सारे वातावरण को ही गायत्रीमय बनाना होगा

January 1979

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मानवीय आस्थाओं में प्रविष्ट अवाँछनीयता की जड़ों को काटने, निकाल बाहर करने तथा उनके स्थान पर प्रकाश पूर्ण धारणाओं, सद्विचार सद्कर्म और मानवीय सम्वेदनाओं की स्थापना के लिये जिस महाशक्ति के अवतरण की आवश्यकता पड़ा करती है, उसका अवतरण इस युग में गायत्री के रूप में हुआ? पिछले दिनों जो भी अवतार हुये उन्हें व्यक्त से लड़ना पड़ा, वह कार्य अपेक्षाकृत सुगम था। किन्तु इस युग में जबकि असुरता ने मनों में, मानवीय, आस्थाओं में आधिपत्य जमा लिया हो वैसी ही प्रकाशपूर्ण और प्रखर सत्ता की आवश्यकता थी जो भावनाओं की गहराई में उतर कर कार्य कर सके। उसके लिये गायत्री ही समर्थ थी सो ब्राह्मी चेतना के रूप में उसका प्रादुर्भाव युग की एक अलौकिक घटना मानी जानी चाहिये।

शक्तियों का प्रकट होना एक बात है उनकी सक्रियता और युग को प्रभावित करना सर्वथा दूसरी बात। इस प्रयोजन को चिरकाल से देव-आत्मायें पूरा करती आई हैं। गायत्री महाशक्ति को व्यापक बनाने के लिये युग सैनिकों की कुमुक पूरी तरह सन्नद्ध, हर मोर्चे पर लड़ने को तैयार खड़ी है। यह अलग बात है कि मायावी असुर से कैसे लड़ा जाये, यह समझ में नहीं आता। उसके लिये बार-बार मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है, बार-बार मोह भंग की और सैनिकों में शौर्य भर कर उन्हें अग्रिम मोर्चों में भेजने की आवश्यकता पड़ती है। वही इन दिनों किया जा रहा है। गायत्री उपासना के व्यापक विस्तार की जैसी सम्भावनाएँ इन दिनों विकसित हुई हैं उन पर कोई भी संतोष ही अनुभव कर सकता है।

किन्तु इतने मात्र से बात बनती नहीं। सृष्टि बहुत बड़ी है। 65 करोड़ आबादी का तो अपना ही देश है इसमें लाख दो लाख व्यक्तियों तक यह सन्देश पहुँच भी जाये तो उससे युग परिवर्तन की तो आशा और अपेक्षा नहीं की जा सकती? अभी तक देश के ही सम्पूर्ण प्रान्तों में यह प्रकाश नहीं पहुँचाया जा सका। जबकि कल्पना सारे विश्व को गायत्रीमय बनाने की करते हैं। ऐसी स्थिति में एक बार सारे वातावरण को इस तरह मय डालने की आवश्यकता पड़ेगी जिस तरह श्रीराम ने रावण से युद्ध, श्रीकृष्ण ने महाभारत और धर्मचक्र प्रवर्तन के समय भगवान बुद्ध ने सारे वातावरण को ही आन्दोलित करके रख दिया था। उस तरह से एक सी विचारधारा और आदर्श निष्ठा के संस्कारों से ओत-प्रोत वातावरण से ही वह शक्ति व प्रेरणाएँ प्रकीर्ण हो सकेंगी, जो चिरकाल तक मानवीय आस्थाओं में शान्ति और प्रसन्नता के, सहयोग और सहकारिता के, धर्म-नीति और सदाचार के रंग भरती रहेंगी।

