आत्म-निर्माण मानव जीवन की सर्वोपरि सफलता

November 1976

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जड़ें जमीन में भीतर होती हैं वे दीखती नहीं, पर पेड़ दीखता है क्योंकि वह ऊपर है और प्रत्यक्ष भी। जीवन का बहिरंग स्वरूप ही समझ में आता है, उसके साथ जुड़ी हुई स्वास्थ्य, सौन्दर्य, शिक्षा, कला, कुशलता, प्रतिभा आदि का परिचय मिलता है। वैभव एवं पद से भी स्तर का पता चलता है। इतना सब होते हुए भी व्यक्ति की जड़ें उसके अन्तः क्षेत्र में ही रहती हैं। पेड़ कितना विस्तृत, सुदृढ़ एवं दीर्घजीवी होता है यह इस बात पर निर्भर है कि उसकी जड़े कितनी मोटी, मजबूत और गहरी हैं। पोषण तो जड़ों से ही मिलता है। वे पतली और उथली होगी तो पेड़ छोटा ही रहेगा, कम फल-फूल देगा, पल्लवों की हरियाली छितरी और रूखी रहेगी साथ ही उसका जीवन काल भी स्वल्प रहेगा। इसके विपरीत बरगद जैसे पेड़ों की जड़े गहरी होती हैं। जो नई शाखाओं से नई जड़ें निकालते और जमीन में उन्हें प्रवेश करके नई खुराक प्राप्त करते हैं, वे फैलते, बढ़ते चले जाते हैं और दीर्घजीवी रहते हैं।

वृक्षों का बुढ़ापा उनकी जड़ों से आरम्भ होता है। आदमी जराजीर्ण तब होता है जब भीतरी नस-नाड़ियाँ कठोर और कमजोर होती चली जाती हैं। चेहरे की झुर्री, बालों की सफेदी, इन्द्रिय शक्ति में क्षीणता जैसे बाह्य लक्षण तो मीटर को देखकर मशीन की भीतरी स्थिति का पता लगाने की तरह है। वस्तुतः मनुष्य भीतर से खोखला और क्षीण होता चलता है। वृद्धावस्था के बाहरी लक्षण उस खोखलेपन का परिचय मात्र देते हैं। यदि भीतरी अवयव सुदृढ़ हों तो मनुष्य चिरकाल तक अपनी बलिष्ठता, प्रतिभा और सक्रियता अक्षुण्ण बनाये रह सकता है।

चतुर माली देख-भाल तो पत्र-पल्लवों की ओर भी रखता है, पर बगीचे को हरा-भरा और फला-फूलों देखने के लिए उसका अधिक प्रयास जड़ों की स्थिति सुधारने पर ही केन्द्रित रहता है। निराई, गुड़ाई, खाद, पानी आदि की विधि-व्यवस्था बनाने से ही उसकी बुद्धि का अधिकाँश भाग लगा रहता है। इसी प्रयोजन में उसकी शक्ति लगती है। साधनों का उपयोग भी इसी प्रयास में नियोजित रहता है। वह जानता है कि जड़ों की आवश्यकता यदि ठीक पूरी तरह पूरी हो सकी तो उद्यान की हरितमा अपने आप ही बनी रहेगी। फल-फूल यथा-समय और उत्साह-वर्धक मात्रा में उत्पन्न होते रहेंगे। इसके लिए उसे न तो चिन्ता करनी होती है और न चेष्टा। “जो तू सीचें मूल को फूलै फलै अघाय” की उक्ति पर उसका पूर्ण विश्वास होता है। जड़ों को दीमक तथा दूसरे हानिकारक कीड़ों से बचाने की उसकी सुरक्षा दृष्टि भी निरन्तर पैनी रहती है।

