत्य का पता अनादि काल से है, कहते है कि चमगादड़ को दिन में दिखाई नहीं देता पर चूँ चूँ की विशेष प्रकार की नियंत्रित ध्वनि निकालता है और परावर्तित विद्युत चुम्बकीय तरंगों के माध्यम से सूक्ष्म से सूक्ष्म धागे तक का स्थान ज्ञात कर लेता है। किसी भी जाल में उसे चौबीस घन्टे उड़ाया जाये तो वह किसी पदार्थ से टकराता नहीं। मनुष्य ने उसकी इसी क्षमता का अनुकरण कर रैडार यंत्र बनाया है।

सेना को यह ज्ञात हो कि किसी स्थान विशेष में शत्रु है उसे पास से गुजर कर अन्यत्र जाना हो तो एक विशेष प्रकार के गोली की फायरिंग करके वह धुयें की ऐसी लम्बी और ऊँची दीवार खड़ी कर देती है जिससे दूसरी तरफ के लोगों को इस ओर की हलचल का पता ही नहीं चल पाता है सेनायें इस तरह अपने खेमे बदलती रहती हैं “ आक्टोपस” नामक जीव न होता तो सम्भवतः मनुष्य को इस “स्मोक स्क्रीन” (धुयें की दीवार) की कल्पना ही न होती। यह आक्टोपस अपने शरीर के थैले में काली स्याही की तरह का एक पदार्थ छिपाये रहता है जब कभी उसे शत्रु से बच कर निकलना होता है वह थैले में बंद इस स्याही को उड़ा कर धुयें की दीवार खड़ी कर देता है और चैन से निकल भागता है। जेट-प्रापल्शन की क्रिया में भी आक्टोपस दक्ष होता है इस स्थिति में वह दूसरी थैली में भरे पानी का उपयोग करता है। आज कल जहाजों को मार गिराने वाली “एण्टी एयरगन क्राफ्ट” का भी युद्ध कला में विशेष स्थान है। इस तोप की विशेषता यह होती है वह किसी भी कोण में यहाँ तक कि 60 डिग्री में भी खड़ी होकर ट्रेसर गोलियों (जलती हुई गोलियों) की ऐसी बौछार करती है कि जहाज को किसी न किसी गोली का शिकार अवश्य हो जाना पड़ता है। आरचर मछली न होती तो शायद मनुष्य को इस आविष्कार की सूझती भी नहीं। यह हवा में उड़ते कीड़ों को पानी की ऐसी धार मारती है कि कीड़े उसी धार के शिकार होकर मछली के मुँह में चले जाते है।

मनुष्य की अपेक्षा हजारों वर्ष पूर्व से ही कबूतरों को पृथ्वी की चुम्बकीय धाराओं का ज्ञान रहा है। जिसके सहारे किसी भी पाठशाला से अ, ब, स, भी न पढ़ने वाला यह साधारण पक्षी दुर्गम स्थानों से होता हुआ भी अपने परिचितों के पास जा पहुँचता है। छिपना (कैमोफ्लेज) आज युद्ध में विध्वंसक आयुधों से भी अधिक महत्व रखता है यह कला मनुष्य ने गिरगिर जन्तु (वाकिंग स्टिक) से सीखी है जो हरी घास के बीच शत्रु से बचने के लिए इस तरह निश्चेष्ट हो जाता है मनों वह स्वयं ही किसी पौधे का नन्हा तना या पत्ती हो। इन दिनों ‘इन्फ्रारेड”किरणों का महत्व बहुत अधिक समझा जा रहा है। इन किरणों से शरीर या पृथ्वी के अन्तराल की वह वस्तुयें तक देख ली जाती है जहाँ तक दृश्य प्रकाश की पहुँच ही नहीं होती, रैटिल स्नेक (एक विशेष जाति के सर्प) से ही इन किरणों का पता लगाया गया है उसकी आँखें बंद कर देते पर भी वह प्रकाश की दिशा का बिना भूल किये पहचान लेता है। ऐसी ऐसी सैकड़ों विलक्षण शक्तियाँ जिन्हें सिद्धियाँ कहते हैं, मनुष्य शरीर में बड़ी चतुराई से सँजोई गई हैं, किन्तु मनुष्य उनका लाभ प्राप्त करना तो दूर उन पर विश्वास ही नहीं कर पाता इसी कारण साधा विज्ञान का विशाल काय कलेवर अब तक विज्ञान की दृष्टि से ओझल पड़ा हुआ है। कितने आश्चर्य की बात है कि अमेरिका के राष्ट्रपति कार्टर की बातचीत और रुय के प्रेसीडेन्ट ब्रेजनेव के भाषणों की प्रतिध्वनि जहाँ भी वायु मंडल है वहाँ तक जाती है। हम जहाँ रहते हैं वहीं सारी पृथ्वी की प्रतिध्वनियाँ आती हैं, चाहें तो वायरलैस से भी उच्च श्रेणी यंत्र की तरह घर बैठे सृष्टि के किसी भी कौने में बैठे व्यक्ति की वार्ता सुनलें पर अभी तक मनुष्य के लिए यह सुलभ नहीं हुआ जबकि कंगारू रैट (एक विशेष चूहा) पृथ्वी में कई तरह की प्रतिध्वनि खोलियाँ बना कर उनमें से बदल-बदल अपनी आधी खोपड़ी जमा कर चारों तरफ की प्रतिध्वनियाँ सुनता और भूमि कम्पनों के माध्यम से सम्भावित संकटों की पूर्व जानकारी लेता और अपने जीवन का बचाव करता रहता है। आविष्कारीय सम्भावनाओं का क्षेत्र जितना जाना जा सका, अभी उससे असंख्य गुना व्यापक क्षेत्र प्रकृति के गर्भ में छुपा हुआ है उन्हें जानने और उन सुविधाओं का लाभ प्राप्त करने में मनुष्य को करोड़ों वर्ष लग जायेंगे तो भी वह इति न पा सकेगा।

