विरोध न करना पाप का परोक्ष समर्थन

November 1976

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संसार में अवाँछनीयता कम और उत्कृष्टता अधिक है। तभी तो यह संसार अब तक जीवित है। यदि पाप अधिक और पुण्य स्वल्प रहा होता तो अब तक यह दुनिया श्मशान बन गई होती। यहाँ सत्य, शिव और सुन्दर इन तीनों में से एक का भी अस्तित्व जीवित न रहा होता। आग दुनिया में बहुत है, पर पानी से अधिक नहीं। इतने पर भी हम देखते हैं कि अनाचार घटता नहीं, बढ़ता ही जाता है। सरकारी प्रयत्न रोकथाम के लिए काफी बढ़ाये गये हैं, पर उनकी पकड़ में दुष्टता की पूँछ भर आती है। सारा कलेवर जो जहाँ का तहाँ जमा बैठा रहता और अपना विस्तार करने में संलग्न रहता है। आश्चर्य इस बात का है कि सज्जनता का स्पष्ट बहुमत होते हुए भी दुष्टता क्यों पनपती और फलती-फूलती चली जाती है? रोकथाम की सर्वजनीन आकाँक्षा क्यों फलवती नहीं होती? असुरता की शक्ति क्यों अजेय बनती जा रही है? देवत्व उसके आगे पराजित होता और हारता, झक मारता क्यों दिखाई देता है?

विचार करने पर स्पष्ट होता है कि पाप-शक्ति स्वल्प है। बलवान चोर घर में घुसे और घर मालिकों में से कुछ स्त्री, बच्चे जग पड़ें-कुत्ते भौंकने लगें तो उन्हें तत्काल उलटे पैरों भागना पड़ता है। स्पष्ट है पाप अत्यन्त दुर्बल होता है प्रकारान्तर से दुर्बलता ही निकृष्टता के रूप में परिणत होती है। सत्य में हजार हाथी के बराबर बल बताया गया हैं। परन्तु उसके हारने और असत्य के मजबूती से पैर जमाये रहने का कुछ तो कारण होना ही चाहिए। वह यह है कि जन-मानस में से उस रोष-आक्रोश का-शौर्य-साहस का अस्तित्व मिटा नहीं तो घट अवश्य गया है, जिसमें अनीति की चुनौती स्वीकार करने की तेजस्विता विद्यमान रहती है। इस कसौटी पर औसत आदमी बड़ा डरपोक, कायर, दब्बू, संकोची, पलायनवादी और कुछ-कुछ वैसा ही बन जाता है जैसा कि गीता का विवादग्रस्त अर्जुन था। उसमें रोष-आक्रोश उत्पन्न करने के लिए ही भगवान को गीता सुनानी पड़ी और अपने प्राण प्रिय मित्र को क्लीव, क्षुद्र, दुर्बल, अनार्य आदि एक से एक कड़वी गालियों की झड़ी लगाने की आवश्यकता अनुभव हुई।

अर्जुन समझौतावादी, संतोषी प्रकृति का और सज्जन दीखता है। वह क्षमा करने, सन्तोष रखने की नीति अपनाना चाहता है और भीख आदि के सहारे संतुष्ट रहना चाहता है। युद्ध का कटु प्रसंग उसे अच्छा नहीं लगा। आज हम सब की मनःस्थिति ऐसी ही हो गई है कि झगड़े में न पड़ने, किसी तरह झंझट काट लेने, अनाचार से निगाह चुरा लेने की बात में ही भलाई देखते हैं। यह भलाई दिखाने वाली सज्जनता का आवरण ओढ़े हुए क्षमाशीलता वस्तुतः परले सिरे की कायरता होती है। इससे अपने को झंझट में न पड़ने से बचाने के अतिरिक्त किसी से दुश्मनी मोल न लेने और बदनामी से बचने जैसे ऐसे तत्व भी मिले रहते हैं जिन्हें प्रकारान्तर से अनीति समर्थक और परिपोषक ही कहा जा सकता है।

