खेचरी मुद्रा की दार्शनिक पृष्ठभूमि

November 1976

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खेचरी मुद्रा का अभ्यास साधक को अन्तर्मुखी बनाता है। हठयोग-ग्रन्थों में तो इसके द्वारा प्राप्य अलौकिक अतीन्द्रिय शक्तियों का विस्तृत वर्णन है ही, इसकी सामान्य दैनिक साधना भी आनन्द और उल्लास की अनवरत अभिवृद्धि करती है।

शिथिल शरीर और रिक्त मन द्वारा ही खेचरी साधना का अधिकाधिक लाभ सम्भव है। शरीर को ढीला और मन को खाली करने के बाद जिह्वा को उलट का तालु से लगाना, धीरे-धीरे उसे सहलाना और उस आधार पर सोमरस पान की दिव्य अनुभूति करना-यही सामान्यतः खेचरी मुद्रा है। स्वर्णजयन्ती साधना वर्ष में दैनिक उपासना क्रम में की जाने वाली खेचरी साधना के लिए शिथिलीकरण और मन को रिक्त करने की अलग से प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं। मन्त्र-जाप की उत्कृष्ट स्थिति में, जब चिन्तन एकाग्र और एकरस हो जाता है, जो शरीर-मन स्वयमेव उसी स्थिति में पहुँच जाते हैं।

खेचरी मुद्रा का दार्शनिक-पक्ष समझना आवश्यक है। परमात्मा का आत्मा के साथ निरन्तर मिलन-सम्पर्क चलता रहता है। इस संस्पर्श से दो अनुभूतियाँ होती हैं (1) अवर्ण्य आनन्द (2) उद्दाम उल्लास। खेचरी मुद्रा इसी संस्पर्श-अनुभूति और उसके परिणामस्वरूप आनन्द और उल्लास की चरम संवेदना की अनुभूति का माध्यम है। सामान्य स्थिति में मनुष्य को इन अनुभूतियों की प्रतीति नहीं हो पाती। यद्यपि भगवान मनुष्य को निरन्तर ही प्रेरणाएँ देते रहते हैं-(1) सहज आनन्द जिसका संसार के सुखद-पक्ष के मूल्याँकन और कर्मफल के वैज्ञानिक नियम की स्पष्ट अनुभूति के इस सन्तोष एवं प्रसन्नता के साथ अनुभव होता है कि हमारे आत्मिक उत्कर्ष का श्रेयस्कर परिणाम सुनिश्चित हैं। अतः हताशा या उदासी का कोई कारण नहीं है -दुनिया के लोग अपनी तीव्र उपेक्षा या प्रचण्ड विरोध कर रहे हों, तो भी। (2) उल्लास की भाव-भरी उमंगे, जो उत्कृष्ट चिन्तन तथा आदर्श कर्तृत्व के साहसिक जीवन के प्रति अदम्य उत्साह के कारण अनवरत उठती हों। इन दो प्रेरणाओं को भगवान पेंडुलम-गति से लगातार देते ही रहते हैं।

आनन्द का अर्थ व्यर्थ की, बहकी-बहकी डींगें मारना या भिन्न चेष्टाओं द्वारा हर्षातिरेक का प्रदर्शन नहीं। अपितु छोटे-मोटे अभावों-आघातों से अविचलित रहते हुए विश्व-ब्रह्माण्ड में ओत-प्रोत दिव्यसत्ता, चतुर्दिक् परिव्याप्त सदाशयता-समुद्र तथा सृष्टि की अनुपम उपलब्धि मानव-जीवन की प्राप्ति की पुलक भरी अनुभूति ही आनन्द है। दृष्टिकोण की यह परिपक्वता तथा रुचियों का परिष्कार मनःस्थिति को सदा उत्फुल्ल और सन्तुलित रखता है, इससे जो घटनाएँ दूसरों की उत्तेजना-उद्विग्नता या कुण्ठा-हताशा का कारण बनती हैं, उन्हें वह विनोद-कौतुक मात्र ही मान पाता है। अधिक कुछ मान पाना उसके लिए सम्भव ही नहीं।

यह जीवन-दृष्टि अनिवार्य है। बिना अन्तःकरण के ऐसे परिष्कार के यदि सन्तोष और प्रसन्नता का अभ्यास सध भी गया तो यह सन्तोष गतिहीनता को जन्म दे देगा। जड़ता की स्थिति तो तामसिक है। बिना इस जीवन दृष्टि के मात्र ईश्वर और उसकी स्वप्निल अनुभूतियों के अभ्यास से पुलकित प्रसन्न अध्यात्मवादी इसीलिए पलायनवादी, भाग्यवादी बन कर समाज में फैली बुराइयों और अपनी बुरी परिस्थितियों दोनों से समझौता कर लेते हैं तथा इस तरह निखट्टू, निकम्मे, आलसी और प्रमादी ही बन बैठते हैं। जिन्होंने अपनी प्रगति का द्वार ही बन्द कर लिया है, उनके आध्यात्मिक होने की सम्भावना भी समाप्त। मानवीय जीवन की गरिमा को न समझ कर वे ईश्वरीय अनुदान की उपेक्षा तथा अपमान ही करते हैं। भले ही इस धृष्टता तथा कर्त्तव्य-हीनता के बदले वे ईश्वरीय वरदान पाने का अनुमान लगाते रहें।