जीवन का सफल, समुन्नत एवं परिष्कृत रूप अनायास ही विनिर्मित नहीं होता। बाहरी अनुग्रह से किसी को कुछ मिल भी जाय तो वह विजातीय द्रव्य की तरह न तो रुचता है और न पचता है। पौधे के ऊपर पानी छिड़कते रहा जाय किन्तु जड़ें, सूखने लगें तो फिर उनकी रक्षा नहीं हो सकती। देवता, मन्त्र, सिद्धपुरुष आदि समर्थ सत्ताओं द्वारा जब भी जिसे भी कोई वरदान मिले हैं तब-तब उसके पीछे साधक की व्यक्तिगत उत्कृष्टता ही शक्तिशाली चुम्बक का काम करती रही है। मात्र पूजा प्रार्थना से प्रसन्न होकर कोई देवता किसी पर अनुग्रह बरसा दें ऐसा कभी देखा नहीं गया। वे साधक के व्यक्तित्व को परखते हैं और उसकी पात्रता प्रमाणिकता को परख कर उसी अनुपात से अनुदान प्रदान करते हैं।

देव अनुग्रह की बात जाने दे तो भी प्रगति की किसी भी दिशा में बढ़ने और सफलता पाने की बात मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ ही अविच्छिन्न रूप से जुड़ी होती है। शक्ति का उद्गम स्रोत भीतर है। वही जब सक्षम होती है तो बाह्य जीवन में अनेकानेक विशेषताएँ और विभूतियाँ उत्पन्न करती हैं। गुण, कर्म, स्वभाव का स्तर बढ़ता है। इसी अभिवृद्धि की प्रतिक्रिया अनेकानेक सफलताओं और सम्पदाओं के रूप में दृष्टिगोचर होती है। मनुष्य जो कुछ प्राप्त करता है वह उसके व्यक्तित्व की कीमत अथवा प्रतिक्रिया भर होती है। ओछे व्यक्ति दूसरों की दृष्टि में घृणास्पद एवं उपेक्षणीय रहते हैं, अस्तु उन्हें न तो किसी का सच्चा सहयोग मिल पाता है और न हार्दिक सम्मान। इस अभाव के कारण वे एकाकी असहाय उपेक्षित स्थिति में पड़े रहते हैं और मात्र निजी पुरुषार्थ के बल पर नगण्य जितनी सुख-सामग्री एवं प्रगति उपलब्ध कर पाते हैं। इसके विपरीत सद्गुणों के आधार पर जिनने दूसरों का हृदय जीता है उन्हें यथोचित सहयोग मिलता रहता है। फलतः अपने साथ अनेकों की सामर्थ्य जुड़ जाने से वे पग-पग पर सफलताएँ प्राप्त, करते और प्रगति पथ पर आगे बढ़ते चले जाते हैं।

अन्तरंग जितना ही निर्मल, निष्पाप होगा, अन्तर्द्वन्द्वों के कारण नष्ट होने वाली मेधा उसी परिमाण में बची रह सकेगी और उस निर्द्वन्द्व निश्चिन्त मनः स्थिति में अनेकानेक प्रतिभाएँ उभरती रहेंगी। प्रसुप्त दिव्य क्षमताओं के जागरण का सुयोग बनेगा। यही है वह सार तत्व जिसके आधार पर प्रतिभा दिन-दिन तीक्ष्ण बनती जाती है और उसके फलस्वरूप जो भी लक्ष्य हों उसमें द्रुतगति से सफलता का पथ-प्रशस्त होता जाता है।

साँसारिक सफलताओं का पर्वत और व्यक्तिगत उत्कृष्टता का तिल यदि तराजू पर रखकर तोले जाये तो तो दोनों में से वह तिल ही भारी बैठेगा क्योंकि ज्यों-त्यों करके मिलीं उपलब्धियाँ बचेगी नहीं। छोटा बालक या रोगी पेट की कमजोरी के कारण गरिष्ठ पकवान हजम नहीं कर सकते। फलतः वे उनके लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं। कुपात्रों के हाथ लगी सफलता या सम्पदा देर तक ठहरती नहीं। वह बेतुके उद्धत प्रयोजनों में खर्च हो जाती है अथवा कोई धूर्त छल-बल से एवं आक्रमण से अपहरण कर लेता है। देखा गया है कि कुपात्र वैभववानों की सम्पदा उनमें अनेकानेक दुर्व्यसन बढ़ाती है, अहंकारी बनाती है और उद्धत कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। कुमार्गगमन की प्रतिक्रिया स्पष्ट है। आज नहीं तो कल उसका दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है। तब वह वैभव वस्तुतः घाटे का सौदा ही सिद्ध होता है। ऐसी स्थिति में मूर्ख और दरिद्र उस सुसम्पन्न की तुलना में भाग्यवान प्रतीत होते हैं जो पात्रता न होने पर भी विभूतियाँ अनायास ही प्राप्त कर लेने के कारण दुर्गतिग्रस्त हुए और बेतरह मारे गये।

