मंत्र शक्ति से आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण

November 1976

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यह ब्रह्माण्ड गोल है। सूर्य, पृथ्वी, चन्द्रमा आदि सभी ग्रहों-उपग्रहों की बनावट गोल है। घूमते अथवा लुढ़कते रहने वाली हर वस्तु गोल बन जाती है। पहिये गोल ही बन सकते हैं चौकोर नहीं। पहाड़ों से पत्थर के टुकड़े टूट कर नहीं प्रवाह से गिरते और धारा के दबाव से आगे-आगे लुढ़कते हैं फलतः वे गोल बन जाते हैं। अधिक छोटे टुकड़े बालू के कणों के रूप में दिखाई पड़ते हैं, होते वे भी गोल ही हैं। घूमने की प्रक्रिया गोलाई ही हो सकती है।

गोलाई और गति का सम्मिश्रण कर देने पर एक चक्र बन जाता है। पहिया घूमता है-आगे बढ़ता है और बढ़ता-बढ़ता अन्ततः अपने पुराने स्थान पर ही लौट आता है। यदि गति को अनवरत क्रम से जारी रखा जाय तो पदार्थ अपनी जगह पर वापिस लौट आता है और फिर वही आगे बढ़ने और पुराने स्थान पर लौटने का क्रम जारी रहता है। ग्रह-नक्षत्र इसी आधार पर अपनी कक्षाएँ बनाते और उनमें परिभ्रमण करते रहते हैं। परमाणु के अन्तर में काम करने वाले इलेक्ट्रोन आदि घटक अपनी धुरी पर कक्षा में ग्रह-नक्षत्रों की भाँति ही घूमते हैं।

यही बात शब्द कम्पनों के सम्बन्ध में भी है वे जिस उद्गम स्रोत से निस्तृत होते हैं वहाँ से निकल कर द्रुतगति से आगे-आगे भागते हैं, पर यह भागना अन्ततः गोलाई के चक्र की पकड़ में आ जाता है और फिर सुदूर अन्तरिक्ष की लम्बी यात्रा करते हुए अपने मूल स्थान पर लौट आता है। वहाँ से फिर आगे बढ़ता और फिर वापिस लौटता है। यदि हम नाक की सीध आगे ही बढ़ते चले जायं तो अन्त में उसी स्थान पर वापिस आ जायेंगे जहाँ से यात्रा आरम्भ की थी। शब्दों की यात्रा इसी चक्र गति से होती है। वे दूसरों को भी प्रभावित करते हैं, पर सबसे अधिक प्रभाव अपने ही ऊपर होता है क्योंकि उनका प्रत्येक यात्रा चक्र अपने मूल उद्गम को चिरकाल तक प्रभावित करता रहता है जबकि बाहरी व्यक्तियों एवं वस्तुओं को प्रभावित तो वह मुख्यतः एक बार ही करता है।

प्राचीन काल में शब्दबेधी बाण चलते थे, वे लक्ष्य से टकराते थे- लक्ष्यवेध करते थे और फिर लौटकर प्रयोक्ता के तरकस में ही आ घुसते थे। ऐसे अस्त्रों को किम्वदन्ती मानने की आवश्यकता नहीं है। उनका एक भोंड़ा रूप अभी भी अपने जमाने में मौजूद है और उसे आस्ट्रेलियाई आदिवासी प्रयोग करते हैं। उस अस्त्र का नाम है-‘बूमरेंग’। मन्त्राराधन में विशेष शब्द संरचना के आधार पर बने और विशेष मनःस्थिति में-विशेष विधि-विधान के साथ जिस शब्दावली को अनवरत रूप से दुहराया जाता है वह निखिल ब्रह्माण्ड में भ्रमण करते हुए मूल प्रयोक्ता के पास वापिस लौट आती है और उसके लिए अति महत्वपूर्ण सत्परिणाम उत्पन्न करती है।

मन्त्र विज्ञान के दो आधार हैं। एक आत्मिक दूसरा मौलिक इन दोनों के समन्वय से मन्त्र प्रक्रिया का आधार बनता है।

