अचेतन का परिष्कार ही परम लक्ष्य

November 1976

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शरीरगत भली-बुरी विशेषताओं के लिए अब मनः-स्थिति को ही प्रधानतया उत्तरदायी ठहराया जाता है। भौतिक जीवन की सफलताओं के लिए भी उसी को आधारभूत माना जाता है। यही सामान्य दीखते हुए भी असामान्य निष्कर्ष है। पिछले दिनों परिस्थितियों एवं साधनों को मनुष्य की प्रगति अवगति का कारण माना जाता था। उत्थान-पतन का निमित्त दूसरों के सहकार एवं अपकार को समझा जाता था। कई बार शारीरिक स्थिति को ही सफलता-असफलता का श्रेयाधिकारी ठहराया जाता था। अब वैसी स्थिति नहीं रही। मनः शास्त्रियों द्वारा यह स्वीकार किया गया है कि व्यक्तित्व के प्रायः सभी क्षेत्र मानसिक स्थिति से प्रभावित होते हैं। अस्तु यदि किसी को अपनी गई-गुजरी स्थिति सुधारनी है और महत्वपूर्ण प्रगति करनी है तो मुरझाये पेड़ के पत्ते धोने की अपेक्षा उसकी जड़ में पानी लगाना चाहिए। अस्त-व्यस्त मनः स्थिति को सुव्यवस्थित बनाना चाहिए।

बुद्धि के केन्द्र चेतन मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने के लिए स्कूल, कालेजों एवं अन्य ज्ञान संस्थानों का प्रबन्ध है पर अब जाना यह गया है कि बुद्धिमत्ता से अधिक महत्वपूर्ण है-आदतें। आदतों के सही होने पर स्वल्प बुद्धि से भी व्यवस्थित रीति-नीति अपनाकर उन्नति के उच्च-शिखर पर पहुँचा जा सकता है। इसके विपरीत तीक्ष्ण बुद्धि व्यक्ति भी बुरी आदतों का शिकार बनकर समय और शक्तियों का अपव्यय करता है और घाटा उठाता तथा असफल रहता है। अब नई शोध का विषय है-अतीन्द्रिय विज्ञान। जिसे पाश्चात्य देशों में परा-मनोविज्ञान कहा जाता है। इन अनुसंधानों में ऐसी घटनाओं की प्रमाणिकता जाँची जाती है जो प्रकृति के सामान्य घटनाक्रम एवं मनुष्य के साधारण साधनों से भिन्न प्रकार की होती है। मानवी चेतना पर अवतरित होने वाली अद्भुत जानकारियों का स्रोत कहाँ है? वे किस आधार पर घटित होती हैं? वे अनायास ही-व्यक्ति विशेष पर ही घटित होती हैं, या प्रयत्नपूर्वक वैसी स्थिति पैदा की जा सकती है? यह ऐसे ही अनेक प्रश्नों की श्रृंखलाएं सामने प्रस्तुत हैं, जिनके समाधान खोजने के लिए परामनोविज्ञान क्षेत्र के अनुसंधानकर्ता प्रयत्नशील है।

