ब्रह्म सत्ता का अस्तित्व है या नहीं?

November 1976

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पिछली शताब्दियों में बुद्धिवाद का- प्रत्यक्षवाद का बहुत जोर रहा है। विज्ञान का विकास इसी खोज और जिज्ञासा के लिए उत्पन्न हुई, आकुलता का परिणाम है। शास्त्र वचनों को जब कुछ माने बैठे रहने और परम्परागत मान्यताओं को जकड़े बैठे रहने की वृत्ति शिथिल न की गई होती, नये सिरे से सारी परख करने के लिए अविश्वासी मन लेकर न चला गया होता तो निश्चय ही हम दस हजार वर्ष पूर्व की दुनिया में रह रहे होते। तब परम्परागत यथास्थिति बनाये रहने का ही आग्रह होता- सुधार, विकास, परिवर्तन के चिह्न बहुत मंद गति से उभरते हैं। ऐसी दशा में प्रगति चक्र इतनी तेजी से न घूमता जिसने लाखों वर्षों में सम्भव न हो सकने वाली प्रगति यात्रा को तीन शताब्दियों में मूर्तिमान करके दिखा दिया।

इस बुद्धिवाद ने चिर-प्रचलित ‘ईश्वर के अस्तित्व’ विषय पर भी प्रत्यक्षवादी आधार पर खोज की। पर प्रयोगशाला में उसकी सत्ता सिद्ध न हो सकी। इन्द्रिय शक्ति ने भी इस सन्दर्भ में कुछ नहीं किया। मस्तिष्क भी प्रमाण न खोज सका और यान्त्रिकी, भौतिकी ने भी अपनी हार स्वीकार कर ली। ऐसी दशा में स्वाभाविक ही था कि बुद्धिवाद ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करता। प्रकृति की क्रम व्यवस्था सुसम्बद्ध और सुनियोजित है ऐसा तो माना गया, पर उसे स्वसंचालित कहकर सन्तोष कर लिया गया। इसके लिए किसी सृष्टा का हाथ हो सकता है, इससे शोधकर्त्ताओं ने इनकार कर दिया। नास्तिकवाद की प्रचण्ड लहर इसी वैज्ञानिक इनकारों से उत्पन्न हुई और आंधी-तूफान की तरह बौद्धिक जगत पर अपना अधिकार जमाती चली गई। पिछले दिनों ईश्वर की अस्वीकृति का प्रतिपादन प्रगतिशीलता का चिह्न बनकर रहता रहा है। नीत्से जैसे अनेक दार्शनिकों ने मान्यताओं और तर्कों का परिशोधन करने वाले तत्व-दर्शन को एक नई दिशा दीं जिससे आस्तिकता की मान्यताओं को निरर्थक ही नहीं हानिकारक सिद्ध करने का भी एड़ी–चोटी प्रयत्न किया गया है।

पिछली तीन शताब्दियों में नास्तिकता के प्रतिपादन को आंधी-तूफान की तरह विकसित और व्यापक होने का अवसर मिला है। साम्यवादी शासन सत्ता ने प्रस्तुत अनास्था की जड़ें और भी अधिक गहरी जमाईं, पर लगता है वह उन्माद ठंडा पड़ने लग गया है। विज्ञान को नये सिरे से अपने निर्णय पर विचार करने के लिए पीछे लौटना पड़ रहा है। जड़-पदार्थ अपने आप नियमित हल-चलें करते रह सकते हैं, यह आग्रह किसी समय पूरे जोश खरोश से किया गया है, पर अब पुरातन पंथियों की तरह तथाकथित प्रगतिशीलों को भी यह सोचना पड़ रहा है कि सृष्टि संतुलन के नि रहस्यों का- इकॉलाजी विज्ञान के आधार पर प्रतिपादन होता चला जा रहा है- यह बात पूरी तरह गले नहीं उतरती। सृष्टा कोई नहीं- उसकी कुछ भी आवश्यकता नहीं- यह बात आवेश में तो कही जा सकती है, पर गहराई से उतरते ही संदेह उत्पन्न होता है कि इतनी क्रमबद्ध- परस्पर पूरक और सोद्देश्य गतिविधियां किसी चेतना के बिना नियन्त्रण किये ही किस प्रकार चलती रह सकती है?

