हमारा स्वाध्याय पृष्ठ - भगवान बुद्ध की अमृत वाणी

January 1979

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“सज्जन का तिरस्कार करने वाले पापी मनुष्य का कार्य वैसा ही जैसे कोई ऊपर देखकर आकाश पर थूके, उसका थूक आकाश को तो नहीं छूता, वरन् लौट कर उसी को मलीन करता है। पुनः उसका कार्य वैसा ही, जैसे कोई वायु के विपरीत प्रवाह में दूसरे पर धूलि उड़ाये। उस समय वह धूलि उड़ाने वाले पर ही आकर गिरेगी। सज्जन व्यक्ति आहत नहीं होता, उसे दुःख देने वाला स्वयं ही दुःख में ग्रस्त हो जाता है।”

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“मनुष्य को चाहिए कि क्रोध को प्रेम से, बुराई को भलाई से, लोभ को उदारता से और मिथ्या को सत्य से जीते।”

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पाप कर्म दूध की तरह तुरन्त नहीं जम जाता, वह तो भस्म से ढकी हुई आग की तरह थोड़ा-थोड़ा जलकर मूढ़ मनुष्य का पीछा करता है।

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जैसे महान् पर्वत हवा के झरोखों से विकम्पित नहीं होता; वैसे ही बुद्धिमान लोग निंदा और स्तुति से विचलित नहीं होते।

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दूसरों को दोष देखना आसान है, किन्तु अपना दोष देखना कठिन है। लोग दूसरे के दोषों को भुस के समान फटकते फिरते हैं, किन्तु अपने दोषों को इस तरह छिपाते हैं, जैसे चतुर जुआरी हारने वाले पासे को छिपा लेता है।

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अज्ञानी और मूढ़ मनुष्य केवल मौन से मुनि नहीं हो जाता। वही मनुष्य मुनि है, जो तराजू की तरह ठीक ठीक जाँच करके सुव्रतों का ग्रहण और पापों का त्याग करता है। जो दोनों लोकों का मनन करता है वही सच्चा मुनि है--धम्मपद (धम्मदृवग्गो)

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मुनि को गाँव में इस प्रकार विचरण करना चाहिए, जिस प्रकार भौंरा फूल के रंग और सुगन्ध को न बिगाड़ता हुआ उसके रस को लेकर चल देता है।

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कोई भी सुगन्ध, चाहे वह चन्दन की हो, चाहे तगर की या चमेली की, वायु से उलटी ओर नहीं जाती है। किन्तु सत्पुरुषों की सुगन्ध वायु से उलटी ओर भी जाती है। सत्पुरुषों की सुगन्ध सभी दिशाओं को सुवासित करती है।

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अपने आप को उठा, अपनी परीक्षा कर! इस प्रकार तू अपनी आप रक्षा करता हुआ विचारशील हो सुख पूर्वक इस लोक में बिहार करेगा।

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“अशुभ कर्मों को न करो, शुभ कर्मों का अभ्यास करो, चित्त पर पूर्ण निग्रह रखो, यही बुद्ध की शिक्षा है। (उदान वग्ग)

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जाति मत पूछ, तू तो बस एक आचरण पूछ। देख! आग चाहे वैसे काष्ठ से पैदा होती है। इसी प्रकार ‘नीचे-कुल’ का मनुष्य भी धृतिमान, सुविज्ञ, और निष्पाप मुनि होता है। (अत्तदीप सुत्त)

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उलीचो, उलीचो, इस नाव की उलीचो। उलीचने से तुम्हारी यह नाव हल्की हो जायगी और तभी जल्दी-जल्दी चलेगी। राग और द्वेष का छेदन करके ही तुम निर्वाण-पद पा सकोगे। (धम्मपद से)


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