इस प्रयास में अभी बहुत थोड़े ही निष्कर्ष निकल सके हैं। जो जानना बाकी है उसके देखते हुए सफलताओं को नगण्य ही कहा जा सकता है। फिर भी कुछ निष्कर्ष ऐसे हैं जिनके आधार पर अतीन्द्रिय क्षमता के कारणों पर थोड़ा प्रकाश पड़ता है। यह माना गया है कि मस्तिष्क का अचेतन क्षेत्र शरीर संचालन की गति-विधियों का सूत्रधार तो है, पर उसकी सामर्थ्य उतने तक ही सीमित नहीं है। मन की दोनों परतों को जितनी मात्रा में विकसित होने का अवसर मिलता है उतना ही वे व्यक्तित्व को अधिकाधिक प्रतिभा सम्पन्न बनाती हैं और सफलताओं के नये-नये द्वार खोलती हैं। व्यक्तित्व के समग्र विकास में शरीरगत समर्थता की तुलना में मानसिक बलिष्ठता की भूमिका असंख्य गुनी बढ़ी-चढ़ी होती है, मनोबल सम्पन्न मनुष्य दुर्बल और रुग्ण होते हुए भी अपनी प्रखरता बनाये रह सकता है और उसी स्थिति में ऐसा कुछ करता या कराता रह सकता है जिसे आश्चर्यजनक एवं सराहनीय कहा जा सके। इसके विपरीत शरीर से बलिष्ठ एवं सुगठित होते हुए भी मनोबल की दृष्टि से गये-गुजरे लोग सुविधा साधनों के रहते हुए भी गई-गुजरी स्थिति में दिन काटते, पग-पग पर असफल होते और उपहासास्पद बनते देखे जाते हैं। दैनिक जीवन की अधिकाँश सफलताएँ प्रायः विकसित मनःस्थिति की ही प्रतिक्रिया होती है। आदतें और कुछ नहीं अन्तर्मन की वर्तमान दृढ़ता ही उनका निर्माण करती है। इसी को व्यक्तित्व कहते हैं। प्रगति और अवगति इसी पृष्ठभूमि पर निर्धारित रहता है।

कुछ समय पूर्व बीमारियों के कारण रोग कीटाणुओं के आक्रमण संग्रहित विजातीय द्रव्य एवं अमुक अवयवों की टूट-फूट आदि माने जाते थे और इन्हीं को निरस्त करने लिए चिकित्सकों द्वारा उपाय उपचार किये जाते थे। अब गहराई तक जाने पर यह निष्कर्ष निकला है कि यह कारण गौण और अचिन्त्य चिन्तन की मानसिक विकृतियाँ प्रधान कारण है। अब मनोविकारों को न केवल मस्तिष्कीय रोगों का वरन् शारीरिक रोगों का भी सर्वोपरि कारण माना जा रहा है। यह पाया गया है कि मनोबल सम्पन्न, साहसी और सन्तुलित व्यक्ति सामान्य अथवा घटिया शारीरिक स्थिति में निरोगी की तरह काम करता और प्रसन्नचित रहता है। जबकि अस्त-व्यस्त मनः स्थिति वाला अकारण ही गिरी-मरी स्थिति में पड़ा रहता है। कितने ही दर्द एवं रोग ऐसे होते हैं जिनकी जड़ शरीर में नहीं मन में होती है। शरीर की जाँच-पड़ताल करके डॉक्टर कहता है इसमें कोई रोग नहीं है, पर रोगी अपने को रुग्ण एवं पीड़ाग्रस्त अनुभव करता है। ऐसी बीमारियाँ विशुद्ध मानसिक रोग होने पर भी उतनी ही कष्टकारक होती हैं, जितनी कि वास्तविक रुग्णता ।

आँखों की चमक, चेहरे का आकर्षण, होठों पर नाचती मुस्कराहट, वाणी में प्रभाव जैसे व्यक्तित्व को मनोरम बनाने वाली विशेषताएं शारीरिक गठन पर नहीं मानसिक उत्साह पर निर्भर रहती हैं। रंग रूप की दृष्टि से सुन्दर दीखने वाले व्यक्ति भी मानसिक अस्त-व्यस्त होने पर उपेक्षणीय एवं उपहासास्पद बने रहते हैं। प्रथम दर्शन में जो आकर्षण प्रभाव उत्पन्न हुआ था वह सम्पर्क में आने और व्यक्तित्व का परिचय मिलने के साथ ही समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत काले, कुरूप मनुष्य भी आँतरिक उत्साह के कारण बड़े तेजस्व एवं आकर्षक प्रतीत होते है, उनकी कल्पना, सूझ-बूझ, वाणी, आकाँक्षा, स्फूर्ति, साहसिकता एवं उमंग देखकर हर किसी को सम्पर्क में आने की इच्छा होती है। ऐसे लोगों के सान्निध्य में हर कोई प्रसन्नता अनुभव करता है। आरोग्य से लेकर आकर्षण तक शरीर की सभी विशेषताएँ मनोबल पर निर्भर रहती हैं सक्रियता से लेकर सफलता तक का सारा क्षेत्र मनःस्थिति से ही प्रभावित पाया जाता है।