फ्रैंकलिन इन्स्टीट्यूट के वारटोल रिसर्च फाउण्डेशन के डायरेक्टर सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डब्लू. जे. स्वान के इन तथ्यों को स्वीकारते हुए लिखा है-कि सृष्टि में अन्तर्निहित इस ज्ञान विज्ञान के अपार भाण्डागार को गणितीय सिद्धाँतों से समझा जाना और प्रकृति की इन क्षमताओं में बौद्धिक संस्कारों का जुड़ा होना इस बात का प्रमाण है कि संसार को किसी अति समर्थ इंजीनियरिंग सत्ता ने बनाया है, वैज्ञानिक तो उनमें से कुछ को समुद्र की रेत में पड़े स्वर्ण कणों की भांति अनायास ही पा भर लेते है। उनमें उनकी इतनी ही प्रशंसा है कि उनने शोधकार्य में अपना मनोयोग लगाया और परिश्रम का प्रतिफल प्राप्त किया। ऐसा नया कुछ न बनाया, न बन सकेगा जो उस अभियंता ने पहले से बनाकर न रखा हो। तरह-तरह के जीव जन्तु, पेड़, पौधे, फूल, पत्तियाँ, पदार्थ अन्य और अपदार्थोय शक्तियाँ बनाने के प्रयोग वह चुपचाप अपनी प्रयोग शाला में बैठा किया करता है। और हम उसे जानकर भी जानने का प्रयास नहीं करते। उसकी बनाई हुई वस्तुओं का उपभोग करके आनन्द प्राप्त करने, सुविधायें जुटाने, ऐश्वर्य वृद्धि करने में लगे रहने के अतिरिक्त उस इंजीनियर को कुछ वेतन भी दिया जाना है, उसे भूख प्यास भी लगती होगी, उसे दर्द भी होता होगा, उसकी कुछ जिम्मेदारियाँ भी होंगी, उनमें हाथ बटाना तो दूर उनकी ओर ध्यान तक नहीं देते, आज के अपराधों की बाढ़, अनाचार, आँधी और मानव जाति के संकट उसी का प्रतिफल है।

ऐसा कोई आविष्कार नहीं जो प्रकृति में न हो, मनुष्य ने जिसे आज प्रकट किया वह कल से ही विद्यमान था। अर्थात् महान आविष्कार का जनक मनुष्य नहीं कोई सुपर इंजीनियर है जिसने जीवन सत्ता को प्रकट किया, उसके पालन पोषण, विकास, सुख-सुविधा, सौंदर्य आदि के इतने वैज्ञानिक और सटीक साधन प्रस्तुत किये है; जितने आज का कोई बड़े से बड़ा वैज्ञानिक भी प्रस्तुत नहीं कर सका। प्रकृति ने लोहे जैसा कठोर और पानी जैसा कोमल दोनों तरह के तत्व दिये है। लोहा कठोर से कठोर वस्तु को काट सकता है और पानी कठोर से कठोर वस्तु को भी घुला सकता है। जीवन के लिये यह दोनों ही तरह के कार्य आवश्यक है। मनुष्य आटा-दाल, चावल सैकड़ों वस्तुओं से, सैकड़ों प्रकार के व्यंजन बना सकता है किन्तु प्रकृति अपनी “फोटी सिन्थेसिस” (पत्तियाँ सूर्य की ऊर्जा में क्लोरोफिल मिलाकर शर्करा पैदा करती है, उसी से तरह-तरह के फल पैदा होते है। इस क्रिया को फोटी सिन्थेसिस कहते है।) की रसोई में एक ही पदार्थ पेड़ों के क्लोरोफिल को सूर्य ऊर्जा में पका कर सभी तरह के व्यंजन बना देता है। ऐसी रसोई मनुष्य के लिए संभवतः करोड़ों वर्षों में भी उपलब्ध न हो।

परस्पर वार्तालाप और विकिरण से सुरक्षा के लिए मंडल का कवच प्रकृति के वात्सल्य का अनोखा उदाहरण है, फलों में सौंदर्य और सुगन्ध उसकी विलक्षण कलाकारिता का परिचय देता है। सांसारिक इंजीनियर तो अपने स्वार्थों के लिये आत्म प्रतारणा के शिकार और कर्तव्य च्युत होते हुये भी पग-पग पर मिल जाते है। पर उस चीफ इंजीनियर में सर्वज्ञता ही नहीं, सर्व समर्थता ही नहीं, माँ का सा वात्सल्य और पिता का सा संरक्षण है। प्रकृति की संरचना और नियम इस बात के स्पष्ट प्रमाण है। यह देखते हुये भी लोग उसे जानने और पाने का प्रयास नहीं करते। जिसने भी उसे श्रद्धा वंदना किया जो भी उसका हो गया उसे वह अपनी ही अनंत विभूतियों का स्वामी बना देता है।

प्रकृति की अनेक रहस्य मय क्रियाओं के अनुरूप यदि कोई इंजीनियर योजनायें बना सकता तो उसे निश्चित रूप से सर्वोच्च प्रतिभा का व्यक्ति मानते। यह प्रतिभा अनादि काल से अभिव्यक्त है। वही सर्वोपरि चमत्कार है। उसे अनुभव करने वाला, जानने वाला ही सच्चे अर्थों में अपना जीवन सार्थक कर पाता है।


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