वातावरण की महत्ता हर कोई जानता है। सेव कुल्लू मनाली घाटियों में ही उम्दा किस्म के होते हैं यों उनकी पैदावार अन्यत्र भी होती है, पर वैसा शानदार फल दूसरी जगह नहीं बन पड़ता। भुसावल के केले की ही पौध किसी अन्य स्थान पर लगाकर भी वैसा ही केले का फल बहुत प्रयत्न करने पर भी नहीं लिया जा सका। बरार की कपास के से रेशे दूसरी जगह उपलब्ध नहीं हो पाते। लखनऊ के खरबूजों की सी सुन्दरता और मिठास सब कहीं नहीं मिलती। यह वातावरण की अनुकूलता का परिणाम है। प्रस्तुत युग को विवेकपूर्ण, सद्गुणी और सदाचारी बनाने के लिये वातावरण में उस तरह की गरिमा भरनी आवश्यक होगी जो न केवल इस देश अपितु समूचे विश्व को मानवीय आस्थाओं के प्रति निष्ठावान बनाये रखें।

वातावरण का प्रभाव पेड़ पौधों और वृक्ष वनस्पतियों तक ही सीमित रहता हो तो बात नहीं। किसी को बताया न जाये और अज्ञात श्मशान घाट में खड़ा कर दिया जाये तो अनायास भय लगने लगता है। पशुओं को दिनभर उनके मालिक एक स्थान से दूसरे स्थान लाते ले जाते रहते हैं, पर यदि कोई कसाई उन्हें वध गृह की ओर ले चलने लगता है तो पशुओं को उनके रोंगटे खड़े हो जाने जैसी स्थिति में भयभीत पाया गया है। इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि जब श्रवणकुमार अपने माता-पिता को लेकर मय देश में पहुँचे तो उनकी सारी पितृभक्ति तिरोहित हो गई उसने न केवल माता-पिता को काँवर से उतार दिया अपितु उन्हें भला-बुरा भी सुनाया। सूक्ष्मदर्शी ऋषि श्रवण कुमार के माता-पिता ने कहा हम पैदल चलते हैं, पर तुम रहो साथ ही। मय देश की सीमा पार होते ही श्रवण विलख उठा। उसे समझ नहीं आ रहा था ऐसी भूल क्यों हो गई। पिता ने बताया - वत्स! यहाँ के अधिपति मय ने अपने माता-पिता को बन्दी गृह में डालकर कठोर यातनायें दीं, इस प्रदेश में माता-पिता को सम्मान और सत्कार देने की परम्परा नहीं है वह संस्कार यहाँ के वातावरण में छाये रहते हैं, यह उसी का दुष्परिणाम था तुम्हारा दोष नहीं।

हिमालय क्षेत्र चिरकाल से ही इस देश का तपोस्थल रहा है ऋषियों, महर्षियों से लेकर भगवान राम तक ने उत्तराखण्ड में रहकर तप साधनायें सम्पन्न की। उन संस्कारों का ही प्रतिफल है कि आज भी इस प्रदेश में पहुँचने वालों में श्रद्धा और भक्ति भावनायें उमड़ पड़ती हैं। इस प्रान्त के निवासी मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा अब भी बड़े ईमानदार पाये जाते हैं। वातावरण का प्रभाव न केवल शरीर, स्वास्थ्य, खानपान और वेशभूषा को प्रभावित करता है अपितु उसके सूक्ष्म संस्कारों में मनुष्यों के विचार और भावनायें बदल डालने की भी जबर्दस्त शक्ति है। डा. आस्कर ब्रोलर ने 1948 में प्रकाशित अपने एक लेख “ब्रेन रेडिएशन” में इस तथ्य पर विस्तृत प्रकाश डालते हुये लिखा है कि किसी क्षेत्र के लोगों में एक ही तरह के विचारों में अटूट निष्ठा हो तो उनके मस्तिष्कों से होने वाले “मस्तिष्कीय विकिरण” की सघन तरंगें वहाँ छा जाती हैं और चिरकाल तक बनी रहती हैं। रूसी वैज्ञानिकों ने एक ऐसा “हीट कैमरा” बनाया है जो किसी स्थान पर अपराध करके भाग गये अपराधी द्वारा उस समय अपने शरीर से छोड़ी हुई ऊर्जा के आधार पर उसका वास्तविक फोटो तैयार कर देता है। वैज्ञानिक उस समय उसकी मनःस्थिति को अध्ययन करने के लिये भी यन्त्र विकसित करने में लगे हैं उससे अपराधों की योजनाओं के चिन्तन का भी सही स्वरूप सामने लाना सम्भव हो जायेगा जिससे अपराधी कहाँ गया है यह सब तुरन्त पता चल जायेगा। यह अनुसंधान भी उसी तथ्य को प्रकट करते और बताते हैं कि एकबार किसी वातावरण को शक्तिशाली आत्म शक्ति - भावनाओं से मथ दिया जाये तो वहाँ चिरकाल तक लोगों को प्रभावित करती रहने वाली परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं। इन दिनों सारे समाज सारे वातावरण में अनीति, बेईमानी चरित्रहीनता, तृष्णा, लिप्सा और क्षुद्र अहंकार का जो विष समा गया है उसे धोने के लिये यज्ञ और गायत्री के व्यापक विस्तार की क्रान्ति खड़ी करनी पड़ेगी। युग शक्ति गायत्री के अवतरण का यही मूलभूत उद्देश्य है जिसे इस युग की जागृत आत्माओं को अपना कर्त्तव्य समझ कर पूरा करना है।