मनोबल भी यान्त्रिक विद्युत की तरह ही एक प्रभावशाली तत्व है। उसका प्रभाव मनुष्यों एवं दूसरे प्राणियों पर होते हुए आये दिन देखा जाता है। एक प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने समीपवर्ती लोगों को किस प्रकार अपना अनुचर बनाता है उसका प्रमाण सर्वत्र उपलब्ध होता है। अन्य प्राणियों को प्रभावित करने में भी कुछ मनस्वी लोग असाधारण रूप से सफल होते हैं। सरकस में पशुओं के शिक्षक क्रूर प्रकृति के हिंस्र प्राणियों को भी दुलार फटकार के सहारे प्रशिक्षित करते और उन्हें कठपुतली की तरह नचाते हुए देखे जाते है। महावत का कहना हाथी मानता है और मनस्वी घुड़सवार के पीठ पर पहुँचते ही अड़ियल घोड़ा भी सीधा हो जाता है। कितने ही लोग भिन्न प्रकृति के प्राणियों की जन्म-जात द्वेष बुद्धि को स्नेह सहयोग के बदल देते है। ऋषियों के आश्रमों में सिंह और गाय में साथ रहने की बात प्रसिद्ध है। अभी भी कइयों ने कुत्ते बिल्ली इस प्रकार पाले होते हैं कि वे सहोदर भाई-बहिन की तरह रहते हैं। इटली का एक किसान अपनी मुर्गियों के फार्म की रखवाली पालतू बिल्लियों से कराता था। कुत्ते और मनुष्यों की मित्रता एवं वफादारी के जो अनेक प्रसंग सुने जाते हैं, उसमें पालने वालों का मानसिक प्रभाव ही प्रधान रूप में काम करता है। पूरे परिवार में किसी व्यक्ति विशेष के साथ अतिरिक्त लगाव रखने वाले पालतू पशु वस्तुतः किसी की मनःस्थिति से प्रभावित हुए होते हैं।

ज्ञान सम्पदा का अपना महत्व है। बौद्धिक तीक्ष्णता के लाभ और चमत्कार सर्वविदित हैं, पर यदि आदतों का मूल्याँकन किया जा सके तो प्रतीत होगा कि उनका वजन मस्तिष्कीय तीक्ष्णता की सम्मिलित उपलब्धियों की तुलना में भी भारी पड़ता है। बुरी आदतें क्षति पहुँचाती हैं, उसकी भरपाई अन्य विशेषताओं से नहीं हो सकती आलस्य को ही लें, वह देखने में छोटी सी बुराई है, पर उसकी प्रतिक्रिया हर काम को अधूरा अस्त-व्यस्त और अनकिया हुआ पड़ा रहने के रूप में सामने आती है। फलतः सुयोग्य और साधन सम्पन्न व्यक्ति भी अपनी अकर्मण्यता कारण पग-पग पर असफल होते रहते हैं। ऐसी बहुमूल्य प्रतिभाएं जो बहुत कुछ कर सकती थीं और अपनी विशेषताओं के कारण चमत्कार उत्पन्न कर सकती थीं वे आलस्य और प्रमाद की दल-दल में फंसे रहने के कारण अपंग असमर्थों जैसी दयनीय स्थिति में पड़ी रहीं इसके विपरीत कर्मनिष्ठ, श्रमशील नियमित और व्यवस्थित लोग स्वल्प बुद्धि एवं स्वल्प साधनों की सहायता से ही अभीष्ट प्रयोजनों में तत्परता पूर्वक लगे रहने के कारण उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचे। कटु स्वभाव, अधीरता, चटोरापन, नशेबाजी, फिजूलखर्ची जैसी छोटी दीखने वाली आदतें धीरे-धीरे जितनी हानि पहुँचा देती हैं उतनी भयंकर दुर्घटनाएं एवं आकस्मिक विपत्तियाँ भी नहीं कर सकतीं। संसार के महामानव परिस्थितिवश यशस्वी नहीं हुए और न साधन उन सफलताओं के कारण बने हैं। उस प्रखर मनस्विता ने ही उन्हें आगे बढ़ाया है जो आदतों के रूप में चिन्तन तथा क्रिया-पद्धति को उच्चस्तरीय बनाये रही।