प्रगति समृद्धि की पगडण्डी कोई नहीं- केवल एक ही राजमार्ग है कि अपने व्यक्तित्व को समग्र रूप से सुविकसित किया जाय। ‘धूर्तता से सफलता’ का भौंड़ा खेल सदा से असफल होता रहा है और जब तक ईश्वर की विधि-व्यवस्था इस संसार में कायम है तब तक यह क्रम बना रहेगा कि धूर्तता कुछ दिन का चमत्कार दिखाकर अन्ततः औंधे मुंह गिरे और अपनी दुष्टता का असहनीय दण्ड भुगते। अनादिकाल से चले आ रहे इतिहास चक्र का यदि गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया जाय तो प्रतीत होगा कि काठ की हाँडी एक बार तो चूल्हे पर चढ़ जाती है, पर दूसरी बार उसे उस प्रकार का अवसर फिर नहीं मिलता। छल, छद्म का आश्रय लेकर भी कई व्यक्ति कुछ समय के लिए कई सफलताएँ पाते और सम्पत्ति संग्रह करते देखे गये है, पर उन्हें वैसे अवसर बार-बार नहीं मिलते। आरम्भ में जो लोग वस्तुस्थिति नहीं समझ सके थे उनकी जानकारी में भी यह तथ्य आ जाता है तब वे भविष्य के खतरे को समझते हुए स्वयंमेव सतर्क हो जाते हैं और बच निकलने का प्रयत्न करते हैं। अनाचारियों के गठबन्धन होते और टूटते रहते हैं। डाकुओं के गिरोह उन्हीं में फूट पड़ जाने के कारण पकड़े जाते हैं। अनैतिकता के आधार पर खड़ी हुई मैत्री बालू की दीवार की तरह ढह जाती है। स्थिर और सघन आत्मीयता के लिए आदर्शवादिता के आधार पर मैत्री को पनपना चाहिए। अन्यथा जिस दृष्टता का- दुष्ट लोग मिल-जुलकर दूसरों के विरुद्ध प्रयोग करते थे, उसी हथियार का आपस में भी सहज प्रयोग कर सकते हैं। आमतौर से होता भी यही है। कुचक्र रचने में समवेत होने वाले घटक अन्ततः वापस में ही टकरा जाते हैं। दुरभिसंधियां वे दूसरों के विरुद्ध ही नहीं रचते परस्पर एक दूसरे पर भी उसका प्रयोग करते है। ऐसे ही अनेक कारण हैं जिनके फलस्वरूप अब तक कोई भी कुचक्रों के आधार पर स्थिर सम्पदा एवं महत्वपूर्ण सफलता का अधिकारी नहीं बन सका। यदि ऐसा न हो तो अपनी बौद्धिक प्रखरता और व्यवहार कुशलता के कारण दुष्ट-दुरात्माओं ने न जाने कितनी सफलताएँ प्राप्त कर ली होतीं और वे न जाने कितने ऊँचे उन्नति के सिंहासन पर विराजमान होते।