दिन-दहाड़े सरे-बाजार गुण्डागर्दी होती रहती है और यह भले बनने वाले लोग चुपचाप उस तमाशे को देखते रहते हैं। गुण्डों की हिम्मत बढ़ती है और वे आये दिन दूने उत्साह से वैसी ही हरकतें करते हैं। यदि देखने वाली भीड़ ने जोर से एक साथ शोर ही मचा दिया होता तो सरे आम गुण्डागर्दी करने वालों के पैर उखड़ सकते थे और दुर्घटना बच सकती थी। अनाचार की घटनाएँ घटती हैं, पुलिस छानबीन करती है, पर प्रत्यक्षदर्शी भले मानुसों में से गवाही देने एक भी नहीं जाता। झंझट से बचने में ही जिन्हें खैर दीखती है वे अनाचार का सामना करने में जो थोड़ी बहुत कठिनाई उठानी पड़ती है, उसका झंझट क्यों मोल लें? इस भीरुता पर प्रत्यक्ष रूप से गुण्डागर्दी का लाँछन तो नहीं लगाया जा सकता, पर प्रत्यक्ष रूप से अनीति को खाद-पानी देने की जिम्मेदारी उसी की है। अपनी लड़की से कोई गुण्डा छेड़खानी करे तो लोग बदनामी के डर से उसे छिपाने की कोशिश करते हैं। इससे दुहरी हानि होती है। अगले दिनों लड़की को फिर कोई छेड़े तो वह बेचारी चुपचाप उसे सहन करती रहती है। जानती है अभिभावकों में सामना करने की हिम्मत तो है नहीं। छिपाने का ही उपदेश देंगे ऐसी दशा में उसे छिपाने की बात स्वयं ही करती रहे तो क्या हर्ज है? दूसरी ओर छेड़ने वालों का साहस सौ गुना हो जाता है वे चक्रवर्ती शासक की तरह मूँछें ऐंठते और ताल ठोकते फिरते हैं। मानो इन सज्जन कहलाने वाले कायरों को उन्होंने मक्खी-मच्छर की तरह अपना वशवर्ती बना लिया हो।

छोटे-बड़े प्रत्येक अनाचार के अवसर पर यही दृश्य देखने को मिलता है। विरोध, प्रतिरोध, असहयोग करने के लिए साहस दिखा सकने वाले ढूंढ़े नहीं मिलते वरन् क्षमा का उपदेश देने, गन्दगी पर मिट्टी डालने की बात कहने वाले लोगों की भीड़ सामने आ खड़ी होती है और रोकथाम के लिए जो कुछ किया जा सकता था वह सम्भव ही नहीं हो पाता। स्थिति कितनी दयनीय और कितनी विषम है। लगता है लोगों ने पाप को सुरक्षित रखने और उसे फलने-फूलने देने की ऐसी नीति अपना ली है जो बाहर से निर्दोष लगती है किन्तु वस्तुतः वही अनाचार को बढ़ावा देने में खाद पानी का काम करती है।

भगवान की अवतार प्रतिज्ञा में धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश का उभय-पक्षीय आश्वासन है। प्रत्येक अवतार के चरित्र में इन दोनों ही तत्वों का समावेश है। अधिक बारीकी से देखने पर प्रतीत होगा कि अवतारों ने धर्मोपदेश तो कम दिये हैं वरन् पाप से जूझने और उसे निरस्त करके छोड़ने की आक्रोश प्रक्रिया में ही अपना अधिक समय लगाया है। रामचरित्र में विश्वामित्र यज्ञ रक्षा से लेकर पंचवटी, दण्ड कारण्य आदि में जूझते हुए अन्ततः लंका युद्ध में जा डटने के ही प्रसंग भरे पड़े हैं। कृष्ण चरित्र में भी उनके जन्मकाल से ही असुरों से जूझने की महाभारत रचाने की और अन्ततः अपने ही वंश वालों को नष्ट होने देने की संरचना में समय बीता। भगवान परशुराम, भगवान नृसिंह, वाराह, भगवती, दुर्गा आदि के अवतार चरित्रों में अनीति से संघर्ष का ही प्रसंग बढ़ा-चढ़ा है। उनके साथी समर्थकों की सेना को धर्म स्थापना का-जप हवन का कितना समय मिला कह नहीं सकते पर स्पष्ट है कि भगवत् भक्तों ने ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए अपनी सामर्थ्य झोंक देने का आदर्श उपस्थित किया। रीछ-वानरों ने, ग्वाल-बालों ने पाण्डवों ने, प्रधानतया अनीति विरोधी तप साधना में ही अपना जीवन घुलाया था।

