कुछ-जीभ की भी सुनिये, मानिये

January 1979

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मनुष्य शरीर को स्वस्थ और समर्थ बनाये रखने के लिए आहार का बड़ा महत्व है। यद्यपि उसे प्रतिदिन का काम चलाने योग्य शक्ति अन्य स्रोतों से भी प्राप्त होती रहती है, परन्तु उन स्रोतों से प्राप्त साधनों का उपयोग तभी हो पाता है जबकि शरीर में उन साधनों का उपयोग करने योग्य शक्ति हो। वह शक्ति भोजन द्वारा ही आती है।

आग भी हो और पानी भी हो किंतु ईंधन न हो तो आग थोड़ी देर जल कर ही बुझ जायगी और पानी भाप न बन सकेगा। भाप-जो बड़ी-बड़ी मशीनों को चलाती है, नहीं बनेगी तो मशीनें बन्द पड़ी रहेगी और उनकी कोई उपयोगिता भी नहीं रह जायेगी। स्वच्छ वायु और खुला प्रकाश हो किन्तु भोजन न किया जाय तो शरीर में शक्ति का उत्पादन भी बन्द हो जायगा। इसलिए भोजन की तुलना मशीनों में प्रयुक्त किये जाने वाले ईंधन, उन्हें चलाने के लिए प्रयुक्त होने वाली शक्ति के उत्पादन हेतु इस्तेमाल किये जाने वाले साधनों से की गयी है।

निर्बाध और पर्याप्त भाप तैयार करने के लिए स्वच्छ तथा मजबूत ईंधन जिस प्रकार आवश्यक है उसी प्रकार स्वस्थ और सबल शरीर के लिए भोजन का पौष्टिक तथा निर्दोष होना आवश्यक है। यह कैसे जाना जाय कि कौन-सा भोजन पौष्टिक है और किस तरह का भोजन जीवन तत्वों से भरपूर है। यह जानने से पूर्व हमें अपने भोजन का विश्लेषण करना चाहिए।

किसी भी क्रिया का प्रयोजन उसके प्रभावों और परिणामों को स्पष्ट कर देता है। जो भोजन हम करते हैं, उसके सम्बन्ध में बहुत कम लोग यह सोचते हैं, कि जो खाया जाय वह जीवन तत्वों से भरपूर होना चाहिए। बल्कि अधिकांश व्यक्तियों की तो यही धारणा रहती है, कि जो कुछ खाता जाय वह स्वादिष्ट और जायकेदार होना चाहिए। और स्वाद का परीक्षण करने -- भोजन में रस लेने का कार्य जीभ द्वारा होता है।

खाद्य क्रिया जीभ का एक महत्वपूर्ण कार्य है। इस इस प्रक्रिया में दोनों ओर से गाल, सुदृढ़ दीवार का काम देते हैं। उन्हीं के सहारे यह मुँह के ग्राम को आगे पीछे ऊपर नीचे और दाँतों व दाढ़ों के बीच लाती ले जाती है। ग्रास की लुगदी बन जाने पर गोली बनाकर उसे कण्ठ में आहारनाल के द्वार पर इस तरह पहुँचा देती है कि वह सरलता से नाल में उतरता चला जाय। इस क्रिया में इसकी लार उत्पादक ग्रन्थियाँ (सेलिंवरी ग्लैण्डस) विशेष सहायक होती है। यदि लार उत्पन्न न हो तो सूखा ग्रास आहार नाल को क्षति पहुँचाता हुआ जाएगा। लार की सहायता से ही ग्राम नर्म होकर सरलता से सरकता चला जाता है।

इस प्रकार भोजन का स्वाद परखने तथा उसे आगे बढ़ाने में जीभ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन जीभ का एकमात्र कार्य भोजन का स्वाद चखना, रसग्रहण करना या आगे बढ़ाना ही नहीं है। जीभ बोलने का दूसरों से वाणी द्वारा संपर्क करने का भी काम करती है। शरीर विज्ञान की दृष्टि से जीभ असंख्य स्नायविक तन्तुओं का एक समूह है; जिसमें रक्त लाने ले जाने के लिए शिराओं तथा वाहिनियों का जाल बिछा रहता है। समझा जाता है कि जीभ केवल स्वाद की ही जानकारी देती है, अथवा बोलने का ही काम करती है परन्तु इसके अलावा भी जीभ अनेक कार्य करती है, जैसे वह मनुष्य के स्वास्थ्य का परिचय भी देती है। स्वास्थ्य का परिचय देने के लिए तो जीभ वस्तुतः एक मीटर का काम देती है। और कुशल चिकित्सक उसे देख कर कितने ही रोगों को पढ़ लेते है।