साँसारिक उन्नति का स्थिर, सुदृढ़ और सुनिश्चित आधार- व्यक्तित्व का सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनना पुरुषार्थ पर अवलम्बित है। इस मार्ग पर चलने का दुहरा लाभ है। साँसारिक सफलताएँ, समृद्धियाँ, प्रतिष्ठाएं जैसे गौरवास्पद अवसर तो उससे मिलते ही हैं साथ ही अनवरत अभ्यास से अपनी अन्तः विभूतियों को निरन्तर जागृत एवं समुन्नत बनाते चलने का ऐसा लाभ भी है जिसकी तुलना में भौतिक सफलताओं का सारा वैभव तुच्छ पड़ जाता है। सर्वविदित है कि विभूतिवान व्यक्ति कहीं भी, कभी भी, किसी भी स्थिति में रहते हुए भी अपनी विशेषताओं के कारण प्रतिकूल वातावरण को अनुकूलता में बदल रहा होगा। जीवन का सबसे बड़ा आनन्द ‘आत्म-सन्तोष’ उसके चरणों पर लोट रहा होगा। चरित्र-दान और उदार प्रकृति के मनुष्य ही महामानवों की पंक्ति में बैठते और इतिहास प्रसिद्ध बनते हैं, अजर-अमर देवताओं की श्रेणी में उन्हीं की गणना होती है। उनके सम्पर्क और प्रभाव परिचय में आने वाले व्यक्ति प्रकाश प्राप्त करते और ऊँचे उठते हैं। चन्दन वृक्ष की समीपता से उस क्षेत्र में उगे झाड़-झंखाड़ों का सुगन्धित हो जाना तो किम्वदन्ती के रूप में प्रचलित है, पर सज्जनों के सम्पर्क में आने वालों ने किस प्रकार अपने जीवन बदले और किस तरह ऊँचे चढ़े इसके उदाहरण पग-पग पर मिल सकते हैं। जिस पर सारा सम्पर्क क्षेत्र श्रद्धा के भाव भरे पुष्प अनवरत रूप से बरसाता हो उसे स्वर्गलोक का निवासी देवता नहीं तो और क्या कहा जायगा? ऐसी देवोपम मनःस्थिति के लोगों के साथ कुटिलतापूर्वक बढ़ा-चढ़ा वैभव कमा लेने की सम्पन्न परिस्थिति वालों से तुलना की जाय तो प्रतीत होगा कि एक कल्प-वृक्ष के नीचे आनन्द ले रहा है और दूसरा इत्र के खौलते कढ़ाव में उबल रहा है।

तात्विक दृष्टि से मनुष्य की मूलसत्ता उसकी अन्तः चेतना-आत्मा ही है। शरीर उसका कलेवर है। परिवार उसका आवरण है। वैभव उसका शृंगार है। शृंगार, आवरण एवं कलेवर जैसे उपकरण तो सुसज्जापूर्ण हों, पर अन्तः चेतना विकृतियों और निकृष्टताओं के कारण रुग्ण कुरूप बन रही हो तो समझना चाहिए कि आँखों से दीख पड़ने वाला चकमक वैभव पूर्णतया खोखला है। निष्प्राण लाश को कितना ही पुष्प हारों से सजाया जाये, उसमें शांति नहीं आ सकती। मृत शरीर को सड़न से नहीं बचाया जा सकता। अन्तरात्मा विकृतियों के दबाव से मूर्छाग्रस्त पड़ा हो तो फिर जीवन में प्रफुल्लता का दर्शन न हो सकेगा। खीज, झूंझल, अशान्ति, उद्विग्नता, निराशा जैसी विभिन्न धातुओं की बनी गरम सलाखों से क्षण-क्षण में झुलसने- भुनने जैसी पीड़ा का कभी अन्त न हो सकेगा। आन्तरिक विकृतियों का दण्ड इससे कम है ही नहीं। गम गलत करने के लिए शराबखानों और चकलों का चक्कर काटने पर भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। बेहोशी की दवा खा लेने से कष्ट का अनुभव होना भर घटता है। प्राण घातक रोग तो तब भी अपने स्थान पर बना ही रहता और अपनी विनाश लीला तो यथावत चलता ही रहता है।

