जीव-जन्तुओं की विशिष्ट चेतना शक्ति

November 1976

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बुद्धि की दृष्टि से मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में कहीं आगे है। यह विकास उसने सहकारिता के आधार पर पारस्परिक आदान-प्रदान की प्रवृत्ति पनपाकर सम्भव बनाया है। बुद्धि, वैभव से उसने परिवार, समाज, शासन की संगठना बनाई है। शिल्प, शिक्षा, कला, कृषि, व्यवसाय, वाहन जैसे सुविधा जुटाने वाले साधन खड़े किये हैं। विज्ञान बुद्धिबल की ही देन है। एक-एक सीढ़ी ऊँची चढ़ते हुए मनुष्य जाति उस स्थान पर पहुँच पाई है जहाँ उसे प्रकृति सम्पदा का स्वत्वाधिकारी माना जाता है।

इतने पर भी यह नहीं समझना चाहिए कि सृष्टि के अन्य प्राणी मात्र मरने तक का नीरस जीवन जीते हैं। उनके पास आनन्द एवं सुविधा सम्वर्धन के लिए कोई विशेष चेतना नहीं है। वास्तविकता यह है कि अपनी जीवनचर्या को सुखद और सरल बनाने के लिए उन्हें ऐसी दिव्य क्षमताएँ प्राप्त हैं, जिनसे मनुष्य एक प्रकार से वंचित ही है। जिस अनुपात से छोटे जीवों को विशेष क्षमताएँ प्रकृति ने प्रदान की हैं यदि वही सब मनुष्य को भी मिल सकी होती तो वह देव-दानवों की स्थिति में रह रहा होता। भगवान ने अपने न्याय वितरण में जहाँ मनुष्य को बुद्धि दी है वहाँ अन्य प्राणियों को भी बहुत कुछ दिया है जिसे देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।

पशु-पक्षियों की अपनी साँकेतिक भाषा है। उसके आधार पर वे एक दूसरे से विचार-विनिमय करते हैं। प्रेरणा देते और ग्रहण करते हैं। उनका बोलना, चह-चहाना निरर्थक नहीं होता, वरन् उसमें अभिव्यंजनाओं की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न आवाजों के आधार पर होती है। इस प्रकार के उच्चारण से वे अपना जी हलका करते और साथियों को अपनी स्थिति से अवगत कराते हैं। इससे वे सचेत होते, लाभ उठाते और संकट से बच निकलने का उपाय खोजते हैं। मनुष्येत्तर प्राणियों की आवाज टेप करके उसे उनके साथियों को सुनाया गया तो पाया गया कि वे उससे प्रभावित होते हैं और आवाजों के अनुरूप अपनी हलचलें प्रस्तुत करते हैं।

वन-जातियों एवं शिकारियों का अनुभव है कि साधारण रीति से बिना छल, कपट का मनुष्य आसानी से वन-जातियों के बीच आ जा सकता है। इसमें उन्हें कोई विशेष उद्विग्नता नहीं होती। किन्तु यदि आखेट के उद्देश्य से दुरभिसंधि लेकर कोई उनके समीप पहुँचता है तो मनोभाव ताड़ने में उन्हें देर नहीं लगती। हड़बड़ाकर वे आत्म-रक्षा के लिए दूर भागने का प्रयत्न करते हैं। यहाँ तक कि मनुष्य द्वारा बन्दूक आदि कपड़ों में छिपाकर ले जाने से भी उन्हें संकट को पहचानने में देर नहीं लगती । मनुष्य में मनोभाव ताड़ने की यदि ऐसी क्षमता होती तो उसे अपने स्वजन, साथियों द्वारा बार-बार ठगे जाने की स्थिति क्यों आती?

भूखे सिंह की आकृति देखकर ही आस-पास चरने वाले वन्य-पशु जान बचाकर भाग खड़े होते हैं इसके विपरीत जब उसका पेट भरा होता है तो आँखों से सिंह दिखाई पड़ते रहने पर भी जंगली पशु निर्भयतापूर्वक आस-पास ही चरते रहते हैं। इतनी ही नहीं भय होने पर वे भयाक्रान्त वाणी बोलकर अन्य साथियों को भी खतरे से सचेत कर देते हैं।

शिकार के समय अथवा अन्य किसी प्रतिद्वन्द्वी से उलझते समय सिंहनी अपने बच्चों को किसी सुरक्षित स्थान पर छिपा देती है। बच्चे भी वस्तुस्थिति समझ लेते हैं और दुम साधकर बिना हिले-जुले चुपचाप लुके रहते हैं। खतरा समाप्त होने का संकेत पाते ही वे दौड़कर उछलते-कूदते माँ के पास जा पहुँचते हैं। मात्र माँ की मनःस्थिति के सहारे परिस्थितियों को समझ लेना और अपनी बाल चंचलता को बुद्धिमत्तापूर्वक दबाये रहना इन शावकों की अनोखी समझदारी कही जा सकती है।