आत्मिक पक्ष वह है जिसमें साधक का चारित्रिक एवं भावनात्मक परिष्कार काम करता है उससे व्यक्तित्व की उत्कृष्टता निखरती है और शक्ति का ऐसा प्रचण्ड स्रोत अन्तः चेतना में प्रादुर्भूत होता है, जिसे किसी भी दिशा में किसी भी प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किया जा सके। परिष्कृत व्यक्तित्व की पूँजी से ही आत्मिक क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की विभूतियाँ उपलब्ध होती हैं और उन्हीं को भौतिक कार्यों में लगा देने पर साँसारिक सफलताएं हाथ बाँध कर आगे आ खड़ी होती हैं। ओछे व्यक्तित्व पग-पग पर ठोकरें खाते और दीन-दरिद्रों की तरह निरन्तर असफलताओं का मुँह जोहते हैं। उन्हें न भौतिक उन्नति का अवसर मिलता है और न आत्मिक प्रगति की दिशा में आगे बढ़ सकना सम्भव होता है। नैपोलियन, सिकन्दर जैसे साँसारिक सफलताएँ पाने वाले मनस्वी लोगों के पास उनके व्यक्तित्व की प्रखरता ही होती है।

साधन क्षेत्र में अग्रसर होने वाले के लिए यह आवश्यक होता है कि वह अपने शारीरिक और मानसिक क्षेत्र में आवश्यक संयम बरत कर बिखराव में नष्ट होने वाली शक्तियों का संचय करते हुए सामर्थ्यवान बनें। दूसरा पक्ष व्यक्तित्व के विकास का यह है कि गुण, कर्म, स्वभाव को अधिकाधिक उच्चस्तरीय बनाते हुए स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर में अवस्थित विभिन्न दिव्य शक्तियों को सुविकसित एवं परिपुष्ट होने का अवसर प्रदान करें। संचय और संग्रह के उभय-पक्षीय कदम बढ़ाते हुए आत्मिक प्रगति के पथ पर चलने वाला पथिक क्रमशः समुन्नत व्यक्तित्व प्राप्त करता है और उस आधार पर ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग किसी भी दिशा में आशाजनक सफलता प्राप्त कर सकना सम्भव हो जाता है। मन्त्राराधन की सफलता का आत्मिक स्रोत एवं पक्ष भी यही है।

मन्त्र साधना का भौतिक पक्ष शब्द संरचना-स्वर विनियोग-उपचार विधान एवं उपकरणों का स्तर जैसी व्यवस्थाओं से सम्बन्धित है। इन सब का सही आधार बन जाने से आत्मिक प्रगति के उत्तरार्ध की पूर्ति होती है। उभय-पक्षीय समन्वय से आत्मिक प्रगति का वह आधार खड़ा होता है जो अन्तःचेतना का स्तर ऊँचा उठाकर भौतिक क्षेत्र में बहुमुखी सुलताएँडडडडड प्रस्तुत कर सके।

मात्र आत्मिक सन्तोष के लिए ज्ञान और भक्तियोग की साधनाओं से भी काम चल सकता है। ब्रह्म-विद्या के मान्य तत्वदर्शन को स्वाध्याय, सत्संग एवं मनः चिन्तन के आधार पर हृदयंगम किया जाता रहे तो आत्मबोध की स्थिति उत्पन्न हो सकती है और ज्ञान वैराग्य का प्रकाश अन्तरात्मा में परिलक्षित हो सकता है। वेदान्त साधनाओं की अहं-ब्रह्मादिकपरक-सोऽहम् शिवोऽहम् की उद्बोधक वृत्ति ज्ञानयोग का प्रयोजन पूरा कर सकती है। उसे आत्मबोध की स्थिति जागृत करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