माना कि यान्त्रिकी और भौतिकी के साथ-साथ बौद्धिकी भी प्रत्यक्षवादी उपकरणों के आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित नहीं कर पा रही है, पर न मानने भर से भी तो समाधान नहीं होता। सृष्टि के संचालन क्रम में इतनी अधिक सुसम्बद्धता का होना अनायास ही चल रहा है तो यह अनायास ही सृष्टा होनी चाहिए। कर्ता के बिना कर्म और प्रेरणा के बिना हलचल, नियंत्रण के बिना व्यवस्था क्यों कर बनी? स्वसंचालित यंत्रों पर भी तो आखिर संचालक नियुक्त रहते हैं। फिर सृष्टि से विशाल संयन्त्र किस प्रकार बिना किसी बुद्धिमान सत्ता का आधार लिये- क्यों कर चलता रह सकता है? यह प्रश्न पिछड़े कहे जाने वालों से लेकर प्रगतिशीलों तक को समान रूप से संक्षोभ उत्पन्न करता है। प्रमाण रहित को क्यों मानें? तर्क उचित है। पर न मानने की बात तो और भी अधिक भारी पड़ती है। निगलने का बहुत प्रयत्न करने पर भी वह गले में ही अटकी रह जाती है।

अणु से लेकर सौर-मण्डलों तक का, प्रत्येक छोटा-बड़ा घटक अपने नियत कर्त्तव्य उत्तरदायित्व को तत्परतापूर्वक निर्वाह करने में संलग्न है। उनके बीच सघन सहयोग काम कर रहा है। नीति-शास्त्र और समाज-शास्त्र के जो सिद्धान्त मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक सिखाये जाते हैं उन्हें जड़ कहे जाने वाले पदार्थ अधिक अच्छी तरह समझे और अपनाये हुए है, इस तथ्य को जितना स्पष्ट अब अनुभव किया जा रहा है उतना पहले कभी नहीं किया गया था। ऐसी दशा में बुद्धि को सृष्टा के अस्तित्व को अस्वीकृत करने वाली पूर्व घोषणा पर पुनर्विचार करना पड़ रहा है।

एक के बाद एक प्रमाण इस स्तर के मिल रहे हैं जिनसे इस ब्रह्मांड में एक व्यापक चेतन तत्व का समुद्र भरा हुआ सिद्ध होता है। जैसे शब्द, ताप, ध्वनि प्रवाह, ईथर के महासागर में दौड़ लगाते हैं। ठीक इसी प्रकार चेतना का भी अपना प्रभाव और क्षेत्र है। विचार और भावना तत्व किसी भौतिक शक्ति से कम समर्थ नहीं है। उनकी प्रतिक्रिया मनःस्थिति पर ही नहीं परिस्थिति पर भी समान रूप से होती है। सृष्टि सन्तुलन का नियन्त्रण समष्टि मन करता है। यह नवीनतम वैज्ञानिक शोधों का परिणाम है। इसे प्रकारान्तर से ब्रह्म सत्ता की स्वीकृति ही कह सकते हैं।

विज्ञान ने जड़ के अन्तराल में समाई हुई एक ऐसी शक्ति को स्वीकार किया है जो व्यापक भी है और बुद्धिमान भी। यह प्राकृतिक है या अध्यात्मिक इस प्रश्न पर विचार करने का अभी समय नहीं आया, पर ‘ब्रह्मांडीय चेतना’ का अस्तित्व अब विज्ञान क्षेत्र में मान्यता प्राप्त करता चला जा रहा है। इस सर्वव्यापी चेतना ने सृष्टि की हलचलों के साथ स्नेह, सौन्दर्य एवं आनन्द की अनुभूति जुड़ी रह सके और जीवधारी इस प्रवास यात्रा का समुचित आनन्द ले सके ऐसी व्यवस्था भी जोड़कर रखी हुई है। उत्पादन, अभिवर्धन, ढलान और परिवर्तन का चक्र अपनी धुरी पर घूमता है। ग्रह-नक्षत्रों से लेकर अणु-परमाणु तक के छोटे-बड़े सृष्टि घटक अपने निर्धारित गतिचक्र में तत्परतापूर्वक भ्रमण करते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया सुनिश्चित है। पेण्डुलम की तरह यहाँ आगे बढ़ना और पीछे हटना भी होता रहता है। लगता है किसी बुद्धि रहित ने अनगढ़ सृष्टि नहीं रची है, वरन् उसके पीछे सुव्यवस्था के ऐसे तार कस दिये हैं कि गड़बड़ी होते-होते स्वयमेव सँभल जाती है।