भगवान बुद्ध ने तत्कालीन अनाचारों के- मूढ़ मान्यताओं के विरुद्ध प्रचण्ड क्रान्ति खड़ी की थी, इसी संघर्ष से जूझने के लिए उन्होंने जीवधारी भिक्षुओं और श्रवणों की सेना खड़ी की थी। स्वार्थ के लिए तो सभी संघर्ष करते हैं, किन्तु परमार्थ के लिए लड़ना मात्र आदर्शवादी लोगों के लिए ही सम्भव होता है इसलिए बुद्ध शिक्षा में साधना और संघर्ष का समन्वय है। इसी आधार पर उनने अपने साधनों से सारे विश्व में नव-युग का शंख बजाया और नये जागरण का वातावरण बनाया। उनके न रहने पर अनुयायियों ने अहिंसा की पूजा-पाठ की सस्ती लकीर पीटते रहना तो जारी रखा किन्तु अनीति से लड़ने की कष्टसाध्य प्रक्रिया की ओर से मुँह मोड़ लिया। फलतः बौद्ध धर्म भारत-मध्य एशिया से चढ़ दौड़ने वाले डाकुओं द्वारा देखते-देखते पद-दलित कर दिया गया। शौर्य, साहस की तेजस्विता खो बैठने वालों की जो दुर्गति होती है, वही अपने देश की भी हुई। एकाँगी, सस्ती, धर्म मान्यताएं तो दीन-दुर्बलों को भी अपनी खाल बचाने के लिए अच्छी लगती हैं, पर वास्तविक धर्म में तो अनीति विरोधी संघर्ष ही जुड़ा हुआ है उसके लिए शौर्य, साहस न हो तो फिर मनुष्य बगलें झांकता है और उन सिद्धान्तों की दुहाई देता है जो मात्र उच्चस्तरीय विशिष्ट आत्माओं को विशेष आदर्श प्रस्तुत करने के लिए ही बनाये गये हैं। पानी में बहते बिच्छू के बार-बार काटने पर भी उसे बार-बार निकालने की कथा किसी विशेष सन्त की कीर्ति में चार चाँद लगा सकती है, पर सर्वसाधारण के लिए शेख सादी की वही उक्ति ठीक है जिसमें “बिच्छू पर दया करना बच्चों को मार डालने के समतुल्य” बताया गया है।

गुरु गोविन्दसिंह का अध्यात्म व्यावहारिक और जीवन्त था। उनने अपने शिष्यों के एक हाथ में माला और दूसरे में भाला थमाया। समर्थ गुरु रामदास ने अपने प्रौढ़ शिष्य शिवाजी को तलवार थमाई थी। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को ऐसे ही कार्यों में जुटाया। गांधी ने अपने अनुयायियों को प्रत्यक्ष मृत्यु से लड़ने का निर्देश दिया और कहा- ‘‘टूट जाना पर अनीति से लड़ने की हठ छोड़ना मत।’’

भगवान राम ने ऋषियों के अस्थि समूह के बने टीले देखे। उनकी आंखों में ‘‘नयन जल छाये’’ किन्तु वे आंसू कायरों, दुर्बलों और भावोन्मादियों के नहीं वीरों के थे। उनने भुजाएं उठाकर प्रतिज्ञा की कि जिनने यह दुष्कर्म किये हैं उन निश्चरों से इस पृथ्वी को रहित करके छोड़ेंगे। यदि अनाचार पीड़ित पर वस्तुतः दया आती हो और उससे सहानुभूति उपजी हो तो फिर उसका एक ही उपाय है कि उन अनीति के असुर से जूझा जाय तो इस विपत्ति का कारण है।

यज्ञ सन्दर्भ में एक श्रुति वचन प्रयोग होता है- ‘‘मन्यु रसि मन्यु मे दहि’’ हे भगवान् आप ‘मन्यु’ हैं हमें ‘मन्यु’ प्रदान करें। मन्यु का अर्थ है वह क्रोध जो अनाचार के विरोध में उमंगता है। निन्दित क्रोध वह है जो व्यक्तिगत कारणों से अहंकार की चोट लगने पर उभरता है और असंतुलन उत्पन्न करता है। किन्तु जिसमें लोक-हित विरोधी अनाचार को निरस्त करने का विवेकपूर्ण संकल्प जुड़ा होता है वह ‘मन्यु’ है। मन्यु में तेजस्विता, मनस्विता और ओजस्विता के तीनों तत्व मिले हुए हैं। अस्तु वह क्रोध के समतुल्य दीखने पर भी ईश्वरीय वरदान के तुल्य माना गया है और उसकी गणना उच्च आध्यात्मिक उपलब्धियों से की गई है।