मोटी बुद्धि तो वासना, तृष्णा की पूर्ति को ही सब कुछ मानती रहती है। पशु-प्रवृत्ति का समाधान पेट और प्रजनन की समस्या का समाधान हो जाने भर से हो जाता है। नर-वानरों के लिए लोभ, मोह के कच्चे अमरूद पर्याप्त है। किन्तु भगवान् ने यदि गहराई तक उतर सकने वाली विवेक बुद्धि दी हो तो उसका प्रथम निरीक्षण यही होगा कि आखिर हम हैं क्या? और हमारी क्षमताओं का आधार क्या है? प्रगति की बात सोचने और उपलब्धियों का आनन्द उठाने की योजना बनाने से पूर्व सोचना यह होगा कि प्रगति आखिर होती किस आधार पर है? और प्रगति का रसास्वादन कर सकने वाली सत्ता है कौन ? यह प्रश्न अनभ्यस्त है। प्रायः कभी भी इन पर गम्भीरता से विचार नहीं किया गया होता। कहने को तो तथाकथित अध्यात्म की चर्चा आये दिन होती रहती है। जीभ से बहुत कुछ बोला और कान से बहुत कुछ सुना जाता है। स्वाध्याय, सत्संग, कथा-कीर्तन, भजन-पूजन आदि की लकीर तो पिटती रहती है, पर यह सब आखिर हो किस लिए रहा है उसका ध्यान ही नहीं आता। पूजा-परक, धार्मिक कर्मकाण्डों की चमत्कारी फलश्रुतियों ने बुद्धि पर ऐसा आच्छादन लपेट दिया होता है। कि इस घिसे को घिसते रहने से ही आत्मिक और भौतिक क्षेत्र में सस्ती ऋद्धि-सिद्धियों की अपेक्षा की जाने लगती है। स्पष्ट है कि उस मृग-मरीचिका में किसी के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। मात्र कर्मकाण्डों से आत्मोत्कर्ष का एक भी आधार खड़ा नहीं होता।

तत्व-दर्शन का अवलम्बन लेकर जब आत्म-चेतना की मूलसत्ता और उसके विकास विस्तार के सम्बन्ध में गम्भीर विचार करते हैं, तो प्रतीत होता है कि परिस्थितियों का वृक्ष-मनःस्थिति की जड़ों के सहारे पोषण प्राप्त करता और फैलता-फूलता-फलता दिखाई पड़ता है। मनःस्थिति भी स्वतन्त्र नहीं उसका प्रेरणा स्रोत अन्तःकरण का अभिलाषा केन्द्र है। आकाँक्षाएँ उठती हैं- तो उसके साधन जुटाने के लिए बुद्धि दौड़ती है- बुद्धि दौड़ती है तो साधन जुटते और अवसर मिलते हैं। शरीर और मन का संयोग सफलताओं का सृजन करता है। यही है वह चक्र जिस पर आरुढ़ होकर लोग ऊँचे उठते और नीचे गिरते हैं।

बात तो जरा-सी है, पर है अत्यन्त महत्वपूर्ण और रहस्यमय। ब्रह्म-विद्या का- अध्यात्म विज्ञान का विशाल-काय सरंजाम इस छोटे से तथ्य को हृदयंगम करने के लिए खड़ा किया गया है। भौतिकवाद और अध्यात्मवाद प्रतिद्वन्द्वी इस अर्थ में हैं कि एकाकी मान्यता में साधन सामग्री की विपुलता के आधार पर तृप्ति मिलने की बात कही जाती है और दूसरा प्रतिपादन आन्तरिक विभूतियों के आधार पर वैभव उपलब्ध होने के तथ्य को प्रमुखता देता है। यों दोनों ही मान्यताएँ आत्मिक और भौतिक प्रगति के समन्वय की अनिवार्यता स्वीकार करती हैं। कसौटी पर भौतिकवादी प्रमुखता गलत सिद्ध हुई है क्योंकि दुर्गुणी सम्पत्तिवानों के प्रसन्नता नहीं उद्विग्नता ही पल्ले बँधती देखी जाती है, इसके विपरीत सद्भाव, सम्पन्न, सज्जनता के रहते स्वल्प साधनों में भी आनन्द और उल्लास भरा जीवन जिया जा सकना स्पष्टतः सम्भव दीखता है। संसार के प्रायः सभी मानव इस तथ्य की साक्षी में प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