आइन्स्टाइन जैसे विचारशील व्यक्ति इसीलिए उस अदृश्य सत्ता की अनुभूति कर कह उठते हैं- “पदार्थ की सूक्ष्मतर सत्ता तक पहुँचकर मेरी कल्पना- शक्ति एवं अनुभव शक्ति इस विश्वास को जन्म देती है कि वहाँ विचार एवं परिवर्तन करने वाली कोई चेतन-सत्ता पहले से ही विद्यमान है। मैंने तो बस उस चेतन-सत्ता के साथ एकाकारिता की स्थिति प्राप्त कर ही इस सूक्ष्मतर सत्ता का बोध प्राप्त किया है। अब मुझे विश्वास होने लगा है कि यह चेतन-सत्ता अदृश्य जगत की सूक्ष्म, किन्तु महान शक्तिशाली सत्ता है।”

जीवन की सृजनात्मक प्रक्रिया के प्रारम्भ होने की तो विज्ञान यह व्याख्या कर सकता है कि “एमीनो एसिड प्रोटीन” नामक पदार्थ ने सहसा अपने पड़ौसी तत्वों को अपनी ओर आकर्षित करना और पचाना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन ऐसा क्यों और कब हुआ, इसका उत्तर विज्ञान नहीं दे पाया है? प्रोटोन, न्यूट्रोन, इलेक्ट्रोन अथवा इनसे भी सूक्ष्म, प्रकृति का कोई तत्व, जिसके साथ उसे गतिशील करने वाली शक्ति अदृश्य रूप से घुली हुई है, परस्पर सम्बद्ध और अंतर्निविष्ट है। अस्तित्व चाहे वह ईश्वर का हो, प्रकृति का अथवा बुद्धि का, पूर्णतः अविभाज्य है। इसका प्रत्येक अंश सूक्ष्म है, अदृश्य है और इन्द्रियानुभूति से परे है। इसका प्रत्येक अंश दूसरे को प्रभावित कर रहा है और प्रत्येक दूसरे अंश से प्रभावित हो रहा है।

जड़ के अन्तराल में काम करने वाली चेतना को पिछली शताब्दियों की तुलना में अब अधिक अच्छी तरह से समझ सकने के लिए साधन बने और आधार खड़े हुए हैं। शरीर में काम करने वाले जीवाणुओं की संरचना और क्रिया-पद्धति को समझने का प्रयत्न करने पर प्रतीत होता है कि इनके भीतर मात्र गति ही नहीं बुद्धिमता एवं इच्छाशक्ति ही काम कर रही है।

शरीर का प्रत्येक जीवाणु स्वतन्त्र चिन्तन की भी क्षमता रखता है। लेकिन सम्पूर्ण शरीर के निर्माण के लिए शरीरस्थ सभी जीवाणु मिलकर कार्य करते हैं। इनका नेतृत्व करता है ‘सुपरईगो’ या अहं-तत्व। वही सबका संचालक निर्देशक है। वह कमाण्डर है, लेकिन फौज के प्रत्येक जवान में, शरीरस्थ हर एक जीवाणु में स्वतन्त्र विचार-शक्ति भी है। उन्हें मालूम है कि हमारे लक्ष्य की प्राप्ति तभी सम्भव है, जब हम नेता का, कमांडर का अहं-तत्व का निर्देश पूरी तरह मानें। यह बोध उन्हें समर्पण की प्रेरणा देता है। समर्पण की दिव्य भावना से निरन्तर क्रियाशील प्रत्येक जीवाणु –‘अहं’ की आज्ञा का ही अनुसरण करते हैं। इस ‘मैं’ का सुख ही, सभी जीवाणुओं का सुख और उसका दुःख, सबका दुःख बन जाता है। ‘मैं’ की, विचार-विद्युत शरीर के सभी जीवाणुओं में तीव्रतम वेग से कौंध जाती है। ‘मैं’ का उल्लास, उत्साह उन्हें स्फूर्ति, उमंग और ओज से भर देता है और ‘मैं’ की हताशा-निराशा उन्हें पीत-मुख, श्लथ-तन, उदास और निष्क्रिय बना जाती है। मानो हर जीवाणु एक छोटा स्टेशन है जो अपने मुख्य स्टेशन ‘अहं-तत्व’ से जुड़ा है।