पक्षियों में एक तरह की अन्तर्दृष्टि भी होती है और गुप्त चेतावनी-व्यवस्था भी । मनुष्य अपने शत्रु-मित्र की पहचान में अक्सर भूलें करता है। पर पक्षियों में इस विषय में जन्म-जात क्षमता पाई गई है। एक वैज्ञानिक प्रयोग में एक कागज के एक ओर हंस का-सा और दूसरी ओर बाज जैसा आकार दिया गया तथा मुर्गी के नन्हें-नन्हें बच्चों के एक पिंजड़े के चारों तरफ इन नकली दो मुँहे पक्षी को घुमाया गया। यह देखा गया कि जब उन बच्चों के सामने हंस का आकार आता, तो वे सहज रहते, पर जब बाज जैसी आकृति दिखती, उनमें भय और खलबली दौड़ जाती। उन बच्चों को बाज के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई थी, न ही बाज उन्होंने कभी देखा था। तो भी वे शत्रु-मित्र की पहचान कर सके।

प्रख्यात पक्षी वैज्ञानिक डॉ0 ज्योफ्रेमैथ्यूस का कहना है कि पक्षियों के भीतर एक ‘जीव वैज्ञानिक समय व दिशा सूचक यन्त्र’ होता है, जिससे वे सूर्य और नक्षत्रों की स्थिति जानते हैं तथा सहस्रों मील लम्बी यात्राएँ करते व समुद्र को सही दिशा में उड़कर पार करते हैं।

यही भी देखा गया है कि पिंजड़े में बन्दी वे पक्षी, जिनकी लम्बी उड़ानों की ऋतुएँ निश्चित होती हैं, उस ऋतु के आगमन पर उदास हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें उड़ने को नहीं मिलता।

सेलोमन व डाल्फिन मछली प्रजनन के समय अपने जन्म स्थल पर पहुँचती हैं। इसके लिए उन्हें सैंकड़ों मील की यात्रा करनी होती है।

ईल नामक सर्पमीन बिना रडार या कुतुबनुमा के ही यूरोप की नदियों से सागर तट तक निश्चित स्थानों पर हजारों मील चलकर पहुँच जाती है। मादा ईल यूरोप की मीठे पानी वाली नदियों में रहती हैं और नर ईल अतल समुद्र में। 8-10 वर्ष होने पर मादा ईलें जुलाई, अगस्त में योरप की इन नदियों में समुद्र की ओर कूच कर देती हैं। बिना किसी दिशा सूचक यन्त्र या घड़ी के ये निश्चित समय पर समुद्री मुहानों तक पहुँच जाती हैं, जहाँ नर ईल अपना भूरा कलेवर बदल कर रजतवर्णी आभा और सतरंगी आकाँक्षाओं के साथ प्रतीक्षा करते रहते हैं। जैसे ही मादा ईलें समुद्री मुहानों पर पहुँचती हैं और अपने-अपने प्रियतम को देखती हैं, उनकी गुलाबी भावनाएँ वेगवती हो उठती हैं और दोनों एक-दूसरे से लिपट जाते हैं तथा प्रणय केलि करते गहरे समुद्र में पहुँच जाते हैं। वहीं डुबकी लगाकर 3 सौ से 15 सौ मीटर तक की गहराई में मादा ईलें अण्डे देती हैं। उन पर नर ईल अपने शुक्राणु डालते जाते हैं। यही गर्भाधान की क्रिया है। पर प्रसव के बाद ही मादा और उसके साथ ही नर-ईल देह त्याग देते हैं। संभवतः कर्त्तव्य-सम्पादन की संतुष्टि उनको दीर्घ विश्राम को प्रेरणा देती है। नन्हें बच्चों का पालन प्रकृति करती है। बड़े होने पर ये बच्चे समुद्र की सतह पर आ जाते हैं। जीवाणु और घास खाते तथा धूप सेवन करते हैं एक वर्ष में वे तीन इंच लम्बे हो जाते हैं। मुहाने पर पहुँचते हैं। ईल-किशोरियों की देह समुद्री मुहाने पर पहुँचते ही गुलाबी हो उठती है।

बसन्त ऋतु में वे उन्हीं मीठे पानी वाली नदियों की ओर चल पड़ती है। नर-ईल वहीं रह जाते हैं। 8-10 वर्ष बाद यही मादा-ईल सहसा प्रणयाकाँक्षा से भरकर चल देती है समुद्री मुहाने की ओर।

विशालकाय ह्वेल मछलियाँ भी अनुकूल वातावरण की खोज में समुद्र में हजारों मील दूर तक चली जाती हैं और भटकती कदापि नहीं।

वैज्ञानिक अनुसन्धानों से पता चला है कि कीड़े-मकोड़े और छोटे जीव-जन्तु भिन्न-भिन्न भाँति के सन्देशों को सम्प्रेषित करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की अत्यन्त हलकी गन्ध प्रसारित करते हैं, जिसे मनुष्य नहीं सूँघ सकता, लेकिन सम्बद्ध जाति के कीड़े-मकोड़ों में उसकी सम्वेदनात्मक प्रतिक्रिया होती है।