भक्तियोग में प्रेम तत्व को विकसित करके आनन्द की अनुभूति का रसास्वादन है। अपने को जिसमें समर्पित किया जाता है या जिसको अपना बनाया जाता है उसमें सहज ही आकर्षण उत्पन्न हो जाता है और उस आकर्षण को आत्मसात् करते हुए आनन्द की अनुभूति होती है। दैनिक जीवन में यही चलता है। अपनी सम्पत्ति प्राण प्रिय लगती है। अपना शरीर, परिवार, यश, वैभव, वर्चस्व यह सब कुछ इसलिए प्यारा लगता है कि उसके साथ अपनेपन की भावना जुड़ जाती है। स्त्री, पुत्रों में यह भावना अधिक घनिष्ठ होती है तो वे प्यारे भी अधिक लगते हैं जिस वस्तु या व्यक्ति पर से यह आत्मभाव समेट लिया जाय वह उतना ही अरुचिकर, उपेक्षित बन जायगा। भले ही वह स्तर की दृष्टि से उत्तम ही क्यों न हो। इसके विपरीत जो वस्तु या व्यक्ति जितना अधिक अपनेपन की पकड़ में कसा जायेगा वह गुणहीन होने पर भी परमप्रिय लगता चला जायेगा। प्रिय में आनन्द होता है यह सभी जानते हैं। प्रिय क्या है उसका विश्लेषण करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि प्रिय-अप्रिय नाम के कोई तत्व इस संसार में नहीं मात्र अपनेपन और विरानेपन की ही वे दोनों प्रतिक्रियाएँ भर हैं।

ईश्वर महान् है-सद्गुण सम्पन्न-शक्ति का स्रोत और आत्मा का उद्गम केन्द्र है। उससे प्रेम करने लगे तो ईश्वर को इससे कोई लाभ हो या न हो अपने अन्तःकरण में प्रेम तत्व की अभिवृद्धि होती है। आग जहाँ रहती है उस स्थान की जगह गरम रहती है। प्रेम तत्व जहाँ रहेगा वहाँ अनायास ही आनन्द का निर्झर झरता रहेगा। ईश्वर के माध्यम से प्रेम तत्व को अन्तरात्मा में उसी प्रकार विकसित किया जाता है जिस प्रकार व्यायामशाला और उसमें उपस्थित विभिन्न उपकरणों की सहायता से शरीर की माँसपेशियां परिपुष्ट की जाती हैं। विकसित प्रेम तत्व अपने शरीर, मन, परिवार और समाज पर जब आलोकित होता है तब वे सभी प्रेम पात्र लगते और आनन्द प्रदान करते हैं। प्रेम में देना ही देना है-अन्तरात्मा जहाँ भी हुलसती है वहीं कुछ देने के लिए मचलती है। प्रेमी व्यक्ति अपने समूचे सम्पर्क क्षेत्र में कुछ अनुदान प्रस्तुत करते रहने की ही बात सोचता है। फलतः वह सदा सर्वदा सेवा सहायता के लिए प्रयत्नशील रहता है। कहना न होगा कि उदारता सदा अनेक गुनी श्रद्धा सद्भावना और सहायता लेकर वापिस लौटती है। ईश्वर के माध्यम से विकसित हुआ भक्तियोग किसी काल्पनिक प्रतिमा के इर्द-गिर्द ही नहीं घूमता रहता, वह वहाँ प्रयोगशाला में विकसित होकर समूचे जीवन क्षेत्र को आच्छादित करता है और हर घड़ी अन्तःकरण को आनन्द विभोर बनाये रहता है।

ज्ञानयोग और भक्तियोग बिना सामान्य क्रियाकाण्ड के सहारे, मात्र भाव संवेदना के सहारे विकसित होते रहते हैं। बाह्य साधनों की उनमें कम सहायता लेनी पड़ती है। यह सरलता रहते हुए भी यह दोनों ही क्षेत्र अपनेपन की छोटी सीमा तक ही सीमित रहते हैं। ज्ञानी और भक्त प्रायः अपने आप में ही खोये रहते हैं अस्तु उनके लाभ भी स्वर्ग मुक्ति, आत्मा-साक्षात्कार-ब्रह्म साक्षात्कार जैसी व्यक्तिगत परिधि में अपना प्रभाव उत्पन्न कर पाते हैं

कर्मयोग की महिमा अत्यधिक बताई गई है और उसे सर्वोपयोगी कहा गया है। कर्म अपने आपके लिए भी होते हैं, पर वे नित्यकर्म कहलाते हैं। दूसरों को साथ लेकर चलने वाले, दूसरों को प्रभावित करने वाले-सत्कर्म कर्मयोग की परिधि में गिने जाते हैं। गीता कर्मयोग का प्रधान ग्रन्थ है। अन्यत्र भी कर्मयोग की महिमा है। ज्ञानी और भक्त भी कर्मयोग के सहारे ही जीवन यात्रा सम्पन्न करते हैं। उसमें व्यक्ति और समान का उभय पक्षीय हित साधन होता है। उसके लिए एकान्त तलाश काने या एकाकी रहने की आवश्यकता नहीं होती। सामूहिकता का निर्वाह कर्मयोग में ही होता है। उससे व्यक्ति और समाज को समान रूप से लाभान्वित होने का अवसर मिलता है।