मस्तिष्क के जीवाणु अन्य देहांगों के जीवाणुओं से अधिक प्राण शक्ति सम्पन्न होते हैं। उनमें सुदीर्घ अनुभवों की स्मृतियाँ संचित होती हैं अतः वे सभी जीवाणुओं के नेता होते हैं। किन्तु देह के सभी जीवाणु परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध होते हैं। तीव्र क्षुधा-ज्वाला से दग्ध एक व्यक्ति सुस्वादु व्यंजनों के थाल के सामने बैठकर पहला ग्रास तोड़ता है कि तभी उसके किसी परम आत्मीय की मृत्यु की सूचना स्वरूप टेलीग्राम उसे मिलता है। तार पढ़ते ही उस व्यक्ति का हृदय जैसे निष्प्राण हो जाता है। शरीर के सभी अंगों में ऐंठन-सी मच जाती है। लगता है जैसे पूरे शरीर की ज्योति अत्यन्त मन्द हो चली है। भूख का कहीं अता-पता नहीं। जीभ सूख जाती है। मस्तिष्क में एक स्तब्धता-सी छाने लगती है। अब विचार करें कि क्षुधा को शान्त करने की तीव्र प्रेरणा देने वाले जीवाणुओं का वह जोश कहाँ खो गया? वे भी मन मस्तिष्क के घनीभूत विवाद से समरस हो गए और अपनी प्रचण्ड आकाँक्षा तक भुला बैठे।

इसमें दो निष्कर्ष हमारे समाने आते हैं। पहला यह कि अपनी अन्तश्चेतना ही शरीर के समस्त जीवाणुओं पर प्रभाव डालती है। अतः इन जीवाणुओं को पुष्ट, प्रसन्न, प्रफुल्ल और प्रगतिशील रखने के लिए चित्त में स्फूर्ति और उल्लास का सातत्य आवश्यक है। मन की दरिद्रता, दैन्य या दुराशा देह भर में जीवाणुओं के क्षोभ व क्षीणता का कारण बनती है। अपने शरीर के अंगों और जीवाणुओं पर सदा सन्देह मत कीजिए। अन्यथा वे सचमुच ही संदिग्ध व संकीर्ण बुद्धि के, शिथिल और सिमटे हुए से अर्थात् अल्प प्राण हो जाएंगे। अपने आप पर विश्वास करें। यह आत्म-विश्वास उन्हें अदम्य स्फूर्ति, उल्लास और आवेग देगा। वे प्रस्तुत बाधाओं को चीरते हुए, शरीर को स्वस्थ, प्रसन्न रखने के लिए सदा सक्रिय रहेंगे।

शरीर का कोई भी अंग काटकर शरीर से अलग कर लिया जाए और फिर उसे किसी विषैले रसायन या घातक औषधि के समीप रखा जाए तो उस कटे अंग के अणुओं में एक तीव्र हलचल मच उठेगी और वे अपनी शक्ति भर उससे दूर जाने की कोशिश करेंगे। इस प्रयास में वह कटा हुआ अंग उक्त घातक औषधि या जहरीले रसायन से तनिक-सा दूर स्वतः ही सरक सकता है। इसी तरह, यदि कोई लाभदायक औषधि या पुष्टिकर रसायन के पास ऐसा कटा हुआ अंग रखा जाए तो उसके अणु ऐसी औषधि या रसायन के निकट खिंचने की चेष्टा करेंगे। इससे स्पष्ट है कि शरीरस्थ अणुओं में भी विचार-शक्ति है।