उदाहरणार्थ- प्रत्येक वर्ग की चींटियों के नवजात शिशु (जो अण्डे से शिशु रूप ग्रहण करता है) में एक विशेष गन्ध होती है, जो सिर्फ उसी कुनबे की चींटियों में वात्सल्य भाव तथा मातृत्व की भावना जगाती है।

खोजों से ही पता चला है कि चींटियों समेत अनेक कीड़ों में कई-कई तरह के गन्ध-प्रसारण या गन्ध-रसायन अलग-अलग प्रभाग पैदा करते हैं। एक गन्ध ऐसी होती है, जिसके सहारे कीड़ों का दल अपने मुखिया का सही-सही अनुगमन करता है-रास्ते में भूलता-भटकता नहीं एक गंध ऐसी होती है, जिसे सूँघकर नर, मादा की गर्भ धारणा की सम्भावना को समझकर, उससे सहवास करता है। ये सभी गन्ध रसायन ‘फेरोमोन’ कहे जाते हैं।

एक ‘फेरोमोन’ ऐसा होता है, जिसके द्वारा मादा नर को आकर्षित करती है। एक अन्य फेरोमोन के द्वारा वह अपने वाँछित नर का दूसरी सभी मादाओं के प्रति आकर्षण कम करती है।

एक ‘फेरोमोन’ ऐसा होता है, जिसके द्वारा नर , अपनी प्रिय मादा से, दूसरे सभी नरों को दूर रखता है।

अमेरिका में कपास के ढोढे को कीड़े से बचाने के लिए फेरोमोन का उपयोग होता है। फसलों की कीड़ों से रक्षा के लिए भी इनके उपयोग की दिशा में काम चल रहा है। जिस वर्ग के कीड़ों को मारना हो, उनके लिए आकर्षित करने वाला फेरोमोन तैयार कर खेत से दूर तक पिंजड़े में उसे रख दिया जाय, तो उस वर्ग के समस्त कीड़े उस पिंजरे में खिंचे चले आयेंगे। फिर उनको मारा जा सकता है।

इससे कीटाणुनाशक दवाओं से होने वाली हानि नहीं हो पाएगी। क्योंकि कीटनाशक दवाएँ सिर्फ फसल को नुकसान करने वाले कीड़े ही नहीं मारती, अक्सर उपयोगी कीड़े भी मार डालती है। साथ ही ये कीटनाशक पानी के साथ बहकर नदी-नाले में पहुँचकर वहाँ जल जीवों को भी क्षति पहुँचाते हैं। फेरोमोन से ये सब नुकसान नहीं होते, बस मनचाहे कीड़ों को आकर्षित कर उनका काम तमाम किया जा सकता है।

यद्यपि कृत्रिम फेरोमोन का निर्माण है कठिन, पर उस दिशा में तेजी से कार्य जारी है।

ऋतु परिवर्तन की पूर्व सूचना देने वाले पक्षियों तथा कीड़ों से किसान लोग सहज ही यह जान लेते हैं कि निकट भविष्य में ऋतुओं सम्बन्धी क्या हेर-फेर होने जा रहा है। किसी मकान के गिरने की सम्भावना हो तो बिल्ली अपने बच्चों को वहाँ से पहले की उठा ले जाती है। भूकम्प आदि प्राकृतिक दुर्घटनाओं की पूर्व सूचना भी कई पशुओं की विचित्र हलचलें देखकर प्राप्त की जा सकती हैं। रात को कुत्ते अधिक रोते हों तो समझा जाता कि यहीं कही मरण का कुचक्र घूम रहा है। कुत्तों की घ्राण शक्ति इतनी सधी हुई होती है कि वे जिस मार्ग से बहुत दूर तक ले जाये गये थे उसी में उलटे पाँवों लौट आते हैं। यह कार्य वे उस रास्ते में पिछली बार छूटी हुई अपने ही पैरों की गन्ध सूँघकर सम्पन्न करते हैं कुत्तों द्वारा चोरी का पता लगाने की पुलिस व्यवस्था में उनकी घ्राण शक्ति का ही प्रयोग होता है।

तैरने वाले, घूमने वाले, उड़ने वाले प्राणियों की सामान्य हलचलें ऐसे ही बेसिलसिले की तथा अटपटी दिखाई पड़ती हैं, पर ध्यानपूर्वक देखा जाय तो मकड़ी, मधु-मक्खी, चींटी, दीमक जैसे तुच्छ प्राणियों की विलक्षण बुद्धि को देखकर चकित रह जाना पड़ता है, वे अपने साधन हीन और पिछड़े समझे जाने वाले जीवन-क्रम को सरल एवं आनन्दित बनाये रहते हैं। इससे स्पष्ट है कि भगवान ने हर प्राणी को उसकी स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप ऐसे साधन दिये हैं जिसमें किसी के साथ पक्षपात या अन्याय हुआ न कहा जा सके।


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