इसके विपरीत, जब मानवीय जीवन की महत्ता का स्मरण कर अपने महान कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों का बोध जागृत होगा, तो उस हेतु प्रचण्ड प्रयत्नों की ही प्रेरणा प्राप्त होगी। यही प्रखर उल्लास है। ईश्वर मात्र सन्तोश या प्रसन्नता नहीं देते, उनके दिये गये आनन्द में उल्लास भी अनिवार्य रूप से शामिल है। यह उल्लास जितना ही प्रखर और प्रौढ़ होगा, प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यक्ति उतना ही प्राणवान और अप्रतिहत रहेगा। बड़े से बड़े अभावों-अवरोधों की भी चिन्ता न करते हुए ईश्वरीय सन्देश और विवेक-निर्देश के अनुरूप अपने कदम निश्चित करेगा और रुकेगा नहीं।

आनन्द और उल्लास की यह अनवरत प्रेरणा ही ईश्वर की वार्त्तालाप-विधि है। ये दो संकेत ही पर्याप्त हैं-जिस तरह कि टेलीग्राम की डैमी ‘गर’ तथा ‘गट्ट’ इन दो ध्वनियों के सहारे ही लम्बे-चौड़े संवादों की शृंखला बनाती रहती है, उसी तरह ये दो प्रेरणाएँ जीवन में अविच्छिन्न और अनवरत प्रवाहित रहें, इतनी ही ईश्वर की रुचि है। इन्हें अपने निजी जीवन में किस प्रकार कार्यान्वित करें यह निर्णय-निर्धारण मनुष्य का काम है और इसके लिए व्यक्तिगत चिन्तन की आवश्यकता पड़ती है। हिमालय पवित्र धाराओं का सृजन कर उन्हें समुद्र-मिलन की प्रेरणा देकर अपने कर्त्तव्य की पूर्ति मान लेता है और आजीवन प्राण-अनुदान ही देता रहता है। कहाँ घाट या पुल बनें, पानी का कहाँ क्या उपयोग हो इसकी हिमालय को चिन्ता नहीं। परमात्मा ने भी अपनी परिस्थितियों और क्षमताओं से तालमेल बिठाने की बुद्धि देकर मनुष्य को जिम्मेदारी दे दी है। इस जिम्मेदारी को निभाना मनुष्य का निजी कर्त्तव्य-कौशल है।

खेचरी मुद्रा का उद्देश्य आनन्द और उल्लास की इन्हीं चरम संवेदनाओं की सघन अनुभूति है। ताकि ब्रह्म और जीव के सम्बन्ध सूत्र सक्रिय व सुसंचालित रहें तथा आदान-प्रदान की इस प्रक्रिया में आये अवरोध दूर हों।

प्रकृति और पुरुष का संयोग-क्रम निरन्तर चलता रहता है। जिस तरह घड़ियाल पर हथोड़े की चोट से झनझनाहट-थरथराहट होती है, वैसी ही थरथराहट इस संयोग-सम्भोग क्रम से भी होती है। यह थरथराहट-झनझनाहट ॐकार ध्वनि की है। परा प्रकृति के अंतराल में यही ॐकार रूपी घात-प्रतिघात अविराम क्रियाशील हैं। इन्हीं से शक्ति उत्पन्न होती है और सृष्टि में विविध-विधि हलचलें जन्म लेती हैं।

खेचरी मुद्रा द्वारा जीव और ब्रह्म का संयोग क्रम भी झनझनाहट को जन्म देता है। इसके द्वारा व्यक्ति शक्ति के उत्स से जुड़ता है और बहुविध सक्रियता की शक्ति अर्जित करता है।

जिह्वा को तालु से लगाने तथा मन्दगति से लगातार सहलाने पर मधु मिठास की सी अनुभूति होती है। इसी मधु-मिठास को मादक सोमरस कहा गया है। यह मादकता आन्तरिक मस्ती की है । इसमें आनन्द और उल्लास-उत्साह दोनों की समाविष्ट हैं। स्वाद-अनुभूति को आध्यात्मिक दृष्टि से जोड़ा जाएगा, तभी खेचरी-साधना सार्थक होगी।


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