रक्त की एक बूँद में हजारों कोशिकाएँ होती हैं। एक सेल में प्रोटोप्लाज्म भरा होता है, जिसमें कार्बन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, सल्फर, कैल्शियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम, लोहा, फास्फोरस, क्लोरीन और सोडियम ये 12 तत्व होते हैं।

छोटी-छोटी लाल रक्त-कोशिकाओं में हीमोग्लोबीन भरा रहता है। श्वेत रक्त कोशिकाओं में आत्म-रक्षा और प्रतिशोध क्षमता का विवेक होता है, उन्हें अचेतन कैसे कहा जाए? इस तरह ये प्रत्येक कोशिकाएं भी वस्तुतः एक स्वतन्त्र जीवधारी हैं तथा शरीर इन अनेक चेतन घटकों का संगठित समूह कहा जा सकता है।

सामान्यतः मस्तिष्क को बुद्धि का एकमात्र स्थान माना जाता है। किन्तु बुद्धि वस्तुतः एक वैद्युतिक ऊर्जा है। वह सम्पूर्ण शरीर में परिव्याप्त है। मस्तिष्क उसका मुख्यालय है। किन्तु यह मुख्यालय भी मात्र शरीर की दृष्टि से ही। क्योंकि स्वयं मस्तिष्क विश्व की चेतना, ऊर्मियों से प्रतिपल प्रभावित होता है।

धातुओं, पाषाण आदि में भी प्रसुप्त चेतना पाई गई है। जड़-पदार्थों को भी अति न्यून जीवनी शक्ति सम्पन्न प्राणी कहा जा सकता है। प्रत्येक जड़-पदार्थ में चेतन की इस झाँकी को उसकी विकास-आकाँक्षा कहा जा सकता है। ऐसा परिलक्षित होता है कि सभी जड़ तत्व चेतना का स्तर अधिकाधिक विकसित करने का निरन्तर प्रयास कर रहे हैं। धातुओं में जंग लगना, पानी की सतह पर काई उत्पन्न होना, जल-जन्तुओं का उद्भव, वनस्पति में जीव-जन्तुओं का उत्पन्न होना, मिट्टी से उर्वरक जीवाणुओं का पाया जाना, पत्थर से शिलाजीत जैसे पदार्थों का निकलना यह बताता है कि इनमें भी जीवन मौजूद है और वह क्रमशः शैशव, यौवन, वृद्धता एवं मृत्यु की धुरी पर अपनी निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार भ्रमण कर रहे है।

वृक्ष वनस्पतियों का जीवन-क्रम भी अन्य प्राणियों जैसा ही है। उन्हें स्थिर एवं पिछड़े कहा जाना तो ठीक हो सकता है, पर यह सोचना गलत है कि उनमें अनुभूतियों एवं संवेदनाओं का सर्वथा अभाव है। भारत के मूर्धन्य वैज्ञानिक जगदीश बोस ने यह सिद्ध किया था कि पौधे भी सोचते, इच्छा करते और परिस्थितियों से प्रभावित होकर सुख-दुःख मानते हैं। संगीत और शोर का जो भला-बुरा प्रभाव वनस्पतियों पर पड़ता है उसने भी यही सिद्ध किया है कि उनमें भी संवेदना मौजूद है। स्तर न्यूनाधिक हो सकता है, पर वैज्ञानिकों की भाषा में नया नामकरण मिली ‘ब्रह्मांडीय चेतना’ का-पुरातन अध्यात्म की भाषा में पुकारी जाने वाली-ब्रह्म-सत्ता का अभाव कहीं नहीं है। ऐसे व्यापक और प्रत्यक्ष तत्व को-बुद्धिवाद तथा प्रत्यक्षवाद भी स्वीकार करने ही जा रहा है। देर केवल इतनी ही है कि उस पर मुहर कल लगनी है या परसों।


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