प्रगति पथ पर बढ़ चलने की सुविधा सभी को उपलब्ध है।

November 1976

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भगवान ने मनुष्य को अज्ञ या अशक्त बनाकर नहीं भेजा है, उसे महान और सशक्त बना सकने वाली समस्त सम्भावनाओं के साथ सँजोया गया है। उसे अपने सभी पुत्र समान रूप से प्रिय हैं, इसलिए न किसी की उपेक्षा की है और न किसी के साथ पक्षपात बरता है। हर किसी को अवसर दिया है कि वह चाहे तो प्रगति के पथ पर निर्बाध गति से आगे बढ़ सकता है।

हमने अपनी गरिमा कितनी बढ़ाई यह प्रश्न दूसरा है और इस अनुपात से अग्रगामी बनने में देर भी लग सकती है, पर भगवान ने किसी भी स्थिति में बढ़ने के लिए आन्तरिक क्षमता में कोई कमी नहीं रखी है। उसने यह आरोप अपने ऊपर नहीं ओढ़ा है कि किसी को कम दिया किसी को अधिक। मूलतः हर व्यक्ति में लगभग एक जैसी ही क्षमता विद्यमान है। कौन उसका कितना और कैसा उपयोग करता है? यह दूसरी बात है।

भौतिक जगत में यह नियम काम करता है कि हर वस्तु को पृथ्वी की आकर्षण शक्ति अपनी ओर खींचती है। फलस्वरूप वह ऊपर से नीचे की ओर गिरता है। आत्मिक जगत में यह नियम है कि परमेश्वर हर आत्मा को ऊपर की ओर खींचता है। ऊपर उठने और आगे बढ़ने की प्रेरणा और सहायता हर किसी को निरंतर प्रदान की जाती है। कोई उसे अस्वीकार कर दे यह बात दूसरी है।

भौतिक और आत्मिक जगत के नीचे खींचने और ऊपर उठाने वाले नियम विपरीत तो हैं, पर उनमें यह क्षमता एक रूप से है कि वे हल्के-भारी का, वस्तु विशेष का, व्यक्ति विशेष का अन्तर किये बिना अवसर सभी को समान रूप से देते हैं। विलम्ब या असफलता के लिए प्रकृतिगत या ईश्वरगत सुविधाओं में न्यूनाधिकता इसका कारण नहीं है।

स्पष्ट है कि छोटे से छोटा तिनके से लेकर वृहदाकार पिण्ड ब्रह्माण्ड तक के प्रत्येक घटक को गुरुत्वाकर्षण की सुविधा समान रूप से प्राप्त है।

फिर प्रगति पथ पर अग्रसर होने में विलम्ब क्यों हो जाता है ? अवरोध क्या खड़ा हो जाता है? इसका उत्तर यह है कि अवरोध दूर करने के लिए आवश्यक क्षमता का विकास नहीं किया गया। सहयोग की तरह प्रकृति का एक नियम अवरोध भी है। वह हर किसी जड़-चेतन को टकराने की चुनौती देता है और क्षमता विस्तार की प्रेरणा। इन कसौटियों पर जो जितना खरा उतरता है उसे अपने लिए अग्रगमन का पथ उसी मात्रा में प्रशस्त हुआ मिलता है। भौतिक जगत में वायु का दबाव गति का अवरोध करता है और आत्मिक जगत में आन्तरिक दुर्बलता का। इन अवरोधों को हटा सकने वाली क्षमता विकसित करना ही तो जड़-चेतन का हर इकाई का कर्त्तव्य धर्म ठहराया गया है।

पदार्थ में अपनी मौलिक गतिशीलता है, पर उसे अवरोध रोकते और कुण्ठित करते हैं। चाबी की मोटर यदि एकबार चलाकर छोड़ दी जाय तो वह अपने मूलभूत नियम के अनुसार निरंतर चलती रहेगी, जैसे कि अन्तरिक्ष में ग्रह-उपग्रह अपनी कक्षा पर अनवरत रूप से घूमते रहते हैं। धरती पर वायु का घर्षण और जमीन का खुरदरापन उस स्वाभाविक चाल में बाधक बनता है। चाबी की खिलौना मोटर एकबार चला देने पर कुछ दूर चलकर रुक जाती है, इसका कारण हवा का घर्षण और जमीन का खुरदरापन है। चाबी की शक्ति ढीली पड़ती है यह अवरोध उस स्वाभाविक चाल को दबोच देता है और मोटर रुक जाती है। यदि इस खिलौना मोटर को किसी चिकनी सतह के और वायु रहित बक्से में एक बार चला दे तो वह बिना रुके चलती ही रहेगी।

व्यक्तियों अथवा वस्तुओं को हलचल अथवा प्रगति की ओर अग्रसर होते देखा जाता है , उससे यह प्रतीत होता है कि यह सब किसी बाहरी शक्ति से बलपूर्वक किया जा रहा है, पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। हर वस्तु के अन्दर अपना केन्द्रीय बल है-गति उसी से उत्पन्न होती है। परमाणु में न्यूक्लियस-नाभिक-शक्ति का पुंज है और उसी के दबाव से उसके घटक काम करते हैं। सौर-मंडल में प्रेरणा का स्रोत सूर्य है। मनुष्य में उसका आत्मबल, मनोबल अथवा संकल्पबल ही प्रगति के समस्त साधन संजोता है।

