सोऽहम् साधना द्वारा प्राणतत्व का परिपोषण

November 1976

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सोऽहम्-साधना भावोत्कर्ष एवं शक्ति-अवतरण की प्रक्रिया है। इसे अजपा गायत्री जाप भी कहते हैं। प्राण निरन्तर उसका बीज रूप में जप करता रहता है। श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि का और छोड़ते समय ‘हम’ ध्वनि का अन्तःभूमिका में अनुभव करना होता है।

वायु जब छोटे छिद्र से होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। बाँसुरी से स्वर लहरियाँ इसी तरह निकलती हैं। जंगलों में घने बाँसों के बीच से अक्सर बाँसुरी जैसी ध्वनियाँ निकलती सुनाई देती हैं। इसका कारण बाँसों में कीड़ों द्वारा किए गये छेदों में वायु की वेगपूर्वक टकराहट से उत्पन्न स्वर प्रवाह ही है। वृक्षों को झकझोर कर बहने वाली हवा से भी इसीलिए कभी-कभी सनसनाहट सुनाई पड़ती है। नासिका छिद्र भी बाँसुरी के छेदों जैसे ही है। साधारण श्वास-प्रश्वास के समय भी इनमें वायु गुजरते समय ध्वनि उत्पन्न होती है, पर वह धीमी बहुत होती है। प्राणयोग की साधना में गहरे श्वास-प्रश्वास के कारण यह ध्वनि प्रवाह तीव्रतर हो जाता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि खुले कानों से भी ये ध्वनि-प्रवाह सुने जा सकते हैं। उन्हें तो कर्णेन्द्रियों की सूक्ष्म चेतना में ही अनुभव किया जाता है।

श्वास क्रिया पर चित्त को एकाग्र कर ‘सो’ के साथ परमात्म चेतना के अन्तःप्रवेश की अनुभूति तथा ‘हम’ के साथ जीव-भाव की काय-कलेश्वर से विसर्जन की अनुभूति करनी चाहिए। इसमें प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में परमात्मा सत्ता का अपने शरीर और मन पर अधिकाधिक आधिपत्य होते चलने की धारणा बलवती होती जाती है। यह भाव-चेतना जागृत होने पर शरीर और मन से लोभ-मोह, वासना-तृष्णा के आधिपत्य की समाप्ति तथा उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व की, ब्रह्म-सत्ता की प्रतिष्ठापना की अनुभूति गहरी होती जाती है। अनुभूति की गहनता ही परिणामकारी होगी। अन्यथा यह सब उथली कल्पनाओं की मनोरंजक क्रीड़ा ही सिद्ध होगी। सार्थकता उन्हीं विचारों-संकल्पों की है, जो क्रिया रूप में परिणत हैं। अन्यथा सब मनमोदक मात्र है। शेखचिल्लीपन से कोई उपलब्धि सम्भव नहीं है।

शरीर-मन से अवाँछनीय इन्द्रिय लिप्साओं का निष्कासन और दिव्य चेतना के शासन की प्रक्रिया ही सोऽहम् साधना को सार्थक बनाती है। चिन्तन जीवन-प्रवाह बन जाए, तभी वह चिन्तन है। अन्यथा मानसिक रति-विनोद ही कहा जाएगा।

यों सोऽहम् साधना का चमत्कारी परिणाम भी अतुल है। यह प्राणयोग की विशिष्ट साधना है। दस प्रधान और चौवन गौण, कुल चौंसठ प्राणायामों का विधि-विधान साधना विज्ञान के अन्तर्गत है। इनके विविध लाभ हैं। इन सभी प्राणायामों में सोऽहम् साधना रूपी प्राणयोग सर्वोपरि है। यह अजपा गायत्री जप प्राणयोग के अनेक साधना-विधानों में सर्वोच्च है। इस एक के ही द्वारा सभी प्राणायामों का लाभ प्राप्त हो सकता है।

षट्चक्र वेधन में प्राणतत्व का ही उपयोग होता है। नासिका द्वारा प्राण-तत्व खींचे जाने पर आज्ञाचक्र तक तो एक ही ढंग से कार्य चलता है, पर पीछे उसके भावपरक तथा शक्तिपरक ये दो भाग हो जाते हैं। भावपरक हिस्से में फेफड़े में पहुँचा हुआ प्राण शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंगों में समाविष्ट होकर सत् का संस्थापन और असत का विस्थापन करता है। शक्तिपरक प्राणधारा आज्ञाचक्र से पिछले मस्तिष्क को स्पर्श करती है। मेरुदण्ड से निकल जाती है, जहाँ ब्रह्मनाड़ी का महानद है। इसी ब्रह्म-नद में इड़ा-पिंगला दो विद्युतधाराएँ प्रवाहित हैं, जो मूलाधार चक्र तक जाकर सुषुम्ना-सम्मिलन के बाद लौट आती हैं। मेरुदण्ड स्थित ब्रह्मनाड़ी के इस महानद में ही षट्चक्र भँवर की तरह स्थित है। इन्हीं षटचक्रों में लोक-लोकान्तरों से सम्बन्ध जोड़ने वाली रहस्यमय कुंजियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। जो जितने रत्न-भण्डारों से सम्बन्ध स्थापित कर ले, वह उतना ही महान।