रस ग्रहण, भोजन को आगे बढ़ाने और बोल चाल द्वारा दूसरों से संपर्क स्थापित करने में जीभ पर दोहरा दायित्व आ जाता है। अध्यात्म ने इसलिए जीभ को दोहरी इंद्रिय माना हैं। इसे ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों का कार्य सम्पन्न करना पड़ता है। न केवल यह विचारों और भावों को व्यक्त करती है, बल्कि शरीर की आन्तरिक स्थिति को भी अपनी छाती पर ला कर बात पर लिख कर बता देती है। लेकिन आमतौर पर इससे दो ही कार्य लिए जा सकते हैं - भोजन और भाषण। उनमें भी भोजन का स्वाद चखने तथा आहार को आगे बढ़ाने का कार्य जीभ को अकेले पूरा करना पड़ता है, जबकि बोलने में तो स्वर, कण्ठ, तालु आदि भी सहयोग देते हैं।

जीभ का जो भाग स्वाद की सूचना मस्तिष्क को देता हैं; वह एक बहुत छोटा सा हिस्सा है। जिन्हें स्वाद कलिकायें कहा जाता है। जीभ की ऊपरी सतह पर स्वाद कलिकाओं की क्रमबद्ध रचना होती है। सूक्ष्म रोयों के रूप में, छोटे, बड़े, ऊँचे-नीचे; आगे-पीछे तथा अगल-बगल छाये हुए उन रोयों को अंकुरक (पेपिली) कहते हैं। जीभ की नोक पर इतने से कुछ संकरे कुछ कुछ उभरे भी रहते हैं। वहाँ इन्हें सूत्री अंकुरक (फिली फार्म पेपिली) कहते हैं। अन्य स्वाद कलिकाओं में से कुछ टोपीदार और कुछ कुकुरमुत्ते जैसी उठी रहती हैं। उन्हें कंवकी अंकुरण या फजाई फार्म पेपिली कहते हैं। असंख्य कोशिकाओं युक्त एपोथेलियम जीभ की ऊपरी सतह को ढके रहता है। उसी में ये भिन्न-भिन्न स्वाद कलिकायें रहती हैं। कली का सामान्य रूप हमारे गले की ओर एक खुले हुए फ्लास्क की भाँति रहता है। हमारे ग्रास का घुलनशील भाग ज्यों ही इन कलिकाओं को स्पर्श करता है, इनकी रसवेदी कोशिकाओं (गैस्टेटरी सेल्स) में उतर जाता है। ये कोशिकायें कलिकाओं की जड़ में स्थिति ज्ञान तन्तुओं को प्रभावित करती हैं। जो तुरन्त ही स्वाद का संवाद मस्तिष्क तक पहुँचा देती हैं।

प्रकृति ने जीभ में यह व्यवस्था केवल इसलिए कर रखी है, कि मनुष्य को आहार की उपयोगिता अनुभव रहे। तथा वह रुचि पूर्वक भोजन ग्रहण करता रहे। होती अभिरुचि और तन्मयता पूर्वक किये गये कार्य अपना संपूर्ण परिणाम प्रस्तुत करते हैं। सम्भवतः इसलिए प्रकृति ने जीभ में स्वाद कलिकायें बनायी हो और उनमें रसना का आकर्षण उत्पन्न किया हो। लेकिन मनुष्य उन प्रयोजन को भूल कर केवल स्वाद के लिए ही भोजन करते है। यह विपर्यय हानिकारक परिणाम ही उत्पन्न करता है, जिसे किसी भी दृष्टि से समझदारी नहीं कहा जा सकता है। लोग उपार्जन के लिए यहाँ वहाँ घूमते रहते हैं। अपनी बुद्धिमता, परिश्रम और लगन से घूम फिर कर आवश्यक उपार्जन कर भी लेते हैं परन्तु कोई व्यक्ति दिन रात कमाता रहे और जो कुछ कमायें उसे आवश्यक कार्यों में खर्च करने के स्थान पर केवल घूमने फिरने में ही खर्च करने लगे तो यह नासमझी से बढ़कर पागलपन ही कहा जायगा। कुछ इसी तरह की ना समझी जीभ में रहने वाली स्वाद कलिकाओं के उपयोग के सम्बन्ध में भी हो गयी है। स्वाद का प्रयोजन भूल कर केवल उसे ही प्रधानता देने की गलती अन्ततः हानि ही पहुँचाती है।

यद्यपि प्रकृति समय-समय पर रसना के माध्यम से ही इस गलती की ओर ध्यान दिलाती रहती है।