आत्म-सत्ता को सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनाने का तथ्य यदि समझा जा सके तो उस प्रयास के फलस्वरूप निश्चित रूप से सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल सकता है। इस प्रयोजन के लिए चार प्रयास करने पड़ते हैं- (1) आत्म-समीक्षा (2) आत्म-सुधार (3) आत्म-निर्माण (4) आत्म-विकास। अपने क्रिया-कलापों में, गतिविधियों में आलस्य, प्रमाद, व्यसन, दुष्ट आदतों के रूप में जो अनेकानेक दुष्प्रवृत्तियाँ घुसी बैठी है उन्हें देखना, समझना, आत्म-समीक्षा है। निदान जाने बिना चिकित्सा कैसी? अवगति के क्या-क्या कारण शरीरों में घुसे बैठे हैं इसका कठोर आत्म-समीक्षा के आधार पर ही पता लगाया जा सकता है। आमतौर से दूसरों के दोष ढूंढ़ने का ही अभ्यास हर किसी को होता है। आत्म-निरीक्षण तो अति कठिन है। क्योंकि अपने साथ पक्षपात करने की आदत आरम्भ से ही बनी होती है। दूसरा कोई वस्तुस्थिति समझता, नहीं। हम स्वयं ही अपनी वास्तविक स्थिति समझ सकते हैं किन्तु आत्म-निरीक्षण की आदत न होने से सब कुछ अच्छा ही अच्छा लगता है। बुराई तो दूसरों में दीखती है, अपने में तो जो कुछ भी है वह अच्छा ही अच्छा लगता है। कोई दूसरा समीक्षा करे तो उस पर क्रोध आता है, द्वेश उभरता है। ऐसी दशा में आत्म-निरीक्षण का कठिन कार्य स्वयं ही अपने भीतर एक समीक्षक मार्ग-दर्शक गुरु का विकास करना होता है, उसी के संरक्षण से आत्म-चिन्तन का अभ्यास किया जाता है। वह क्षमता विकसित हो जाती है तो प्रतीत होता है कि आत्मसत्ता को दुर्बल बनाने वाली और प्रगति की सम्भावनाओं को कुण्ठित करने वाली विकृतियों अपने ऊपर किस हद तक कब्जा जमाये हुए हैं।

इतना बन पड़ने पर आत्मोत्कर्ष का दूसरा चरण यह होता है कि प्रस्तुत कषाय-कल्मषों से लड़ने के लिए महाभारत खड़ा कर दिया जाए। देवासुर संग्राम की कथा, उपकथाओं से पुराण साहित्य भरा पड़ा है। उनमें अन्तःक्षेत्र में होने वाली दैवी और आसुरी तत्वों के बीच होने वाली दुःखद किन्तु अनिवार्य टक्कर का अलंकारिक वर्णन है। साधना को ‘समर’ कहा गया है। भगवान के चौबीसों अवतार स्वयं संघर्षरत रहे हैं और अपने अनुचरों को उसी युद्ध क्षेत्र में घसीट ले गये हैं। लंका काण्ड में रीछ, बानरों की सेना को अड़ा देने के पीछे भगवान का यही प्रयोजन रहा है कि असुरता को निरस्त करने में देवत्व को संघर्षरत होना चाहिए। साधनों की दृष्टि से कौन बड़ा है- अधिकार कितना जमा लिया इसकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। सत्य देखने में दुर्बल लगता हो तो भी अन्ततः विजय उसी की होती है। सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। इस प्रतिपादन में यही कहा गया है कि अन्तरंग अथवा बहिरंग जीवन में अवांछनीयता ने कितनी ही गहराई तक जड़ जमाली हो तो भी उन्हें उखाड़ा जा सकता है। आत्मिक प्रगति का प्रथम चरण आन्तरिक दोष, दुर्गुणों को तीखी दृष्टि से ढूंढ़ निकालना और दूसरा चरण जो अनुचित है उसके उन्मूलन में साहसपूर्वक जुट जाना है।

तीसरे चरण में सद्भावनाओं को स्वभाव में तथा सत्प्रवृत्तियों को व्यवहार में उतारना है। यह कार्य एक दिन में- कल्पना मात्र से यकायक नहीं हो जाता है, वरन् उठने से लेकर सोने तक के पूरे समय को कर्म तथा विचार की दृष्टि से पूरी तरह इस प्रकार सुनियोजित रखना है, जिसमें शरीर एवं मस्तिष्क में कहीं भी अनौचित्य को प्रश्रय मिलने की गुंजाइश न रहे। हर क्रिया को कर्मयोग स्तर की और हर विचारणा को ज्ञानयोग स्तर की बनने का अवसर मिले। इसके लिए सतर्कतापूर्वक प्रयत्न करना होता है। सज्जनोचित गुणों में से अपना कौन-सा कम है, प्रखर व्यक्तित्व का निर्माण करने के लिए हमें अपने में किन विशेषताओं की अभिवृद्धि करनी है, यह सोच लिया तो उनके अभ्यास में उतरने के अवसर अपने सामान्य जीवन-क्रम में ही मिलते रह सकते हैं। निर्वाह की दृष्टि से यदि नैतिक आजीविका का कार्य-पद्धति अपनाई गई है तो गृहस्थ को योग-साधना स्तर पर निबाहा जा सकता है। परिवार सदुद्देश्यों की प्रयोगशाला बन सकता है। तपोवन में घर बना लेना सरल है, पर घर को तपोवन में बदलने के लिए कुशलता की आवश्यकता पड़ती है जिसकी चर्चा करते हुए गीताकार ने ‘‘योग कर्मषु कौशलम्’’ कर्म-कौशल को योग के नाम से पुकारा है।