राजा द्रुपद के अनाचारों से क्षुब्ध उनके सहपाठी, द्रौणाचार्य राज सभा में इसलिए गये कि अपनी बात मित्रता का परिचय देते हुए उसके शुभ-चिंतन की बात कहेंगे और कुमार्ग से पीछे हटाने का प्रयत्न करेंगे। पर हुआ ठीक उलटा। मदान्ध द्रुपद उनके उपदेश सुनने तक के लिए तैयार नहीं हुए और अपमानित करके उन्हें सभा भवन में से निकलवा दिया।

द्रौणाचार्य ने विवेक नहीं खोया। द्रुपद समझाने की सज्जनोचित रीति से नहीं मानते तो उन्हें दण्ड की दुर्जनों पर प्रयुक्त होने वाली प्रक्रिया का सहारा लेंगे। हर हालत में उन्हें सीधे रास्ते पर लाने का प्रयत्न जारी रखेंगे। इस निश्चय से साथ वे पाण्डवों को पढ़ाने लग गये। जब छात्र बड़े हुए और गुरु दक्षिणा देने की बात कही तो उनने एक ही उत्तर दिया कि- ‘‘द्रुपद के अहंकार को नीचे गिराना और उसे सुधारना है, इसलिए उसे पकड़ कर मुख बांधकर मेरे सामने ले आओ।’’ शिष्यों ने वही किया। द्रुपद पर आक्रमण हुआ। उन्हें हराया गया और रस्सों से जकड़ कर गुरु के सामने प्रस्तुत किया गया। द्रौणाचार्य ने कहा- ‘राजन् अहंकार और अनीति अभी भी छोड़ी जानी है या नहीं?’ द्रुपद रो पड़े उनने दोनों दुष्टताएं छोड़ दीं। साथ ही स्वयं भी बन्धन मुक्त हो गये। महाभारत की इस कथा में यह प्रेरणा है कि दुष्टता से उभरने पर मौन नहीं बैठे रहना चाहिए। मीठे उपाय सफल न हों तो कडुए भी अपनाये जा सकते हैं। हर हालत में अनाचार का तो अंत होना ही चाहिए।

वैयक्तिक पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में छद्मवेशों से छिपे हुए भ्रष्टाचार का अंत तब तक नहीं हो सकता, जब तक उनके प्रति जन-आक्रोश न जगाया जाय। आज तो स्थिति यह हो गई है कि उचित-अनुचित का भेद तक करना, लोग भूलते जाते हैं और किसके साथ सहयोग करना, किसके साथ न करना इस विवेक को खो जाते हैं। जिसके साथ जिसकी मित्रता है, वह उसके पाप अनाचार का भी चित्र-विचित्र तर्कों से समर्थन करता है। नैतिक दृष्टि से यह अत्यन्त ही दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है। मित्रता के प्रमुख लक्षणों में रामायण कार ने ‘‘कुपथ निवार सुपंथ चलावा’’ का सूत्र दिया है। सच्चा मित्र वह है जो मीठे, कडुए उपायों से उसकी अनैतिक प्रवृत्तियों को सुधारें, गलत मार्ग पर चलने से रोकें और सन्मार्ग की दिशा में प्रवृत्त करें, जो उसकी उपेक्षा बरतता है अथवा समर्थन, सहयोग करता है, वह प्रकारान्तर से अपने मित्र को अधिक भ्रष्ट करने में- अधिक पतित, निन्दित एवं दुःखों के गर्त में डुबाने के लिए प्रवृत्त है। ऐसा व्यक्ति मित्र होने का दावा करते हुए भी असल में उसका पक्का दुश्मन है। सुधार प्रक्रिया में यह समर्थन ही सबसे बड़ी बाधा है। ऐसे मित्र नामधारी, व्यक्ति अपने मित्र के साथ ही अपना भी लोक-परलोक बिगाड़ते हैं।

“चोर-चोर मौसेरे भाई” की उक्ति हर क्षेत्र में लागू होते देखते हैं। एक का पर्दाफाश होते ही-दूसरे अन्य मठकटे उसकी सहायता के लिए आ धमकते हैं। सोचते हैं संयुक्त मोर्चा बनाकर ही जन आक्रोश से बचा जा सकता है अन्यथा पाप के प्रति उभरा हुआ रोष आज एक साथी को दबोच रहा है तो कल दूसरे पर आ चढ़ेगा। इसलिए संयुक्त रूप से बचाव के उपाय करने चाहिए।