स्मरण रहे आदतों का सीधा सम्बन्ध अचेतन मन से है। उनका आरम्भ भले ही भले-बुरे चिन्तन से अथवा अनुकरण से होता है, पर जब वे जड़े जमा लेती हैं तो फिर उन्हें उखाड़ना कठिन हो जाता है। नशेबाजी के सम्बन्ध में प्रायः यही होता है। दुष्परिणामों को देखते, समझते हुए भी नशेबाज अपनी आदत के सामने एक प्रकार से विवश हो जाता है और छोड़ने की कल्पना, जल्पना, करते रहने पर भी कुछ बन नहीं पड़ता। आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक एवं समाज सम्मान की अपार क्षति सहन करते हुए वह दम तो तोड़ देता है, पर उस आदत से पिण्ड छुड़ाने में अपने को असमर्थ पाता है। यही बात अन्यान्य भली-बुरी आदतों के बारे में भी कही जा सकती है। हलकी-फुलकी हो तो बात अलग है अन्यथा स्वभाव का अंग बन जाने वाली- गहरी जड़े जमा लेने वाली आदतें व्यक्तित्व का अंग बन जाती और प्रगति अवगति का महत्वपूर्ण कारण सिद्ध होती है।

आदतों का केन्द्र अचेतन मन है। उस क्षेत्र को यों सामान्य दृष्टि से उपेक्षित माना जाता है, पर वस्तुतः उसकी गरिमा बुद्धि संस्थान से भी अधिक बढ़ी-चढ़ी है। विचार तो आदमी क्षणभर में बदल सकता है, पर स्वभाव को बनाना या बदलना उतना सरल नहीं है। चिन्तन का ढर्रा, इच्छाओं का रुझाना, विश्वासों का गठन, अभ्यास का पुनरावर्तन जैसे तत्व ही मिल कर स्वभाव का सृजन करते हैं और उसी को व्यक्तित्व के साथ में प्रस्फुटित होते देखते हैं। इस प्रकार अचेतन मन ही वस्तुतः सारे जीवन पर छाया हुआ मिलता है। आदतें तो अचेतन मन में रहती हैं, पर उन्हें पूरी करने के लिए योजना बनाना-व्यवस्था करना एवं समर्थन में तर्क गढ़ना-प्रमाण ढूंढ़ना चेतन मन का काम है। समझने की सुविधा के लिए चेतन-अचेतन का विभाजन है वस्तुतः वह एक ही मनः तत्व की दुहरी क्रिया पद्धति है। एक ही व्यक्ति विद्वान और पहलवान-चित्रकार और साहित्यकार-वक्ता और नर्तक हो सकता है। देखने में यह क्रियाएं एक दूसरे से असंबद्ध लगती हैं, पर पेड़ में फूल और फल आने की तरह यह दुहरी प्रक्रिया आसानी से चलती रह सकती है। मन वस्तुतः एक है। उसे स्थूल शरीर की सूक्ष्म संचालक शक्ति कह सकते हैं और समझने की सुविधा के लिए बिजली तथा मशीन के सहयोग से चलने वाली फैक्टरी का उदाहरण दे सकते हैं। शरीर को मशीन और मन को बिजली कहा जाए, तो यह उदाहरण ठीक ही होगा।