जीभ में स्थित स्वाद कलिकाओं की क्षमता घ्राणेन्द्रिय के सहयोग द्वारा ही बनी रहती है। जुकाम के कारण जब नाक बन्द हो जाती है और हमें कोई भी सुगंध प्रभावित नहीं कर पाती तब इसी लिए खाना पीना स्वादहीन लगता है। इसी प्रकार कहीं दूर बनते हुए स्वादिष्ट व्यंजन की सुगन्ध हमें अनदेखे ही आह्लादित कर देती है। वह व्यंजन जब तक हमारी जीभ पर नहीं आ जाता तब तक तृप्ति नहीं होती। इस स्थिति को लिप्सा ही कहना चाहिए।

जिस प्रकार जुकाम के कारण किसी व्यंजन की सुगन्ध नहीं आती उसी प्रकार पेट की खराबी और दूसरे कई रोगों में जीभ की स्वाद कलिकायें निष्क्रिय हो जाती हैं। स्पष्ट अर्थ है कि प्रकृति भोजन की ओर से निरुत्साहित कर रही है।

स्वाद कलिकाओं की संख्या मनुष्य की आयु के साथ परिवर्तन होता रहता है। बाल्यावस्था में यह संख्या सैकड़ों तक की होती है, जबकि प्रौढ़ावस्था में केवल 70-80 तक रह जाती है। इनकी रचना भी उद्देश्य पूर्ण है। बच्चों के बढ़ते शरीर को अच्छा भोजन चाहिए जबकि वृद्धावस्था के साथ भोजन की विविधता या प्रचुरता अनावश्यक हो जाती है, इसलिए स्वाद कलिकायें कम होकर अथवा अशक्त बनकर भोजन की ओर से निरुत्साहित भी करती हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से स्वाद के मूलतः चार भेद हैं - मीठा, खट्टा, कड़वा और खारा। शेष सभी स्वाद दूसरे का मिश्रण मात्र होते हैं। भिन्न- भिन्न रूप से व्यवस्थित स्वाद कलिकायें भिन्न-भिन्न स्वादों की अनुभूति कराती हैं। जीभ के अग्रभाग की कलिकायें केवल मीठा, पिछले भाग की कड़वा और दोनों पार्श्व की खट्टे तथा खाकी तीव्र संवेदक है।

प्रकृति ने प्रत्येक खाद्य पदार्थ में ये चारों स्वाद समुचित रूप से भर देय हैं। किसी स्वाद की अधिकता या न्यूनता से भिन्न-भिन्न स्वाद बनते हैं। और इन चारों में से दो या दो से अधिक स्वादों के सम्मिश्रण अलग-स्वाद निर्मित करते हैं। उनमें मुख्य रूप से मीठा और चरपरा। मीठे के लिए आमतौर पर शंकर, गुड़, खाँड़ आदि का प्रयोग किया जाता है। इन खाद्यों की प्रचुरता शरीर पर क्या प्रभाव डालती है- यह वैज्ञानिकों के लिए लम्बे समय से अनुसंधान और परीक्षण का विषय रहा है।

मीठे खाद्य पदार्थ शरीर में शर्करा को बढ़ाते है। शर्करा स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है, परन्तु सीमा से बाहर तक अनावश्यक हैं। वह प्राकृतिक खाद्यों में स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। अतिरिक्त रूप से मीठे का उपयोग शरीर पर अपना दुष्प्रभाव डालता है।

“रोडेल्स सस्टम फार मेण्टल पावर एण्ड नैचुरल हैल्थ” में डा. जे. आई. रोडेल ते लिखा है-रक्त में शर्करा की मात्रा अत्यधिक बढ़ने से रोकने के लिए पैन-क्रियाज नामक ग्रन्थि अत्यधिक मात्रा में इन्सुलीन का का स्रवर्ण करती है, मीठी चीजें खाने से पैन क्रियाज हो जाता है। इस प्रकार पैन क्रियाज पर अधिक दबाव पड़ता है। फलतः उसकी दक्षता में कमी आ जाती है। इससे वह अपेक्षा से अधिक इन्सुलीन का निर्माण करने लगता है। चीनी की मात्रा कम होने लगती है।

चूँकि मस्तिष्क का पोषण रक्त द्वारा पहुँचायी गयी शर्करा से होता है। अतः रक्त में शर्करा की कमी से आयी मस्तिष्क सम्बन्धी गड़बड़ी को लोग मानसिक रोग समझ लेते हैं।

न्यूयार्क के डॉक्टर जॉन डब्लू. टिनटेरा का कथन है कि-अमेरिकी पागल खानों में 80 प्रतिशत रोगियों को मस्तिष्क दोष नहीं होता अपितु हाइपोग्लाइसेमिया (रक्त में शर्करा की अल्पता) है हाइपोग्लाइसेमिया का कारण वस्तुतः गलत खान पान होता है।