सामूहिक कीर्तन, सामूहिक भजन और सामूहिक अनुष्ठानों के पीछे यही सिद्धान्त कार्य करता है। एकाकी उपासना से व्यक्ति का अपना वाह्याभ्यंतर प्रभावित हो सकता है, अधिक से अधिक परिवार वालों, पड़ौसियों तक भी प्रेरणायें प्रवाहित की जा सकती हैं, पर व्यापक रूप से जनशक्ति को दिशा और प्रकाश देना होता है तो उन्हें सामूहिक रूप देना पड़ता है। गायत्री मंत्र में “योनः” शब्द आता है उसका अर्थ होता है हम अकेले नहीं हम सब। इसकी संगति भी सामूहिक अनुष्ठान से ही बैठती है। सामूहिक रूप से आधे और सम्पन्न किये गये गायत्री अनुष्ठानों में सारे वातावरण को आन्दोलित कर देने और एक इच्छित दिशा में बदल डालने की शक्ति होती है। यह एक तथ्य है कि वातावरण में मनुष्य ढलता और बनता है, पर झूठ यह भी नहीं हैं कि मनुष्य द्वारा भी वातावरण ढाले और बनाये जाते है। जिनसे चिरकाल तक प्रवाहित होते रहने वाले संस्कारों की विचारों की विलक्षण फौज न जाने ब्रह्मांड के किस कोने से दौड़ती हुई आती और बादलों की तरह आच्छादित हो जाती है। गायत्री उपासना द्वारा असत् से सत् अन्धकार में प्रकाश और अज्ञान में ज्ञान की स्थापना की विलक्षण शक्ति है। एकाकी साधना द्वारा वह साधक को लाभान्वित करती है तो सामूहिक अनुष्ठानों द्वारा उससे सारा समाज, राष्ट्र और युग प्रभावित होता है इस अकाट्य सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता।

सामूहिक प्रार्थनायें सारे वातावरण को हिला देने की सामर्थ्य रखती हैं। युद्ध और संकट के समय प्रायः प्रत्येक देश में सामूहिक प्रार्थनायें आयोजित होती हैं। मुसलमानों में नियत दिन नियत समय पर सामूहिक समाज के पीछे भी यही सिद्धान्त कार्य करता है। 13 वें अपोलो (चन्द्र यात्रा) अभियान के समय अन्तरिक्षयानों में आई गड़बड़ी से जब तीनों यात्रियों का जीवन संकट में पड़ा तब पृथ्वी वासियों की सामूहिक प्रार्थना ही उनके लिए ढाल बनी और वे सकुशल धरती पर लौटे।