आत्मोत्कर्ष का चौथा चरण है- आत्म विकास। अहंता को-स्वार्थपरता को अधिकाधिक सुविस्तृत करते जाना ही आत्म-विकास की प्रक्रिया है। संकीर्ण मनुष्य अपने शरीर को ही सब कुछ मानता है। अपने स्वार्थ के सामने स्त्री-बच्चों तक के हित का ध्यान नहीं रखता। परिवार के लोगों से लाभ तो उठाना चाहता है, पर उनके लिए त्याग करने का अवसर आता है तो कन्नी काटने लगता है। स्वार्थी मनुष्य अपने थोड़े से लाभ के लिए दूसरों का बड़े से बड़ा अहित कर सकता है। जीभ के स्वाद के लिए दूसरे प्राणियों का प्राण हरण कर लेना उसके बांये हाथ का खेल होता है। क्रूर-क्रम करने वाले मूलतः निकृष्ट स्तर के स्वार्थी ही होते हैं। आत्म-विकास में इस प्रकार की संकीर्णता को छोड़ना पड़ता है और उदार आत्मियता की प्रवृत्ति अपनानी पड़ती है। अपनी सुविधाएं बांट देने और दूसरों के दुःख बंटा लेने को जी मचलता रहता है। थोड़े-से परिजनों तक सीमित रहने वाले मोह को परिष्कृत करके निस्वार्थ प्रेम में परिणत करना होता है। सभी अपने लगते हैं और प्रत्येक पिछड़े को ऊँचा उठाने के लिए करुणा उमड़ती है। ऐसे व्यक्तियों को लोक कल्याण के लिए अपना आपा समर्पित करना पड़ता है। देश, धर्म, समाज, संस्कृति के प्रति-सदुद्देश्यों के प्रति उन्हें इतनी प्रगाढ़ निष्ठा होती है कि श्रम, समय, चिन्तन एवं साधनों की अपनी सम्पदा उसी निमित्त नियोजित करने से कम में चैन नहीं पड़ता। विलासिता, संग्रह और तृष्णा के उभार शांत हो जात हैं और पेट भरने, तन ढ़कने जैसे स्वल्प निर्वाह आवश्यकताओं की पूर्ति के उपरान्त फिर कोई अनावश्यक तृष्णा, ऐषणा पास भी नहीं फटकने पाती। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की ब्राह्मण परम्परा उसके रोम-रोम में बस जाती है। फलतः स्वार्थ में नियोजित साधनों का उपयोग परमार्थ में होने लगता है। विराट् ब्रह्म और विशाल विश्व की एकता का भान होने पर फिर सत्कर्मों द्वारा ईश्वर की पूजा करते हुए ही जीवन का प्रत्येक क्षण व्यतीत होता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता जब परिपक्व निष्ठा का रूप धारण कर लती है तो फिर मनुष्य किसी परिवार विशेष की सम्पदा न रहकर विश्व नागरिक बन जाता है और अपनी सामर्थ्यों का उपयोग मोहग्रस्तों की तरह नहीं विवेकशील महामानवों की तरह करता है। लोक-सेवा ही उसका व्रत और जन-कल्याण ही उसका लक्ष्य होता है। साधु और ब्राह्मणों की यही रीति-नीति रही है। आत्म-विकास की कक्षा में पहुंचे हुए व्यक्ति इसी स्तर का जीवनयापन करते हैं। सेवा, करुणा, उदारता जैसी दैवी विभूतियां उनके मन, वचन, कर्म में झलकती, छलकती, दृष्टिगोचर होती है।