यद्यपि यह सही है कि पैनक्रिया, ऐड्रँनल तथा यिटुइटरी ग्रन्थियों की गड़बड़ी से भी ये कष्ट हो सकते है; तथापि अनेक स्थितियों में इसका कारण भोजन की ही गड़बड़ी होता है। पर यह तथ्य है कि रक्त में शर्करा की कमी का स्थिति अत्यधिक चीनी खाने से आती है।

“बॉडी, माइण्ड एण्ड शुगर” नामक पुस्तक के लेखन डा. ई. एम. अब्राह्मसन का कहना है कि डॉक्टर प्राय हाइपोग्लाइसेमिया (रक्त में शर्करा की अल्पता) का परीक्षण न करने की भूल कर बैठते हैं। फलस्वरूप इस रोग के रोगियों को केनोनरी थ्रान्बासिस, ब्रेनट्यूमर, मिरगी, जालब्लैडर, एपेडिसाइटिस, हिस्टीरिया जैसे अनेक जटिल रोगों का कष्ट भोगना पड़ता है।

इस प्रकार मीठे खाद्यान्नों का प्रभाव शरीर में कितने ही रोगों को जन्म देता है और मानसिक गड़बड़ियां पैदा कराते है। मीठे पदार्थों की तरह कई व्यक्तियों को चरपरे पदार्थ प्रिय होते हैं। यह स्वाद कड़वे और खारे स्वाद के सम्मिश्रण से बने है। मिर्च का स्वाद कुछ फीकी कड़ुवाहट लिए रहता है। इसी कारण उसमें स्पष्टतः कड़वाहट का आभास नहीं होता, बल्कि तीखापन लगता है। इसके साथ नमक का प्रयोग खाद्य पदार्थ में चरपरापन पैदा कर देता है।

शरीर चरपरराहट को एक सीमा तक ही सह सकता है; हालाँकि उसे स्वीकार नहीं करता यह स्वाद रक्त में उष्णता और शरीर में उत्तेजना लाता है। बहुत तेज स्वाद की वस्तु जीभ पर रखते ही पसीना छूट आता है।, प्यास लगने लगती है, मुँह में जलन होने लगती है, नाक और आँख से पानी बहने लगता है। स्पष्ट है शरीर इस तत्व को बड़ों कड़ाई के साथ अस्वीकार कर रहा है। पर लोग पानी पी-पी कर भी इस स्वाद की वस्तुओं को उदरस्थ करते रहते है।

मिर्च के साथ प्रयुक्त किया जाने वाला नमक भी शरीर और स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होने के स्थान पर हानिकारक ही है। केवल नमक ही स्वास्थ्य को अपूरणीय क्षति पहुँचाता है। हाल ही में कुछ समय पूर्व वैज्ञानिकों ने नमक के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए चूहों पर प्रयोग किये। और पाया कि इससे चूहों का रक्त चाप बढ़ जाता है सामान्यतः एक व्यक्ति आधे से एक औंस नमक रोज खा लेता है। इसी अनुपात में जब चूहों को नमक खिलाया गा तो उनको रक्तचाप बढ़ गया और जीवन अवधि घट गयी।

इन स्वादों के अलावा दूसरे स्वादों का अधिक उपयोग भी शरीर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। यहाँ मुख्यतः प्रयुक्त किये जाने वाले स्वादों का ही विश्लेषण करने लायक स्थान है। इतने मात्र से समय लेना चाहिए कि किसी भी स्वाद के प्रति शरीर की क्या प्रतिक्रिया है।

कहा जा चुका है कि प्रकृति ने जीभ में स्वाद कलिकाओं की रचना मात्र इस उद्देश्य से की है कि मनुष्य का भोजन के प्रति आकर्षण रुचि बनी रहे। यदि स्वाद ही प्रकृति का मुख्य उद्देश्य रहा होता तो शरीर इन स्वादों के प्रति इतनी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता मीठा खाने के बाद जीभ पर आने वाला फीकापन, कड़ुवाहट से अरुचि, खट्टे से ऊबकाई’ खारे से मितली जैसा प्रभाव जीभ पर नहीं होता। जीभ इन स्वादों को चखते ही सूचित कर देती है कि गलत चीज आ रहीं है। अब उसे बार-बार दबा कर, उसकी सूचना को अनसुना कर अपने ही मन की चलायी जाती है, तो रोग के रूप में प्रकृति पुनः सतर्क करती है। उसके बावजूद भी न सुने न माने तो दूसरा कोई कुछ क्या करें?


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