युग परिवर्तन के लिए दुष्टता, असुरता, अधर्म और आडम्बरों से लड़ने के लिये जिस महान् शक्ति की आवश्यकता हो सकती हैं, वह दुर्गा से कम नहीं हो सकती, दुर्गा सामूहिकता का प्रतीक है। इस दृष्टि से भी गायत्री का विस्तार व्यापक क्षेत्र में होना आवश्यक था। इसीलिए इस योजना के आधार के रूप में गायत्री तत्व ज्ञान पर इतना जोर दिया गया। क्रमशः कदम उठाते हुए उस स्थिति तक पहुँचना संभव हो सका है जहाँ से सारे राष्ट्र को एक उपासना समुदाय में ढाला जा सके। इससे जो वातावरण विनिर्मित होगा, जो अन्तर्क्रान्ति उठ खड़ी होगी वह अन्तःकरणों में छाये हुये अज्ञान, अन्धकार, अशक्ति और दरिद्रता को नष्ट भ्रष्ट कर डालेगी। जब तक यह मूढ़तायें रहती हैं, मानवीय संवेदना का मार्ग प्रशस्त नहीं हो पायेगा अतएव सृजन प्रक्रिया के पूर्व की यह विचार मंथन प्रक्रिया आवश्यक मानी गयी है।

गायत्री मंत्र सामान्य दृष्टि से देखने में यो पूजा उपासना में प्रचलित एक प्रार्थना जैसा लगता है जिसमें परमात्मा से सद् बुद्धि की प्रार्थना की गई है किन्तु शब्द शक्ति के ज्ञाता जानते हैं कि इस महामंत्र के 24 अक्षर 24 महान शक्तियों के ऐसे मर्म स्थल बीज और शक्ति कोष हैं जो सारे ब्रह्माण्ड में हलचल मचा देने की शक्ति से ओत-प्रोत है। गायत्री उपासना के प्रति जन आस्था का भी अभाव नहीं है। पिछले दिनों कुछ स्वार्थी तत्वों ने इस महाविद्या को अपनी जन्मजात विरासत और अपने वंशधरों की सम्पत्ति समझ कर इस तरह की भ्रान्तियाँ गढ़ी जिनसे लोगों में आस्था तो बनी रहे पर उसकी व्यक्तिगत स्तर पर कोई न तो शोध कर सके न उससे लाभान्वित हो सके। इससे उनने स्वयं तो गंवाया ही राष्ट्र का बड़ा भारी अहित किया। प्राण चेतना से परिपूर्ण राष्ट्र अपनी गरिमा अपना ओज अपनी तेजस्विता खोता चला गया। बात-बात में दूसरों का परावलम्बन देख कर विश्वास नहीं होता क्या यह वही पराक्रमी देश है जिसने साधनों के अभाव में भी हिमालय की छाती फाड़ करके गंगाजी को निकाल लाने का महान् तप सम्पन्न कर दिखाया था। गायत्री उपासना चिरकाल से इस देश को शक्ति सामर्थ्य प्रदान करती रही है, इस युग के लिए तो वह संजीवनी बूटी की तरह है। इसलिए उसके अवतरण का जोरदार स्वागत किया जाना चाहिए एक बार यदि वातावरण को संस्कारित कर लिया गया तो उससे राष्ट्र और विश्व को संयत स्वस्थ, समर्थ देवभावनाओं से ओत-प्रोत रखने का गति चक्र अप ही चल पड़ेगा। यह जिम्मेदारी उन जागृत आत्माओं पर आती है, जिनकी विवेक बुद्धि वस्तु स्थिति को पहचान सकने में समर्थ है, जिनमें अन्ध विश्वास रूढ़िवादी मान्यताओं और परम्पराओं से लड़ पड़ने का साहस है। एक बार उस कारागृह से मुक्ति मिल गई तो फिर सर्वशक्तिमान माता के अनुग्रह अनुदानों से लाभान्वित होते रहने की परम्परा चिरकाल तक चलती रहेगी। राष्ट्र को हराभरा सुखी समुन्नत बनाने वाले सभी तत्व गायत्री में विद्यमान है। आवश्यकता मात्र उसे घर घर जन-जन तक पहुँचाने और लोगों के हठात् इस महाशक्ति के संपर्क में आने के लिए प्रेरित करने की है। वही इन दिनों किया जाना है।