कहा जा चुका है कि आत्मोत्कर्ष के चार चरण हैं- आत्म-समीक्षा, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास। इन चारों के लिए क्रमिक किन्तु अनवरत प्रयास करना होता है। हर घड़ी सतर्क और संघर्षरत रहना पड़ता है। पशु-प्रवृत्तियां सहज ही हार नहीं मानतीं। वे सत्प्रयत्नों को बार-बार असफल बनाने के लिए उभरती हैं। सुधार के प्रयास करते रहने पर भी कुसंस्कारों के उभार जब-तब आवेश बनकर ऊपर आ जाते हैं और व्रत नियम के प्रयास को तोड़-मरोड़ कर रख देते हैं। इस प्रकार के अवसर आते रहने पर अधीर लोग हिम्मत हार बैठते हैं। व्रत टूटते, संयम निभता नहीं, जो सुधार चाहा था वह हो नहीं सका, यह देखकर सोच लिया जाता है कि- ‘‘यह मार्ग अति कठिन है। इस पर कोई योगी तपस्वी ही चल सकते हैं। सामान्यजनों का यह काम नहीं, अस्तु पुराने ढर्रे को ही अपनाये रहा जाय, सुधार का प्रयत्न छोड़ दिया जाय।’’ इस प्रकार की अधीरता से बचना चाहिए और सोचना चाहिए कि असंख्य जन्मों की संग्रहीत पशु-प्रवृत्तियां यदि पूरी तरह छूटने में थोड़ा समय लेती हैं तो कोई हर्ज नहीं। हिम्मत न हारी जाय और प्रयत्न जारी रखा जाय। पत्थर पर रस्सी की रगड़ से निशान बन सकता है तो अपने स्वभाव में सतोगुणी सुधार परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता?

बच्चा धीरे-धीरे चलना सीखता है। वह बार-बार गिरता, उठता है। छात्रों से आये दिन भूलें होती हैं और अध्यापक उन्हें बार-बार सुधारते हैं। कपड़ा मैला होता है और उसे रोज धोया जाता है, कोई हताश नहीं होता कि बार-बार सुधार करने पर भी फिर गड़बड़ी क्यों हो जाती है? यह संघर्ष समयसाध्य और श्रमसाध्य है। बन्दूक का निशाना लगाने से लेकर साइकिल सवारी सीखने तक के अभ्यास और शिल्प-कला आदि की कुशलता थोड़ा समय ले जाती है। आरम्भ में भूलें भी होती हैं और उन्हें सुधारना भी पड़ता है। यही बात आत्म निर्माण जैसा सेतुबंध बनाने में भी लागू होती है। संचित कुसंस्कार यदि बार-बार उभरें तो उन्हें दबाने के प्रयास में शिथिलता नहीं आने देनी चाहिए और न मन छोटा करना चाहिए। अन्ततः विजय प्राप्त करके रहने का संकल्प देर-सवेर में आत्मोत्कर्ष का लक्ष्य भी पूरा कर ही देता है।

पुरुषार्थ किसी भी क्षेत्र में किया जाय अपना परिणाम उत्पन्न करके ही रहता है। पूरी प्रत्यक्ष एवं मनचाही सफलता न भी मिले तो भी पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं जाता। उससे जो क्रिया कुशलता बढ़ती है वह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। संसार के समस्त पुरुषार्थों में आत्म-निर्माण की दिशा में किया गया प्रयास सर्वोपरि बुद्धिमत्ता का परिचायक है। उससे जीवन की जड़ें मजबूत होती हैं। यह सुदृढ़ता समूचे व्यक्तित्व को निखारती है। मानवी प्रखरता का दिव्य चुम्बकत्व शक्तिशाली बनता है। उसकी बढ़ती हुई सामर्थ्य भौतिक जगत् से समृद्धि को- प्राणि जगत् से सद्भावना को और दिव्य-लोक से ईश्वरीय अनुकम्पा को इतनी अधिक मात्रा में खींच लाती है कि आत्म-निर्माण की साधना में निरत मनुष्य जीवन को हर दृष्टि से सार्थक बनाता है।

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