योग आन्तरिक परिष्कार का विज्ञान

November 1976

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

*******

जीवन के विस्तृत अध्ययन के बाद ऋषियों ने यह तत्व-दर्शन खोजा और प्रतिपादित किया कि व्यष्टि का समष्टि से संयोग हुए बिना शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती। वैयक्तिक चेतना का विराट विश्व में विस्तीर्ण एकरस चेतना में मिलने पर ही मनुष्य की अशान्ति का अन्त हो सकता है। इस लक्ष्य के लिए निर्दिष्ट समस्त पद्धतियाँ योग का अंग हैं। क्योंकि योग का अर्थ ही है व्यष्टि का समष्टि से तादात्म्य, लघु का विभु, अणु का महत, जीव का परमात्मा से पूरी तरह जुड़ जाना, एकरस हो जाना।

कहने में यह सरल लगता है, पर है अत्यन्त कठिन। कठोपनिषद् में यमाचार्य और नचिकेता के संवाद में इस मार्ग की दुरुहता का संकेत है। वाजिश्रवा के पुत्र नचिकेता की ब्रह्म-जिज्ञासा देख, यमाचार्य ने पहले उन्हें बार-बार समझाया-

“देवैरमापि विचिकित्सितं पुरा, न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः । अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व, मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्॥

-कठो0 1। 21

नचिकेता ! इस (ब्रह्म के स्वरूप) के सम्बन्ध में तो देवता भी सन्देह ग्रस्त हैं। योग-विज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म है। वह शीघ्र समझ में नहीं आता। तुम कठिनाई में मत पड़ो। कोई अन्य वरदान माँग लो।

जब आत्मजयी नचिकेता अटल और दृढ़ रहा तथा समस्त ऐहिक भोगों, साँसारिक सुखों के प्रति गहरी अनासक्ति व्यक्त की, तभी यमाचार्य सन्तुष्ट हुए और उन्होंने कहा भी-‘‘जो दृढ़ निश्चयी है, जिसमें कठिनाइयों से जूझ सकने का साहस है, वही योगी हो सकता है।”

योग-मार्ग की कठिनाइयाँ इसलिए अनंतगुनी बढ़ जाती हैं कि यहाँ अपने से ही संघर्ष करना होता है और अपनी अभ्यस्त इच्छाओं, प्रवृत्तियों को मारना पड़ता है। यह काम बिना समझे-बूझे होने पर अनर्थकारी ही हो सकता है या फिर हताशा और असफलता मिलती है। अतः इस योग-मार्ग में प्रवेश के पूर्व ही उसका तत्वज्ञान समझ लेना अनिवार्य है। यही कारण है कि चपल बाल बुद्धि वाले लोगों को योग-पथ पर चलने की अनुमति नहीं मिलती। निष्ठावान साधकों को ही इस कठिन योग-मार्ग पर आरुढ़ होने की आज्ञा दी जाती है।

महर्षि पतंजलि ने कहा है -

“योगश्चित्तवृत्ति निरोधः।” (योगदर्शन पाद 1 सूत्र 2)

चित्त-वृत्तियों को रोकना ही योग है। यदि मनुष्य मन में निरन्तर उठने वाली बहुरंगी कामनाओं, वासनाओं को रोककर, उनका प्रयोग इन्द्रियों की इच्छा से नहीं, अपनी इच्छा से इस प्रकार कर सकने की सामर्थ्य विकसित कर ले जिस तरह सारथी रथ में जुते घोड़ों का करता है, तो वह व्यक्ति अपनी शक्तियों को ऊर्ध्वगामी बनाकर परमात्मा की प्राप्ति में समर्थ हो सकता है।

चित्त-वृत्तियों को सामान्यतः तो समझा भी नहीं जा सकता। योग-दर्शन के पाद 1 सूत्र 6 के अनुसार -

‘प्रमाण विपर्यय विकल्प निद्रा स्मृतयः।”

अर्थात्-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति ये पाँच चित्त-वृत्तियों वशवर्ती करना योगी के लिए परमावश्यक है।

प्रमाण वृत्ति को वशवर्ती करने का अर्थ सामान्यतः यह है कि प्रत्यक्ष सुख की-सी अनुभूति कराने वाली चित्त-वृत्तियों को नियंत्रित किया जाए। यों प्रमाण वृत्ति के सूक्ष्म भेदोपभेदों का विश्लेषण जटिल व दुरूह विषय हो जायेगा। अतः उस विस्तार में अभी हम नहीं जाते।

कान मधुर ध्वनि सुनने के इच्छुक रहते हैं, यह श्रोता को प्रत्यक्ष सुख की सी अनुभूति हुई। जहाँ कहीं भी मधुर शब्द सुनाई पड़ते हैं, संगीत या सुन्दर वाद्य हो रहा होता मन उधर की चल पड़ता है।