यह आवश्यकता नहीं कि जो इस पुण्य प्रयोजन में जुटें वे उतने उच्च स्तर के साधक और निष्णात हों ही युग सत्ता ने वह परिस्थितियाँ स्वयं विनिर्मित कर दी हैं। प्रशिक्षण, मार्गदर्शन, संरक्षण सभी कुछ उपलब्ध है, गायत्री उपासना, दर्शन, कर्मकाण्ड, नियमोपनियमों, विज्ञान आदि सभी पक्षों पर विभिन्न प्रकार की पुस्तकों पत्रिकाओं द्वारा प्रचुर मात्रा में प्रकाश डाला गया, डाला जा रहा है। लोगों को उसके संपर्क में लाने भर को बात है। यह कार्य कोई भी थोड़ा-सा समय लगा कर भी पूरा कर सकता है।

व्यक्ति मूलतः दो भागों में विभक्त है। एक उसका बहिरंग, कवच ढाँचा, खोखला, जिसे शरीर कहते हैं। दूसरा उसकी चेतना प्राण गति, तत्परता, इच्छायें, आकाँक्षायें, भावनायें। यह सभी जानते हैं कि इनमें महत्व दूसरे अन्तरंग कलेवर का ही है नो तो भी 60 प्रतिशत लोग जीवन के बहिरंग क्षेत्र को ही सजाने सँवारने में लगे रहते हैं। अन्तरंग की उपेक्षा होती रहती है। व्यक्ति के स्वार्थों कुटिल, अनाचारी होने और विश्व में सर्वत्र अव्यवस्था, अशान्ति फैलने के पीछे वही शारीरिक सुखों के प्रति आसक्ति तृष्णा, और भोगवादी वृति है। भावनायें बुरी तरह मसली कुचली जाती रहती है। न्याय का सचाई का नैतिकता का, मनुष्यता का गला घुटता रहता है। अपराधों में वृद्धि उसी का परिणाम है। आलस्य, प्रमोद, परावलम्बन भी उसी अन्तरंग के परिष्कार का अभाव ही है और कुछ नहीं। गायत्री को “प्राणों के उत्कर्ष” की भी साधना कहते हैं। इस उपासना से अन्तरंग गतिवान होता है, उसमें छायी मलीनता, अन्धकार, अविवेक दूर भागते है। सृष्टि का यथार्थ अभिव्यक्त होने से मनुष्य करने योग्य करता है और सोचने योग्य सोचता है। भावनाओं में देवत्व का विकास और कर्तृत्व में शुचिता व पवित्रता का, दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। जहाँ लोगों की भावनायें शुद्ध और पवित्र होगी वहाँ के समाज में सर्वत्र शान्ति, सुव्यवस्था, प्रसन्नता और सन्तोष भरे जीवन की निर्झरिणी प्रवाहित हो रही होगी। गायत्री को देवताओं की माता, वेद माता इसलिये कहते हैं। उससे ज्ञान की समृद्धि, पवित्रता का विस्तार और सक्रियता की अभिवृद्धि होती है। साँसारिक सुख-शान्ति और प्रगति के यही तीन आधार है; जो गायत्री से पूरे होते है। इस विज्ञान का एक पक्ष लूले-लंगड़े रूप में विद्यमान है, उसका विज्ञान पक्ष बहुत अधिक शक्तिशाली और समर्थ है। वह इन दिनों अभिव्यक्त हो रहा है। इस प्रकाश को सम्पूर्ण शक्ति लगा कर घर-घर पहुँचाया जाय और इस युग के वातावरण को चिन्तन, उपासना और यज्ञों के विस्तार द्वारा गायत्री मय बनाया जा सके तो युग शक्ति का यह अवतरण सफल और सार्थक हो कर रहेगा। उससे इस देश और विश्व को चिरकाल तक स्वस्थ, स्वच्छ और समर्थ बनाये रखने वाली ऊष्मा का प्रस्फुटन सम्भव होगा। इसे अपना पुनीत कर्त्तव्य मानकर प्रत्येक उस व्यक्ति को, जिसे युग शक्ति गायत्री का संपर्क सान्निध्य मिला है, दूसरों तक पहुँचने के लिए हृदय अन्तःकरण से कटिबद्ध होना पड़ेगा। इतना किया जा सका तो इस महान् सत्ता का अवतरण सफल और सार्थक होकर ही रहेगा।


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