वस्तुओं में प्रमुख बल-विकेन्द्रित बल और संकेन्द्रित बल भी काम करते हैं। एक रस्सी में पत्थर का टुकड़ा बाँधकर एक ही वृत पर घुमाया जाय तो वह घूमने की गति पकड़ लेगा। इस भ्रमण में दो बल काम करते हैं-एक तो वह जो रस्सी के माध्यम से केन्द्र से सम्बन्धित है। इसके अनुसार पत्थर अपने केन्द्र के साथ सम्बन्ध बनाये रहेगा। दूसरा बल वह है जो पत्थर को केन्द्र से दूर ले जाता है। केन्द्रीय बल त्वरणजनित है और विकेन्द्रित बल वस्तु को उसी अवस्था में घूमती रखने के लिए है।

प्रगति के पथ पर अवरोध उत्पन्न करने वाले तत्व अधिकतर तो स्वयं ही पैदा किये जाते हैं। गुरुत्वाकर्षण जहाँ बल देता है, वहाँ वायु घर्षण उसे अवरुद्ध करता है। इस प्रकार प्रकृति के अनुदान के सम्बन्ध में अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि वह अपना जमा खर्च बराबर कर लेती है। यद्यपि यह बात भी आँशिक रूप से ही सत्य है। प्रेरक गुरुत्वाकर्षण की क्षमता अधिक है, वायु संघर्षण की कम।

बड़े अवरोधों में मनुष्य के दोष, दुर्गुण ही प्रधान कारण होते हैं। उन्हें भी मनुष्य बहुत श्रम, समय और मनोयोग लगाकर ही एकत्रित करता है। इस अवरोधी बल को यदि बड़ी मात्रा में एकत्रित एवं प्रयुक्त न किया जाय तो प्रगति के पथ पर अग्रसर होने का चक्र सहज गति से नहीं रुकता। एकबार अपनी धुरी और कक्षा पर घूम जाने के बाद ग्रह-नक्षत्र उस गति को अनन्त काल तक जारी रखे रहते हैं। लट्टू को घुमाकर देर तक उसे घूमता हुआ देखा जा सकता है। पर अग्रगमन में भारी व्यवधान उत्पन्न होता है वह विघातक-आसुरी क्षमता के रूप में क्रमशः उपार्जित ही किया गया होता है। पतनोन्मुख निम्नगामी प्रवृत्तियों से यदि उदासीन रहा जा सके तो भी सहज प्रगति क्रम का लाभ उठाया जा सकता है। पर दुर्भाग्य तो यह है कि उपार्जन विधायक गुणों का नहीं विनाशक तत्वों का किया जाता है। वे ही हमारी जीवन प्रगति में ब्रेक का काम करते हैं और कई बार तो उसे उलट भी देते हैं।

वस्तुओं की स्वाभाविक गति अपने आप नहीं रुकती उसे किसी बल द्वारा ही रोका जा सकता है। चलती हुई मोटर को रोकने के लिए उसी गति के समकक्ष ब्रेक का बल प्रयुक्त करना पड़ेगा तभी दोनों में मल्ल-युद्ध से गति को शून्य बनाया जा सकेगा।

बल प्रयोग में प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। गेंद को दीवार पर फेंक कर मारा जाय तो वह लौटकर उसी स्थान पर आने का प्रयत्न करेगी जहाँ से की फेंकी गई थी। चलती मोटर का ब्रेक यदि दौड़ती हुई चाल से अधिक बल का लगा दिया जाय तो मोटर उलट जायेगी। दीवार पर कसकर मुक्का मारें तो मात्र दीवार को ही चोट नहीं लगेगी, उसकी प्रतिक्रिया मुट्ठी पर भी होगी और वह भी अपने को आहत अनुभव करेगी। यह दुर्भाग्य हम आये दिन अपनी जीवन प्रगति में दुर्घटना के रूप में देखते और अनुभव करते रहते हैं।

न्यूटन ने प्रत्येक वस्तु को गतिशील सिद्ध किया है और कहा है –‘‘चाल कितनी ही मन्द क्यों न हो-पर वह होती अवश्य है। पूर्णतया अचल कोई पदार्थ नहीं है।” प्रकृति के गतिक्रम को न्यूटन ने (1) गति का मूलभूत नियम (2) बल तथा त्वरण के बीच का सम्बन्ध (3) क्रिया तथा प्रतिक्रिया की बराबरी के रूप में व्याख्या की है।

चेतन जगत में गतिशीलता की इतनी अधिक दिशाएँ हैं कि उन्हें अपनाकर मनुष्य दुर्गति से उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचने के लिए अग्रसर हो सकता है। अवरोध केवल आन्तरिक दुर्बलता का है यदि उसे हटाया या घटाया जा सके तो अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ने का लक्ष्य सहज और सरल ही प्रतीत होगा, उसे बिना विशेष कठिनाई के प्राप्त किया जा सकेगा।

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