नये विचार उपहासास्पद न समझे जायं।

November 1976

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जिन दिनों नेपोलियन बोनापार्ट इंग्लैण्ड पर आक्रमण की योजनाएँ बना रहा था, एक इंजीनियर राबर्ट फुल्टन ने उसके समीप पहुँचकर वाष्प-चालित जलयानों की अपनी योजना के बारे में बताया और समझाया कि इसके द्वारा शत्रु के जहाजों को किस तरह काबू में किया जा सकता है, पर नेपोलियन इससे झल्ला उठा। भाप के द्वारा हवा का रुख और पानी की धार काटते हुए जहाज चलाने की बात को उसने शुद्ध बकवास साबित किया और कहा-जनाब! ‘ऐसी सनकों को सुनने का समय मेरे पास नहीं।’

इंजीनियर चुपचाप लौट गया। बाद में जलयान बने, चले, पर तब भी कुछ प्रसिद्ध बुद्धिमान लोगों को इसमें अधिक सम्भावनाएँ नहीं दिखती थीं। रायल सोसाइटी, डबलिन में अपने भाषण में प्रो0 लाडेस्कर जैसे व्यक्ति ने कहा था-‘‘ये जलयान निश्चय ही मनोरंजक हैं, पर इनके द्वारा अटलाँटिक सागर को पार करने की आकाँक्षा बचकानी उछल-कूद मात्र है।” सभी जानते हैं कि आज यह आकाँक्षा कितनी सही और सार्थक सिद्ध हुई है। जलयानों का आज परिवहन और शत्रु से समर में भरपूर और महत्वपूर्ण उपयोग सर्वविदित है।

इसी तरह रोम के प्रमुख सैन्य इंजीनियर जूलियस फोन्टिनस ने कहा था- “युद्ध-उपकरणों की आगे खोज जारी रखना अनावश्यक है। क्योंकि इस सम्बन्ध के सभी आविष्कार चरम-सीमा पर पहुँच चुके हैं।” सभी जानते हैं कि आज के अणु-आयुधों की दृष्टि में रोम के उस जमाने के युद्ध-उपकरण बच्चों के खिलौने जैसे रह गये हैं।

सन् 1899 में अमरीकी आविष्कार पेटेंट विभाग के महानिदेशक ने तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति मैकबिल्ले को परामर्श दिया था कि यह विभाग अब तो बन्द कर दिया जाए। क्योंकि आगे कुछ और आविष्कार होने की गुँजाइश ही कहाँ बची है? सारे आविष्कार तो हो चुके। महानिदेशक के इस कथन के बाद 75 वर्षों में हुए असंख्य आविष्कारों ने उनके अनुमान को सर्वथा हास्यास्पद बना दिया।

49 वर्ष बाद नील आर्मस्ट्रांग व उनके साथी कैंप केनेडी अन्तरिक्षयान में सवार हो चन्द्र तल पर पहुँचे। तब न्यूयार्क टाइम्स ने स्वर्गीय यराबर्ट गोगार्ड से अपनी 49 वर्ष पूर्व की टिप्पणी के लिए क्षमा माँगी। क्योंकि गोगार्ड का प्रतिपादन सही था और न्यूयार्क टाइम्स का उक्त टिप्पणीकार गलत सिद्ध हुआ था।

अतः बुद्धिमान से बुद्धिमान माने जाने वाले व्यक्ति भी किन्हीं बातों को असम्भव माने-बताएँ, तो भी यह जरूरी नहीं कि वे बातें असम्भव ही हों। अपनी सम्पूर्ण बुद्धिमत्ता के साथ भी वे एक सर्वथा अभिनव तथ्य को समझ सकने में असमर्थ रह सकते हैं, जबकि उसी समय कोई अंतर्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति उसे सहज ही देख-जान रहा होता है।

मार्कोनी ने जब रेडियो आविष्कार किया, तो उसके द्वारा अटलांटिक पार भी सन्देश भेजने की सम्भावना को अन्य वैज्ञानिकों ने अति दुष्कर बताया और कहा कि यह तभी सम्भव है, जब हम एक ऐसा विशाल रेडियो स्टेशन खड़ा कर सकें, जितना बड़ा अमेरिका द्वीप है।

टैंक बनाने की योजना जब सर्वप्रथम सामने आई तो इंग्लैण्ड के सेनापति ने कहा- “वीर घुड़सवारों का काम लोहे की गाड़ियां अंजाम देंगी। कैसी वाहियात बकवास है! भला यह भी कभी सम्भव है।”

पहला हवाई जहाज जब बना, उड़ा तो अखबारों ने उसकी खबर को ‘गप्प’ माना। फिर जब सबके सामने एकाधिक बार प्रदर्शन किया गया, तो ‘पापुलर साइन्स’ पत्र ने छापा-‘‘यह हवाई जहाज छुट-पुट काम तो कर सकता है, पर किसी बड़े प्रयोजन की पूर्ति इससे होती नहीं दिखती।