आँखें रूप पसन्द करती हैं। वस्तुओं का सौन्दर्य हो, स्थान का अथवा नर-नारियों के शरीर का। आँखें सौन्दर्य देखते ही रम जाना चाहती हैं। जीभ रस की प्यासी रहती है। नासिका सुगन्ध को पसन्द करती है। यह इन्द्रियाँ अपने-अपने सुखों की प्रचण्ड कामना करती हैं। व्यक्ति जितना हो इन सुखों में रमण करता है, शरीर उतना ही दुर्बल और निस्तेज होता जाता है। साथ ही मन भी क्षीण तथा आत्मा निष्प्रभ होता चलता है। इसीलिए प्रत्यक्ष सुखानुभूतिपरक प्रतीत होने वाली इन चित्त-वृत्तियों को नियन्त्रित करना आवश्यक है।

इन आकर्षणों से मन को विरत करने मात्र से ही इन्द्रियाँ शान्त न हो जाएंगी। दबित वासनाएँ निश्चय ही अधिक वेग से उठती हैं। फ्रायड की यह बात सही है। किन्तु उतना ही सही एडलर ओर युग का, सबलीमेशन का, उदात्तीकरण का सिद्धान्त भी सही है।

कामनाओं को अन्तर्वर्ती बना लेने पर प्रत्यक्ष पदार्थों में प्रतीयमान सुख मन और आत्मा में विद्यमान दिखने लगेगा। अभी हम थोड़े-से रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दों, ध्वनियों के आकर्षण में अपनी शक्ति गंवाकर बेचैन हो सकते हैं। पर अपने अन्तर्जगत में तो सभी विषय-वासनाओं की तृप्ति का अनन्त भण्डार मौजूद है। उस अनन्त सुख की प्राप्ति के लिए यदि हम क्षणिक वासनाओं को वशवर्ती कर उनकी सुखानुभूति से वंचित होते हैं, तो यह घाटे का नहीं, लाभ का ही सौदा है।

दूसरी वृत्ति है विपर्यय या अज्ञानता। जिसे हम मृग-तृष्णा के उदाहरण से समझ सकते हैं। मरुभूमि में दूर से चमकते, सिकता-कणों को देखकर जल का मिथ्या बोध होता है। रुपये-पैसे, सोने-चाँदी, स्त्री-पुत्रों आदि के प्रति हमारी आसक्ति भी ऐसे ही मिथ्या-बोध पर आधारित है। उनके प्रति हमारे अन्दर मात्र आसक्ति होती है, कोई तात्विक व्याख्या नहीं। हमें जो वस्तु प्रिय लगी, उसी के पीछे लग गये। प्रिय क्यों लगी ? इसके विचार का हमारे पास समय नहीं। यह प्रियता-बोध अक्सर अभ्यासवश या अनुकरणवश होता है। उसका आत्महित से कोई सम्बन्ध भी है या नहीं, यह जानने की हमें फुरसत ही नहीं। यही विपर्यय या मिथ्याज्ञान है। योगी को विपर्यय-वृत्ति से विरत होना ही पड़ेगा। उसे संसार के प्रत्येक पदार्थ का वैज्ञानिक स्वरूप समझकर उसकी ग्रहणीयता पर शान्त चित्त से विचार करना जरूरी है। अपनी मनोमान्यता मात्र के अनुसार चलते रहना नहीं।

निद्रा वृत्ति का सम्बन्ध आहार-विहार से है। योगारुढ़ को संयमित आहार-विहार करना आवश्यक है। बुरे आहार करने पर नींद अधिक आती है या जागते हुए भी आलस्य घेरे रहता है। योगाभ्यासी को अपनी तामसिक वृत्तियों में नियंत्रण कर निद्रा में कमी करनी चाहिए।

पांचवीं वृत्ति है स्मृति। ऊपर कहे हुए सुखों की स्मृति, उनका बार-बाद याद करना भी मन को विषय-सुखों की ओर आकर्षित करता है। ऐसे मानसिक चिन्तन से वस्तुतः बहुत अधिक शक्ति बर्बाद होती है। मधुर स्वप्नों का बार-बार स्मरण भी इसी में शामिल है।

इन सभी चित्त-वृत्तियों पर नियन्त्रण करते हुए अपने लक्ष्य-पथ पर चलते रहने पर ही योगी अन्ततः सफल होता है।

योग में शारीरिक, मानसिक, व्यायामों, साधनात्मक कर्मकाण्डों का भी महत्वपूर्ण स्थान है, पर तभी जब उनका उद्देश्य चिन्तन के स्वरूप को ऊँचा उठाने की दिशा में अग्रसर होता है। योग का बहिरंग रूप इन व्यायामों, कर्मकाण्डों के रूप में सामने आना आपत्तिजनक नहीं। किन्तु यह है योग का कलेवर ही, यह स्मरण रखा जाना और कराया जाना चाहिए। प्राण है- उपनिषद् प्रतिपादित वह अध्यात्म-दर्शन जो उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की प्रेरणा देता था तथा जिसे प्राचीनकाल में ब्रह्म-विद्या कहा जाता था।

चिन्तन स्तर की अन्तरंग उमंगें ही बहिरंग जीवन पर छायी रहती हैं। उनसे ही दिशा-निर्धारण और परिस्थिति-निर्माण होता है। भावना का यह मर्मस्थल परिष्कृत सन्तुलित बने, यही योग एवं अध्यात्म शिक्षा का लक्ष्य हो सकता है।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118