मन्त्राराधन कर्मयोग की ही प्रक्रिया है। उसकी क्रिया-प्रक्रिया में भौतिक और आत्मिक तत्व समान रूप से मिले हुए हैं। भावात्मक विकास की योगसाधना और चारित्रिक परिष्कार की तपश्चर्या व्यक्तित्व को निखारने के लिए है। यह विशुद्ध अध्यात्म पक्ष हुआ। दूसरा पक्ष भौतिक है, जिस के शब्द और स्वर दोनों ऐसे हैं जिन्हें पंच-तत्वों से बने शरीर अवयवों की प्रतिक्रिया कह सकते हैं। शब्द मूलतः पदार्थ है। उसे रेंगने, धकेलने और प्रभावी बनाने में आत्मशक्ति का उपयोग होता है, पर स्वतः शब्द तो भौतिक हलचलों से उत्पन्न, भौतिक उपकरणों से नापा तोला जा सकने वाला पदार्थ मात्र है। स्वर भी शब्द का ही एक प्रकार है। दोनों की गणना भौतिक विज्ञान की परिधि में ही की जाती है। पूजा उपचार में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ स्पष्टतः भौतिक हैं। देव प्रतिमा-पूजा उपकरण एवं पदार्थ-चन्दन, धूप, अक्षत, जल, हवन सामग्री आदि की गणना इसी क्षेत्र से है। साधन का स्थान, आहार, वस्त्र आदि भी भौतिक पदार्थों से ही विनिर्मित हैं।

मन्त्राराधन में प्रयुक्त होने वाले साधनों में साधक की भावनात्मक स्थिति आध्यात्मिक और शारीरिक एवं उपचारात्मक सामग्री भौतिक है। अस्तु उसे समन्वित प्रक्रिया कह सकते हैं। इसे आधी अध्यात्मिक और आधी भौतिक कहा जाय तो समझने में सुविधा ही रहेगी। परिणाम की दृष्टि से भी वह दोनों ही क्षेत्रों को प्रभावित करती है। उससे साधक का आत्मबल बढ़ना सुनिश्चित है। साथ ही जो प्रखरता, प्रतिभा उत्पन्न होती है उसके लोक व्यवहार के क्षेत्र में बहुमुखी प्रगति की सम्भावनाएँ विकसित होती हैं। इस प्रकार व्यक्तिगत जीवन के अन्तरंग और बहिरंग दोनों क्षेत्रों को मन्त्राराधन की प्रक्रिया प्रभावित करती है।

मन्त्र-विज्ञान की प्रतिक्रिया व्यक्तियों के उलझने-सुलझने और प्रगति की सम्भावनाएँ बढ़ाने में सहायक होती है। उसके सहारे कई कष्ट पीड़ितों को सहारा दिया जा सकता है और लड़खड़ाने वालों को तन कर खड़ा होने योग्य बनाया जा सकता है। इसी प्रकार प्रकृति को, वस्तुओं को, परिस्थितियों को, वातावरण को प्रभावित करने की क्षमता भी इस उपचार में विद्यमान है। मन्त्र से उत्पन्न शक्ति से सूक्ष्म जगत की हलचलों को स्थूल जगत के लिए उपयोगी और अनुकूल बनाया जा सकता है।

इसी महत्ता को ध्यान में रखते हुए भौतिक प्रगति के लिए किये जाने वाले अनेकानेक प्रयत्न पुरुषार्थों की तरह आत्मिक प्रगति के लिए अति महत्वपूर्ण उपाय-उपचार मन्त्राराधन बताया गया है। यदि उसे सही व्यक्तियों द्वारा सही रीति से कार्यान्वित किया जा सके तो परिणाम वैसा हो सकता है, जिसके आधार पर उसे बुद्धिमत्तापूर्ण एवं अतीव श्रेयस्कर प्रक्रिया के रूप में स्वीकार कर सकना किसी के लिए भी कठिन न पड़े।

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