वायुयानों का जब प्रयोग और प्रचलन बढ़ा तो उनकी गति के बारे में अनेक सीमाएँ आँकी गईं। वैज्ञानिकों ने भी माना कि शब्द की गति यानी 660 मील प्रति घण्टा से अधिक की रफ्तार हवाई जहाजों की सम्भव नहीं, पर प्रगति रुकी नहीं। 550 मील प्रति घण्टा की चाल वाले बोइंग 707 आये, 600 मील वाला बी0सी0 10 आया, 670 मी. ‘चाल वाला’ ग्लैमरस ग्लेनिस आया। 1500 मील प्रति घण्टे के वेग से उड़ने वाले ‘कन्कर्ड’ बन रहे हैं। 25 हजार मील प्रति घण्टे की चाल से अन्तरिक्षयान उड़ रहे हैं और अब तो 6 लाख मील प्रति घण्टे चलने वाले अन्तरिक्षयानों की बाबत भी तेजी से सोचा और किया जा रहा है।

खगोलविद् मानते थे कि भू-मध्य रेखा को कभी कोई पार न कर सकेगा। क्योंकि सूर्य की सीधी किरणों से वहाँ का समुद्र जल भी धधक रहा होगा। लेकिन पुर्तगाल के हेनरी ने भू-मध्य रेखा को पारकर इस मान्यता को असत्य सिद्ध कर दिया।

रूसो ने जब प्रजातन्त्र के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया तो लोगों ने बुरी तरह उसे बेवकूफ बनाया। शासन राजा करता है प्रजा पर- न कि प्रजा शासन करेगी राजा पर। जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता पर शासन किये जाने का तर्क उन दिनों किसी के गले नहीं उतरा था, पर समय ने बताया कि वह प्रतिपादन कितना सही और कितना उपयोगी था। आज आधी से अधिक दुनिया में प्रजातन्त्र सिद्धान्त अनुरूप शासन चल रहा है। साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स को यह कहकर मूर्ख ठहराया गया था कि प्रकृति ने जब हाथ की पाँचों उँगलियाँ एक जैसी नहीं बनाई तो मनुष्यों की आर्थिक स्थिति एक जैसी कैसे हो सकती है? पर आज तो एक तिहाई दुनिया पर साम्यवादी पद्धति से शासन हो रहा है

चिन्तन और युगीन प्रवृत्तियों-अन्तर्धाराओं के क्षेत्र में भी यही बात है। मर्यादाओं का मर्दन, नीति के आवरण तले नीचता का नर्तन, आत्म-प्रवंचना और पर पीड़न को ही बुद्धि कौशल समझने का प्रचलन, क्रान्ति की अहर्निशि रट लगाने वालों के चित्त में केन्द्रीभूत भ्रान्तियाँ, समाज-सुधार की संकल्प-घोषणाओं के तले अपनी लोलुपता की तुष्टि के लिए कुर्सी का विकल्प ढूँढ़ते हुए थके हारे लोगों की एकत्रित सड़न और इन सबके बीच एक अनन्त सी यातना में पिस रही मानवता का क्रन्दन ऐसे वातावरण में नये युग के अभिनन्दन की बात यदि कौतुक-कल्पना और ढाढ़स बँधाने जैसी चेष्टा मात्र प्रतीत हो, तो अचरज नहीं। लेकिन यह सत्य है कि नया युग बढ़ता हुआ चला आ रहा है। मनुष्य को अस्वाभाविक रूप से अपनाई गई अपनी समस्त दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त होना होगा, भले वह आज उन्हें स्वाभाविक और अनिवार्य मान रहा हो। उसे अपनी चिन्तन की प्रक्रिया बदलनी होगी और क्रिया-पद्धति में आमूल परिवर्तन लाना होगा। आज परिस्थितियाँ ही ऐसी लगती हैं कि वे मानो अनिवार्यतः वर्तमान में चल रही क्रियाओं को जन्म दे रही हैं। मात्र विचार परिवर्तन से ये परिस्थितियाँ क्योंकर बदलेंगी? ऐसा लग सकता है। बिना परिस्थिति की विवशता के कोई व्यक्ति सचाई के कठिन रास्ते पर क्योंकर चलेगा? लेकिन शीघ्र ही वह समय आ रहा है, जब सभी यह मानने को बाध्य होंगे कि मनुष्य जीवन की सर्वश्रेष्ठ शक्ति विचार है और सही विचार व्यक्ति-जीवन एवं समाज-जीवन के सम्पूर्ण ढाँचे को ही नया स्वरूप देने में समर्थ हो सकता है।

अब तक अनेक धर्म -सम्प्रदाय बने, योग और अध्यात्म में गहन साधनाएँ, आविष्कार और अनुभूतियाँ की जा चुकीं। लेकिन ‘इदमित्थं’ नहीं कहा जा सकता है। अभी उस क्षेत्र में प्रगति की प्रचण्ड सम्भावनाएँ शेष हैं।

समस्त विश्व का एक धर्म, एक आचार, एक राष्ट्र, एक भाषा, एक लक्ष्य-ये आज सम्भव लग सकते हैं, पर कल इन्हें सत्य होना ही है। मनुष्य में देवत्व का उदय, धरती पर स्वर्ग का अवतरण और वसुधैव कुटुम्बकम् की धारणा का सर्वत्र सुदृढ़ होना सुनिश्चित है, सन्निकट है।

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