देखा गया है कि एक जेबकट पकड़ा जाय तो वह दो-चार चांटे पड़ते ही दहाड़ मारकर रोने-चिल्लाने लगता है मानो किसी ने उसकी गरदन काट ली हो। गिड़गिड़ाते, रोते-काँपते माफी माँगता है और दीनता की दुहाई देता है। इतने में अन्य साथी भले आदमियों के रूप में बीच-बिचाव करने आ पहुँचते हैं। वे तरह-तरह के ऐसे तर्क उपस्थित करते हैं मानो सज्जनता और साधुता के साक्षात् अवतार हैं। दस-बीस और भोले आदमी इकट्ठे होते हैं तो सज्जनतावादी तर्क उन्हें भी प्रभावित करते हैं और जेबकट को छुड़ा देते हैं। वह चाण्डाल चौकड़ी अपनी उस्ताद पर खूब प्रसन्न होती है और आपस में कहते हैं यह हथकण्डा कितना सस्ता और बढ़िया है कि पकड़े जाने पर बिना दण्ड भोगे इस तरकीब के सहारे सहज ही जान छुड़ाई जा सकती है। दुष्ट लोग आवश्यकतानुसार पकड़े जाने पर फिर इसी फार्मूले का उपयोग करते हैं और देखते हैं कि सज्जनता की आड़ में दुष्टता को पोषण देने का कैसा विचित्र और सरल हथकण्डा है।

करुणा और दया अच्छे गुण हैं, किन्तु उनका उपयोग हर जगह कल्याणकारी रूप में नहीं किया जा सकता। सीता छद्मवेशी रावण पर दया करके ही स्वयं विपत्ति में फंसी थी। बिना विवेक कुपात्र को भी दया-करुणा का लाभ पहुँचाना उन सत्प्रवृत्तियों को अपमानित करना है। ऐसा करना देवताओं के हथियार दुष्टों को सौंप देने जैसा मूर्खता और अनीति भरा कार्य है। यदि ‘पात्र-कुपात्र’ उचित-अनुचित का विवेक न किया गया तो दयालुता और उदारता का जो लाभ सत्प्रवृत्तियों को मिलना चाहिए वह न मिल सकेगा और दुष्ट प्रवृत्तियाँ अनायास ही उनका शोषण करने में सफल हो जावेंगी। अस्तु अनीति करने वाले के प्रति इस प्रकार की सम्वेदनाओं का प्रयोग नहीं किया जाना उचित है।

कहने का मतलब है, धर्म के प्रति जिसे जितना प्रेम हो वह अधर्म के प्रति उतना ही द्वेष रखे। जिसे ईश्वर भक्ति और आस्तिकता पर विश्वास हो वह ईश्वर विरोधी नास्तिकता के एकमात्र आधार अनाचार से बचे और बचावे। इसके बिना ईश्वर और शैतान को पाप और पुण्य को एक ही समझने की भूल होती रहेगी और भीतर तथा बाहर पनपता हुआ असुरत्व आत्मिक प्रगति की दिशा में एक कदम भी आगे न बढ़ने देगा।

अनीति को देखते हुए भी चुप बैठे रहना, उपेक्षा करना, आँखों पर पर्दा डाल लेना जीवित-मृतक का चिन्ह है। जो उसका समर्थन करते हैं, वे प्रकारान्तर से स्वयं ही दुष्कर्मकर्ता हैं। स्वयं न करना किन्तु दूसरों के दुष्ट कर्मों में सहायता, समर्थन, प्रोत्साहन, पथ-प्रदर्शन करना एक प्रकार से पाप करना है। इन दोनों ही तरीकों से दुष्टता का अभिवर्धन होता है।

मानवी साहसिकता और धर्मनिष्ठा का तकाजा है कि जहाँ भी अनीति पनपती देखें वहाँ उसके उन्मूलन का प्रयत्न करें। यह न सोचें कि जब अपने ऊपर सीधी विपत्ति आवेगी तब देखा जायेगा। आग अपने छप्पर में लगे तभी उसे बुझाया जाय, इसकी अपेक्षा यह अधिक उत्तम है कि जहाँ भी आग लगी है वहाँ बुझाने को आत्मरक्षा का अग्रिम मोर्चा मानकर तुरन्त विनाश से लड़ पड़ा जाय। यदि सीधे टकराने की सामर्थ्य अथवा स्थिति न हो तो कम से कम असहयोग एवं विरोध की दृष्टि से जितना कुछ बने पड़े उतना तो करना ही चाहिए। असुरता को निरस्त करने और देवत्व को बलिष्ठ बनाने के लिए हमें अपना अनीति विरोधी रुख तो अपनाये ही रखना चाहिए।

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