मन के दो भाग हैं एक अचेतन, दूसरा चेतन। अचेतन का काम आकुंचन-प्रकुँचन, श्वास, प्रश्वास, निमेष-उन्मेष, पाचन-विसर्जन, रक्ताभिषरण, क्षुधा-पिपासा, निद्रा-जागृति जैसी व्यवस्थाएं जुटाते रहना होता है। तरह-तरह की आदतें तथा आस्थाएं भी उसी में जड़े जमाये बैठी रहती हैं और अविज्ञात रूप से जीवन-क्रम का परोक्ष संचालन करती रहती है। चेतन का काम इच्छा, ज्ञान और क्रिया का धारण तथा उनके सहारे आवश्यक व्यवस्थाएं बनाते एवं जुटाते रहना होता है। अध्यात्म की भाषा में चेतन को बुद्धि और सचेतन को चित्त कहते हैं। इन्हीं दोनों के सहारे जड़ पदार्थों से बना पंचभौतिक शरीर चैतन्य सत्ता की तरह काम करता दीखता है।

यों शरीर यात्रा के लिए भी प्राणि चेतना को बहुत कुछ उपलब्धियाँ ब्रह्मांड चेतना से ही मिलती हैं किन्तु जब आत्मिक प्रगति की-चेतना की परिष्कृति एवं प्रखरता की बात आती है तब तो उस ब्रह्माण्ड शक्ति सागर का-ब्रह्म सम्बन्ध का- अधिक सघन सम्बन्ध चल पड़ता है। सामान्य शरीर यात्रा प्रकृति की स्वसंचालित विधि-व्यवस्था के सहारे ही चलती रहती है। उसके लिए व्यावहारिक प्रशिक्षण, समाज सम्पर्क एवं स्कूली अध्ययन से काम चल जाता है, पर आत्मिक प्रगति की-चेतनात्मक प्रखरता की आवश्यकता अतिरिक्त रूप से साधना प्रयास करने पर ही सम्भव होती है। योगाभ्यास एवं तपश्चर्या की सारी विधि-व्यवस्था इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुई हैं। कभी-कभी ऐसे अपवाद भी देखे जाते हैं कि बिना किसी साधना के चेतना का असाधारण विकास पाया गया है, पर वह अनायास दीखते हुए भी वस्तुतः पूर्व जन्मों की संग्रहीत सम्पदा होती है। कुछ बालक जन्म से ही कुशाग्र बुद्धि होते हैं। कम आयु में भी उनकी प्रतिभा कई विषयों में वयस्कों जैसी विकसित होती है। कुछ बालक छोटी उम्र में गायक, वादक, वक्ता आदि विशेषताओं से सम्पन्न होते हैं। उन्हें कुछ विशेष शिक्षण भी नहीं मिला होता, पर लगता है, अपने विषय में पारंगत हैं। यह उनके पूर्वजन्मों के संचित संस्कार होते हैं जो अवसर पाते ही अपने आप उगते और बढ़ते मालूम होते हैं। वस्तुतः उनकी जड़े पहले से ही विद्यमान होती है।

अचेतन का परिष्कार ही अध्यात्म भाषा में आत्म-निर्माण, आत्म-साक्षात्कार, आत्म-बोध, आत्मोद्धार आदि नामों से पुकारा जाता है। सुसंस्कृत और अधःपतित मनुष्य में स्थूल दृष्टि से कोई बड़ा अन्तर नहीं होता उनके शारीरिक अवयव एवं ज्ञान कौशल आदि में बहुत कुछ समानता रहते हुए भी प्रकृति में जमीन आसमान जितना अन्तर पाया जाता है। इन्हीं कारणों से उन्हें निन्दा-प्रशंसा का- सफलता-असफलता का भागी बनना पड़ता है।

अध्यात्म विज्ञान की यदि तात्विक समीक्षा की जाय तो प्रतीत होगा कि यह सारी प्रतिष्ठापना और घेराबन्दी अचेतन की पशु प्रवृत्तियों से ऊंचा उठा कर मानवता की उच्चस्तरीय संस्कारिता में बदलने के लिए ही खड़ी की गई है। तत्व दर्शन के आधार पर जिस दृष्टिकोण को आस्थाओं के रूप में हृदयंगम किये जाने पर जोर दिया गया है वे अचेतन की दिशाधारा को परिष्कृत करने का उद्देश्य लेकर ही प्रतिष्ठापित की गई है।


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