कुण्डलिनी शक्ति भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों की आधारपीठ है। उसका जागरण षट्चक्र बेधन द्वारा ही सम्भव है। चक्रवेधन प्राणतत्व पर आधिपत्य के बिना सम्भव नहीं। प्राणतत्व के नियन्त्रण में सहायक प्राणायामों में सोऽहम् का प्राण योग सर्वश्रेष्ठ व सहज है।

सोऽहम् साधना द्वारा एक अन्य लाभ है। दिव्य गन्धों की अनुभूति । गन्ध वायु तत्व की तन्मात्रा है। इन तन्मात्रा द्वारा देवतत्वों की अनुभूति का माध्यम है। नासिका सोऽहम् साधना, गन्ध तन्मात्रा को विकसित करती है, परिणामस्वरूप दिकगन्धों की अनायास अनुभूति समय-समय पर होती रहती है। इन गन्धों को कुतूहल या मनोविनोद की दृष्टि से नहीं लेना चाहिए। अपितु इनमें सन्निहित विभूतियों का उपयोग कर दिव्य शक्तियों की प्राप्ति का प्रयास किया जाना चाहिए। उपासना स्थल में धूपबत्ती जलाकर, गुलदस्ता सजाकर, चन्दन, कपूर आदि के लेपन या इत्र -गुलाबजल के छिड़काव द्वारा सुगन्ध पैदा की जाती है और उपासना अवधि में उसी की अनुभूति को सहज बनाया जाता है। यह अनुभूति गहरी होती चले, तो साधना स्थल से बाहर निकलने पर, बिना किसी गन्ध-उपकरण के भी दिकगन्ध आती रहेगी। ऐसी दिकगन्ध, एकाग्रता की अभिरुचि का चिन्ह है। विभिन्न पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों में घ्राण-शक्ति का महत्व सर्वविदित है। उसी के सहारे वे रास्ता ढूँढ़ते शत्रु को भाँपते और सुरक्षा का प्रबन्ध करते, प्रणय-सहचर को आमंत्रित करते, भोजन की खोज करते तथा मौसम की जानकारी प्राप्त करते हैं। इसी घ्राण-शक्ति के आधार पर प्रशिक्षित कुत्ते अपराधियों को ढूँढ़ निकालते हैं। मनुष्य अपनी घ्राण-शक्ति को विकसित कर अतीन्द्रिय संकेतों तथा अविज्ञात गतिविधियों को समझ सकते हैं। दिव्य-शक्तियों से सम्बन्ध का भी गन्धानुभूति एक महत्वपूर्ण माध्यम है। सोऽहम् साधना इसी शक्ति को विकसित करती है।

सोऽहम् साधना का एक अन्य विशिष्ट पक्ष स्वर साधना का है। शरीर और मन की स्थिति में ऋण एवं धन विद्युत आवेशों की घट-बढ़, इड़ा तथा पिंगला, नाड़ी के माध्यम से चलने वाले चन्द्र-सूर्य स्वर के प्रभाव अनुसार होती रहती है। स्वर स्थिति का सही ज्ञान अपनी अन्तः-क्षमता की दशा को जानने में सहायक होता है और तब किस समय कौन सा काम हाथ में लेना अधिक उचित होगा, यह निर्णय लेना भी सरल हो जाता है। सामान्यतः अविज्ञात जानकारियाँ भी स्वरयोग के द्वारा अधिक अच्छी तरह समझी जा सकती हैं।

स्वरयोग अपने आप में एक स्वतन्त्र शास्त्र है। उसकी साधना के अनेक अभ्यास हैं, पर सोऽहम् साधना उनमें सर्वाधिक सरल व सफल है। इस प्राणयोग द्वारा षट्चक्र वेधन सरल होता है। पंचकोशों के अनावरण हेतु अपेक्षित प्रखर प्राण-शक्ति भी इसी प्राणयोग के द्वारा सहज प्राप्त होती है।


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